विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की वॉशिंगटन डीसी में आयोजित स्प्रिंग बैठकों के सबसे अनुमानित घटकों में से एक थी वैश्विक सॉवरिन डेट राउंडटेबल, जिसका उद्देश्य था कमजोर प्रदर्शन करने वाली व्यवस्था में नई जान फूंकना ताकि सार्वजनिक ऋण का पुनर्गठन किया जा सके।
ऐसा इसलिए कि दुनिया गंभीर सॉवरिन ऋण संकट से गुजर रही है और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय ढांचा उससे प्रभावी ढंग से निपटने में नाकाम रहा है। महामारी का असर और राहत पर होने वाले खर्च को अगर दुनिया भर के मुद्रास्फीति संबंधी माहौल के साथ मिला कर देखें (यह दबाव पश्चिम के प्रोत्साहन पैकेजों और यूक्रेन पर रूस के आक्रमण की वजह से ब्याज दरों में इजाफा होने से बना) तो उसने कई विकासशील देशों में सरकार की वित्तीय स्थिति को प्रभावित किया।
जैसा कि आईएमएफ की प्रबंध निदेशक क्रिस्टलीना जॉर्जिवा ने कहा भी कि कम आय वाले करीब 15 फीसदी देश मुश्किल में हैं जबकि 45 फीसदी अन्य देश भारी कर्ज से जूझ रहे हैं। बहरहाल मौजूदा व्यवस्थाएं इस संकट को लेकर प्रतिक्रिया देने में नाकाम रहीं क्योंकि सन 1980 के दशक में व्यवस्थागत पुनर्गठन के बाद सॉवरिन ऋण व्यवस्था में ढांचागत बदलाव आए हैं।
एक बड़ा बदलाव है कर्जदाता देश के रूप में चीन का उदय। इसकी वजह से जटिलताएं उत्पन्न हुईं क्योंकि चीन कर्जदाताओं के मौजूदा पेरिस क्लब का सदस्य नहीं है। यह वह समूह है जो मुश्किल से जूझ रहे कर्जदारों को उबारने के लिए करीबी समन्वय कायम करता है। चीन कई अन्य वजहों से दिक्कतदेह कर्जदाता रहा है।
मिसाल के तौर पर वह अपने विकास बैंकों के माध्यम से ऋण देने पर जोर देता है। शेष विश्व इसे सरकार से सरकार को द्विपक्षीय ऋण के रूप में देखता है जबकि चीन के लिए यह निजी वाणिज्यिक कर्ज की तरह है जहां अन्य देशों के द्विपक्षीय ऋण के उलट वह अदायगी में प्राथमिकता पाता है। इसके अलावा चीन की आंतरिक व्यवस्था ऐसी है जहां किसी परिसंपत्ति का बाजार से कम मूल्यांकन की व्यवस्था अच्छी तरह विकसित नहीं हुई है।
बल्कि जानकारी के मुताबिक सॉवरिन ऋण पुनर्गठन के मामलों में हर बार जब किसी परिसंपत्ति के मूल्यांकन में कमी की जाती है तो इस बात को चीन की सर्वोच्च राज्य परिषद के उच्चतम स्तर से मंजूरी दिलानी होती है। ऐसे में स्वाभाविक रूप से पुनर्गठन की प्रक्रिया में शामिल होने के लिए ही कोई प्रोत्साहन नहीं है और एक बार प्रक्रिया में शामिल होने के बाद निर्णय लेने के स्तर पर भी गतिरोध है जिसे चीन की व्यवस्था को हल करना होगा।
ऐसे में चीन की प्रवृत्ति उसे निरस्त करने या बट्टे खाते में डालने के बजाय उसका नवीनीकरण करने की है। आखिर में कुछ चिंताएं इस बारे में भी हैं कि चीन उस समझौते को मानने से इनकार कर रहा है कि आईएमएफ और विश्व बैंक ‘अत्यधिक वरिष्ठ’ हैं और किसी नाकाम होती अर्थव्यवस्था को वित्तीय मदद मुहैया कराते समय उन्हें अन्य संस्थाओं की तरह परिसंपत्ति मूल्य कम करने की आवश्यकता नहीं होती।
इन संस्थानों के नेतृत्व को यकीन है कि उनकी बेहतरीन क्रेडिट रेटिंग बरकरार रखने के लिए यह स्थिति आवश्यक है। यह उन्हें फंडिंग के विभिन्न स्रोतों तक पहुंच बनाने का अवसर देती है।
कुछ रिपोर्ट के मुताबिक सॉवरिन डेट राउंडटेबल में अपेक्षाकृत अलग-थलग रहने के बाद चीन उस स्थिति में बहुपक्षीय विकास बैंकों का विशेष दर्जा बरकरार रखने को तैयार है अगर विश्व बैंक भी अपने अंतरराष्ट्रीय विकास एसोसिएशन की फंडिंग लाइन की मदद से मुश्किल से जूझ रहे कर्जदारों को कर्ज देना शुरू कर दे।
यह एसोसिएशन ऋण जोखिम वाले देशों को रियायती कर्ज और अनुदान देता है। देखना होगा कि क्या लेनदेन की यह स्थिति चीन के बॉन्डधारकों को घुमावदार तरीके से वैश्विक सार्वजनिक फंड से सहायता दिलाने योग्य बनाएगी।
अगर ऐसा होता है तो यह स्वीकार्य नहीं होगा। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भारत की जी20 प्रेसिडेंसी के हिस्से के रूप में सॉवरिन ऋण पुनर्गठन सुधार को प्राथमिकता दी है। यह समझदारी भरा कदम है और इस समस्या का किफायती और समतापूर्ण हल निकलना इस प्रेसिडेंसी की एक बड़ी कामयाबी मानी जाएगी।