बिजली क्षेत्र को लेकर जो भी चर्चा होती है वह अनिवार्य रूप से वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) की अपने आपूर्तिकर्ताओं और ग्राहकों दोनों के साथ त्रुटिपूर्ण व्यवहार को लेकर खिंचाई के साथ समाप्त होती है। डिस्कॉम को कोसने का यह सिलसिला तीन दशक से अधिक समय से चल रहा है। इन वितरण कंपनियों पर अस्वीकार्य पारेषण और वितरण को लेकर नुकसान, तर्कहीन शुल्क, विभिन्न स्तरों पर भ्रष्टाचार, खराब ग्राहक सेवा, संदिग्ध लेखांकन से लेकर आम तौर पर बिजली क्षेत्र को अपने चंगुल में फंसा कर रखने के आरोप हैं।
यह माना जाना चाहिए कि कुछ डिस्कॉम (निजी और राज्य के स्वामित्व वाले दोनों) अपने क्षेत्र के दलदल से बाहर निकलने में कामयाब रही हैं और उत्कृष्ट सुधार का प्रदर्शन किया है। लेकिन वे अपवाद हैं। कुल मिलाकर, कई योजनाओं के बावजूद वितरण क्षेत्र अभी भी अर्थव्यवस्था पर बोझ बना हुआ है। यह सबको पता है कि डिस्कॉम को लेकर जो भी शिकायतें हैं वे राजनीतिक दलों की गुमराह करने वाली और लोकलुभावन नीतियों का परिणाम हैं।
राज्य सरकारों के प्रतिरोध और डिस्कॉम यूनियनों के असहयोगी रवैये के कारण दशकों से केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय द्वारा प्रस्तावित सुधार से संबंधित विभिन्न पहलों को अमलीजामा नहीं पहनाया गया है। इसलिए, बिजली मंत्रालय कठोर अनुपालन आवश्यकताओं के साथ वितरण कंपनियों पर लगातार नकेल कसने की कोशिश करता रहा है।
इनमें से कुछ ने मदद भी की है, जो इन कंपनियों की घटती बकाया राशि, वितरण क्षमता में कुछ सुधार आदि से स्पष्ट है। इस जटिल माहौल में, सर्वोच्च न्यायालय ने सख्ती और कठोर टिप्पणियों के साथ पहल की है। जीएमआर वरोरा एनर्जी लिमिटेड बनाम केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग और अन्य के मामले में 20 अप्रैल को दिए गए एक ऐतिहासिक फैसले में सर्वोच्च अदालत की तरफ से कुछ तल्ख टिप्पणियां की गई हैं।
मोटे तौर पर ये टिप्पणियां पांच श्रेणियों में आती हैं। पहला ‘कानून में बदलाव’ का मुद्दा है जो शुल्क को प्रभावित करता है। अदालत ने अपने आदेश में बड़े क्षोभ के साथ इस बात को इंगित किया है कि जब बिजली खरीद समझौता ‘कानून में बदलाव’ के आधार पर मुआवजे के भुगतान के लिए एक तंत्र प्रदान करता है, तो अदालत के समय को बरबाद करने वाले अनुचित मुकदमेबाजी से बचा जाना चाहिए।
अंततः डिस्कॉम के साथ-साथ उत्पादकों को मुकदमेबाजी की भारी लागत उठानी पड़ती है जिससे अंतिम उपभोक्ताओं को आपूर्ति की जाने वाली बिजली की लागत बढ़ जाती है। न्यायालय इस बात की ओर भी इशारा करता है कि ‘कानून में बदलाव’-मतलब घटनाओं को उस दिन से देखना होगा जिस दिन राज्य के एजेंसियों द्वारा नियम, आदेश, अधिसूचनाएं जारी की जाती हैं। इसके बावजूद डिस्कॉम मुकदमेबाजी से बाज नहीं आतीं।
दूसरा बिंदु क्षेत्राधिकार से संबंधित है। फैसले में कहा गया है कि विद्युत अधिनियम, 2003 की धारा 125 के तहत सर्वोच्च न्यायालय में अपील केवल नागरिक प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 100 में निर्दिष्ट किसी भी आधार पर स्वीकार्य है। इस प्रकार, सर्वोच्च न्यायालय में अपील की अनुमति तभी होगी जब कानून को लेकर पर्याप्त सवाल खड़े किए गए हों।
हालांकि, जैसा कि पहले भी देखा गया है, ऐसे मामलों में भी जहां विद्युत विनियामक आयोगों और अपील ट्रिब्यूनल फॉर इलेक्ट्रिसिटी (एपीटीईएल) द्वारा सुविचारित समवर्ती आदेश पारित किए जाते हैं, उन्हें डिस्कॉम के साथ-साथ उत्पादकों द्वारा भी चुनौती दी जाती है। आदेश में कहा गया है कि एक बार विद्युत नियामक आयोग और एपीटीईएल जैसे विशेषज्ञ निकायों द्वारा समवर्ती निष्कर्ष मिलने के बाद, डिस्कॉम को लंबे समय तक मुकदमेबाजी में शामिल होने की कोई आवश्यकता नहीं है।
यह विद्युत अधिनियम, 2003 के मूल उद्देश्य को विफल करता है। मुकदमेबाजी के कारण, एक बार फिर अंतिम उपभोक्ता को भुगतना पड़ता है। सर्वोच्च न्यायालय का मत है कि इस तरह के अनावश्यक और अनुचित मुकदमेबाजी पर अंकुश लगाने की आवश्यकता है।
तीसरा, जैसा कि शीर्ष अदालत ने निर्देश दिया है, विद्युत मंत्रालय को एक तंत्र विकसित करना चाहिए जिसके तहत राज्य या केंद्रीय नियामक आयोग से पहला आदेश प्राप्त होने के बाद, डिस्कॉम को पहले उत्पादन कंपनियों को भुगतान करना चाहिए ताकि अंत में उपभोक्ताओं को ‘रख-रखाव लागत’ के बोझ को वहन करने से बचाया जा सके।
डिस्कॉम मुकदमा जीतने की स्थिति में रिफंड की गारंटी के साथ विधिवत भुगतान करने के बाद आदेश के खिलाफ अपील करने के अपने अधिकार का प्रयोग कर सकते हैं। डिस्कॉम, हालांकि, कई मुकदमों का सहारा लेना जारी रखते हैं, जिससे उत्पादन कंपनियों को देय भुगतान में देरी होती है, और वास्तव में, उनके भुगतान चूक के लिए देर से भुगतान अधिभार (एलपीएस) का भुगतान करना पड़ता है।
यदि ऐसा एलपीएस की देनदारी बनती है, तो संबंधित डिस्कॉम को ऐसे एलपीएस/रख-रखाव लागत को अंतिम उपभोक्ताओं पर डालने की अनुमति नहीं दी जाएगी। चौथा, निर्णय इस तथ्य पर खेद व्यक्त करता है कि डिस्कॉम बिजली श्रृंखला में बड़े पैमाने पर वित्तीय तनाव का मूल कारण हैं, जिससे अर्थव्यवस्था के व्यवस्थित विकास पर असर पड़ता है।
न्यायालय ने पाया कि केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग, ऊर्जा मंत्रालय और यहां तक कि डिस्कॉम से जुड़ी विभिन्न संसदीय समितियों से उत्पादक कंपनियों को समय पर भुगतान करने के स्पष्ट निर्देश हैं। कई मुकदमों के मद्देनजर भुगतान को रोकने के प्रभाव के परिणामस्वरूप रख-रखाव लागत/एलपीएस में वृद्धि होती है, जो तब डिस्कॉम की कुल राजस्व आवश्यकता में परिलक्षित होती है और अंतत: शुल्क में बढ़ोतरी का बोझ अंतिम उपभोक्ताओं के ऊपर डाल दिया जाता है।
पांचवां बिंदु उस दिलचस्प तथ्य को लेकर है जिसे कार्यवाही के दौरान डिस्कॉम के विद्वान वकील ने माना। उन्होंने स्वीकार किया कि जिस कीमत पर बिजली स्वतंत्र बिजली उत्पादकों से खरीदी जाती है, वह सरकारी उत्पादक कंपनियों से खरीदी गई बिजली की तुलना में काफी कम है। अदालत ने इस बात को भी संज्ञान में लिया।
अधिकांश टिप्पणियों का मुख्य सार अंततः सर्वोच्च न्यायालय के इस आग्रह पर निर्भर करता है कि केंद्र विद्युत मंत्रालय के माध्यम से अनावश्यक और अनुचित मुकदमेबाजी जिसकी कीमत भी अंतिम उपभोक्ता को चुकानी पड़ती है, से बचने के लिए एक तंत्र विकसित कर सकता है। इसके लिए सख्त कार्यान्वयन के साथ अधिक विशिष्ट होने और अधिकारियों को आगे और जवाबदेह बनाने की जरूरत है। (लेखक इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं। वह इन्फ्राविजन फाउंडेशन के संस्थापक और प्रबंध न्यासी भी हैं)