केंद्र सरकार बुनियादी ढांचे के विकास पर बहुत अधिक जोर दे रही है। उदाहरण के लिए इस वर्ष के बजट में पूंजीगत व्यय के लिए आवंटन 37 फीसदी बढ़ाकर रिकॉर्ड 10 लाख करोड़ रुपये कर दिया गया है। भारत को कमजोर अधोसंरचना के कारण मुश्किलों का सामना करना पड़ा है और इसकी बदौलत कारोबार करने की लागत बढ़ी और प्रतिस्पर्धी क्षमता प्रभावित हुई। उच्च पूंजीगत व्यय वृद्धि के लिए काफी मायने रखता है।
इसके अलावा चूंकि समेकित मांग कमजोर है तो ऐसे में यह निजी क्षेत्र के निवेश के लिहाज से भी बहुत उत्साह बढ़ाने वाली बात नहीं है। इस बीच सरकार का निवेश करना भी समझ में आता है जिससे वृद्धि को गति मिलेगी और नए रोजगार तैयार होंगे।
समय के साथ बेहतर अधोसंरचना कुल किफायत में भी इजाफा करेगी और मध्यम अवधि में उच्च टिकाऊ वृद्धि को सक्षम बनाएगी। बहरहाल, उच्च पूंजीगत व्यय उस स्थिति में सीमित हो सकता है जब सरकार परियोजनाओं का क्रियान्वयन समय पर न कर पाए। फिलहाल मामला ऐसा ही प्रतीत हो रहा है।
सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय की अधोसंरचना एवं परियोजना निगरानी शाखा द्वारा मार्च 2023 में जारी किए गए जो आंकड़े इस समाचार पत्र ने प्रकाशित किए थे वे दिखाते हैं कि केंद्र सरकार के स्तर पर विलंब से चल रही परियोजनाओं का स्तर 56.7 फीसदी के साथ 2004 के बाद उच्चतम स्तर पर था।
गत वर्ष यह 42.1 फीसदी था। यह शाखा 150 करोड़ रुपये और उससे अधिक मूल्य की सभी परियोजनाओं पर नजर रखती है। 2010 के पहले वह 100 करोड़ रुपये और उससे अधिक मूल्य की परियोजनाओं पर नजर रखती थी। अधोसंरचना परियोजनाओं के पैमाने को देखते हुए आधार स्तर पर बदलाव रुझान को प्रभावित करता नहीं दिखता।
यह बात ध्यान देने योग्य है कि परियोजनाओं के क्रियान्वयन में देरी न केवल अर्थव्यवस्था को होने वाले संभावित लाभ से वंचित रखती है बल्कि लागत में भी इजाफा हो जाता है। अनुमान है कि सूचीबद्ध परियोजनाओं की लागत मूल से 22 फीसदी अधिक होगी। इसका अर्थ है 4.6 लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त व्यय या फिर इस वर्ष के पूंजीगत व्यय बजट का करीब आधा।
कुल 1,449 सूचीबद्ध परियोजनाओं में से लगभग 16 फीसदी पहले ही 60 महीने से अधिक देरी से चल रही हैं। करीब 40 फीसदी परियोजनाओं में 25 से 60 महीने की देरी हो चुकी है। ये बड़े झटके हैं और इनसे बचा जाना चाहिए। सूची में 333 परियोजनाएं ऐसी भी हैं जिनकी शुरुआत के समय या पूरा होने में लगने वाली अवधि के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई है।
परियोजनाओं से इस प्रकार नहीं निपटा जाना चाहिए। खासतौर पर जब ऐसी परियोजनाओं पर वृहद आर्थिक कारणों से भी निर्भरता अधिक हो। ध्यान देने वाली बात है कि देरी की वजहों का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। इस सूची में भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया में गंवाया गया समय, वन या पर्यावरण मंजूरी हासिल करना, निविदा प्रक्रिया और कानून व्यवस्था की दिक्कतें शामिल हैं।
इससे पता चलता है कि प्रशासन के विभिन्न स्तरों और विभागों में समन्वय की कमी है। मौजूदा सरकार इस समस्या को हल करने का प्रयास कर रही है लेकिन वह इससे पूरी तरह नहीं निपट पाई है।
परियोजनाओं को समय पर निपटाने की जरूरत पर जहां बहुत अधिक जोर नहीं दिया जा सकता है, वहीं वृहद आर्थिक प्रबंधन के नजरिये से यह भी सोचने वाली बात है कि जब 50 फीसदी से अधिक मौजूदा परियोजनाएं देर से चल रही हैं या उनकी लागत बढ़ चुकी है तो क्या सरकार या उसकी एजेंसियों को नई परियोजनाएं शुरू करने की प्रतिबद्धता जतानी चाहिए।
यह नुकसानदेह साबित हो सकता है क्योंकि बढ़े हुए ऋण का परिणाम राजकोषीय दृष्टि से भी झेलना पड़ेगा और निजी निवेश की मांग दूरी बना सकती है। हालांकि इस बात में संदेह नहीं है कि भारत को अधोसंरचना व्यय बढ़ाने की आवश्यकता है, वहीं सरकार को भी क्षमता और वित्तीय बाधाओं की अनदेखी नहीं करनी चाहिए। ऐसे में बेहतर होगा कि सरकार ध्यान में रखे कि उसे इन प्रतिबद्धताओं की क्या कीमत चुकानी पड़ सकती है।