चीन क्या चाहता है? वह 3,488 किलोमीटर लंबी वास्तविक नियंत्रण रेखा पर गतिविधियां बढ़ाने के बावजूद उन्हें गोलीबारी तक पहुंचने से रोके हुए है। ऐसा करके वह भारतीय सैनिकों और आम जनमानस को भड़का क्यों रहा है? उसका लक्ष्य और संदेश क्या है? हम इन सब को लेकर किस प्रकार की प्रतिक्रिया दे रहे हैं?
फिलहाल सैन्य जवाब नहीं दिया जा रहा है। भारत के सशस्त्र बल जमीन पर पर्याप्त और प्रभावी ढंग से निपट रहे हैं। इसे वीरान और अलग-थलग मोर्चे पर हाथापाई और धक्कामुक्की के एक निरंतर चल रहे सिलसिले के रूप में नहीं देखा जा सकता है। हमें यह समझना होगा कि चीन चाहता क्या है। अगर केवल भूभाग का मामला होता तो वह गोलाबारी से परहेज न करता। तब उसने दूर से मार करने वाले हथियार आजमाये होते ताकि न्यूनतम मानव क्षति हो।
क्या वह इसलिए कर रहा है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा के साथ लगे इलाके और लद्दाख की तरह बफर जोन में बदले गए इलाके को तर्कसंगत ठहराया जा सके? केवल इतना करने के लिए वह 15,000 फुट की ऊंचाई पर और इतने विपरीत हालात में करीब तीन डिवीजन और भारी हथियार नहीं तैनात करेगा। इससे न तो उसकी सुरक्षा मजबूत होगी, न ही संसाधनों तक उसकी पहुंच बेहतर होगी, न ही अपने इलाके की रक्षा करने की भारत की इच्छाशक्ति कमजोर होगी।
इसके बावजूद भारत में चीन की हरकतों को लेकर सारी बहस भूभाग पर केंद्रित है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जो सतर्कता बरतते हुए कभी चीन का नाम नहीं लेते उन्होंने 2020 में एक दफा इस मुद्दे पर कुछ कहा था और वह यह कि ‘कोई नहीं आया।’
विपक्ष की आलोचना और सामरिक टिप्पणियां भी भूभाग पर केंद्रित रहती हैं। हाल के दिनों में राहुल गांधी भी मोदी पर हमला करते हुए दिखे कि चीन के हाथों जमीन गंवाने के बावजूद मोदी चुप हैं। तृणमूल कांग्रेस से लेकर असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम तक तमाम विपक्षी दलों का यही रुख है।
चीन के कदमों या उसकी हरकतों से नहीं लगता कि वह जमीन पर कब्जा करना चाहता है। बहुत संभव है कि वह हमारे दिमागों पर काबिज होना चाहता है। वह सैन्य तैनाती के मामले में भारत को पीछे छोड़ना चाहता है और शीत युद्ध के बाद के तीन दशकों के सामरिक पुनर्संतुलन के बीच भारत को असंतुलित करना चाहता है। भारत-अमेरिका नाभिकीय समझौते के बाद इस प्रक्रिया ने जोर पकड़ा और मोदी के आगमन के बाद इसे नए सिरे से गति मिली।
चीन भारत को कई जटिल सामरिक और राजनीतिक संदेश दे रहा है। हम भी जमीन या सैन्य रणनीतिक मसलों पर ध्यान देकर अपना कुछ खास भला नहीं कर रहे हैं। इससे हमारी राजनीतिक और सामरिक संस्कृति के बारे में भी कुछ अच्छी बात सामने नहीं आती। हमें इस विषय को आगे और खंगालने की आवश्यकता है। कोई पक्ष जब जंग हार जाता है तो वह आने वाली कई पीढि़यों तक उसी जंग को बार-बार लड़ता रहता है। हम भी अपनी कल्पनाओं में 1962 की जंग को बार-बार लड़ते रहते हैं। मानो हम खुद को यकीन दिलाना चाहते हों कि हमारा प्रदर्शन पहले से बेहतर रहेगा।
एक कठोर सत्य यह है कि वह युद्ध 60 वर्ष पहले हुआ था। तब से अब तक दुनिया बहुत बदल चुकी है। भूराजनीति बदली है, शीतयुद्ध समाप्त हो चुका है, चीन भी बदला है और भारत भी। सैन्य मामलों में भी क्रांतिकारी बदलाव आए हैं। अब यांत्रिक शक्ति की जगह साइबर लड़ाई, ड्रोन, रोबोट और मानव संपर्क की कमी ने ले ली है। यदि हमारी कल्पना अभी भी सन 1962 की चौकियों में उलझी हुई है तो मुझे साहस करके यह कह लेने दीजिए कि हमारी सामरिक और राजनीतिक सोच भी उसी मानसिकता में अटकी हुई है।
यही वजह है कि विपक्ष ने गश्त के अधिकार या कथित रूप से भूभाग गंवाने को लेकर हमले शुरू कर दिए। शायद मोदी सरकार भी उसी पुराने सोच से ग्रस्त है और इसी के चलते वह संसद में इस विषय पर चर्चा की इजाजत नहीं दे रही है।
अगर मामला जमीन का या गश्त के अधिकार का हो तो घरेलू राजनीति में मामले को तब तक निर्णायक रूप से हल करना असंभव है जब तक आप यह खुलासा करने को तैयार न हों कि आप कहां थे और कहां हैं? ये दोनों बातें दिक्कतदेह हो सकती हैं। मैं इनके विस्तार में नहीं जाऊंगा।
वास्तव में चर्चा व्यापक राजनीतिक, सामरिक और भूराजनीतिक पहलुओं के बारे में होनी चाहिए और हमारा राजनीतिक माहौल उसके लिए तैयार नहीं है। भाजपा दो कारणों से हिचक रही है। पहली वजह राजनीतिक है और वह यह कि पार्टी नहीं चाहती कि राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर प्रधानमंत्री के रिकॉर्ड पर सवाल उठाया जाए या उस पर सार्वजनिक चर्चा हो। वह पार्टी को वोट दिलाने वाले सबसे बड़े नेता हैं।
उनकी सबसे बड़ी योग्यता यही बताई जाती है कि आजाद भारत के इतिहास में राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर वह सबसे मजबूत रुख रखते हैं। शी चिनफिंग समय-समय पर इसे चोट पहुंचाते रहते हैं। दूसरी वजह भी राजनीतिक है लेकिन वह उतनी दलगत नहीं है। मौजूदा दौर में वैश्विक शक्ति के पुनर्संतुलन की जो जरूरत है, भारत जिस तरह के कदम उठा रहा है, इसमें जो संवेदनशीलता शामिल है, वह जिस गुणवत्ता वाली बहस की मांग करता है वह मौजूद ही नहीं है।
ऐसा नहीं है कि हमारे राजनीतिक वर्ग के परिपक्वता की कमी है। अधिकांश प्रमुख विपक्षी दलों के नेताओं में यह क्षमता है और वे ऐसा कर चुके हैं। वे राष्ट्रीय सुरक्षा और तेजी से बदलते वैश्विक समीकरण को समझते हैं। बात बस यह है कि उनके और सत्ताधारी दल के बीच समुचित विश्वास की कमी है।
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत वाली सरकार के आगमन के साढ़े आठ वर्ष बाद तक विपक्ष को कभी भरोसे में नहीं लिया गया। यहां तक कि बंद दरवाजों के पीछे होने वाले राष्ट्रीय सुरक्षा के संवेदनशील मसलों पर भी नहीं। यह राजनीतिक बिखराव देश की सबसे बड़ी सामरिक कमजोरी है। चीन इसी को निशाना बना रहा है। वह नहीं चाहता कि उसे कोई जान गंवानी पड़े। गलवान में हुई जानलेवा झड़प बीते दो वर्षों में उसकी नीति की सबसे बड़ी नाकामी थी। चीन के आचरण का तरीका देखिए।
हर कुछ महीने में चीन भारत को शर्मिंदा करने की कोई हरकत करता है, ताकि प्रधानमंत्री मोदी परेशान हों और साथ ही भारतीय रणनीतिकार भ्रमित हों। इसके दो ताजा उदाहरण हैं तवांग में झड़प और देश के सबसे प्रमुख चिकित्सा शिक्षा संस्थान अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान पर साइबर हमला। ये दोनों तब हुए हैं जब हमने अमेरिका के साथ युद्ध अभ्यास समाप्त ही किया है। अगर भारत क्वाड के साझेदार देश के साथ हिमालय में तिब्बत के करीब अभ्यास करके संकेत दे रहा था तो चीन ने भी अपनी तरह से इसका प्रत्युत्तर दिया। इस प्रतीकात्मक कार्रवाई का उत्तर अधिक क्षति पहुंचाने वाली कार्रवाई से दिया गया।
यह सिलसिला आने वाले समय में जारी रहेगा। चीन की नजर जमीन पर नहीं है। उसका लक्ष्य हमारी राष्ट्रीय इच्छा, नैतिकता और स्वायत्तता की भावना है जिससे हमारा सामरिक चयन तय होता है। वे भारत और मोदी सरकार के सबसे कमजोर पहलू को निशाना बना रहे हैं, यानी हमारी विभाजित राजनीति को। यह बात सरकार को विवश करती है कि वह संसद में लोगों को साफ जानकारी न दे और खामोश रहने पर मजबूर रहे और चीन अधिकाधिक इलाके पर काबिज होता रहे। यह कब्जा लद्दाख या अरुणाचल प्रदेश पर नहीं बल्कि हमारी राजनीतिक जमीन पर होगा।
नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार भारत की रक्षा को तभी मजबूत कर सकते हैं जब शीर्ष पर राजनीतिक समीकरणों को बेहतर किया जाए और विपक्ष के साथ सम्मान से पेश आया जाए तथा उनके साथ भरोसा साझा किया जाए ताकि भारत एकजुट होकर अपनी बात कह सके। अगर आप 1962 पर केंद्रित प्रतिष्ठित पुस्तकें पढ़ेंगे तो आप पाएंगे कि संसद में हुई उग्र बहसों और आलोचना से शर्मिंदा होकर नेहरू एक ऐसे युद्ध में जा फंसे जिसके बारे में उन्हें पता था कि हार निश्चित है।
उन्हें शर्मिंदा करने वाले सभी आलोचक विपक्ष के नहीं थे। उनमें से कई तो उनकी पार्टी और यहां तक कि उनके मंत्रिमंडल के साथी थे। सन 1962 के प्रमुख सबकों में से एक यह था कि हमें कहीं अधिक बेहतर, परिपक्व और आपसी विश्वास वाली राजनीति की आवश्यकता है। इस समय जबकि सैन्य बल अपना काम प्रभावी ढंग से कर रहे हैं, हमें एक बार फिर उसी राजनीति की जरूरत है।