पिछले वित्त वर्ष में 8.5 प्रतिशत की धमाकेदार वृद्धि दर हासिल करने के बाद भारत की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की रफ्तार फिर हिचकोले खाने लगी है। आर्थिक वृद्धि दर सुस्त होकर 6.5-7.0 प्रतिशत की अपनी पुरानी कमजोर रफ्तार पकड़ने लगी है। कम से कम तीन कारणों से जीडीपी में इस नरमी की आशंका पहले ही जताई जा रही थी। इन कारणों में राजकोषीय उपायों के उम्मीद से कम परिणाम, लगातार 21 महीनों तक अधिक ब्याज दरें और बैंकों से उधार लेने से जुड़ी कड़ी शर्तें शामिल हैं।
वर्ष 2024-25 की दूसरी तिमाही में आर्थिक वृद्धि दर में कमी चिंताजनक है। केंद्र एवं राज्य सरकारों की तरफ से उम्मीद से कम पूंजीगत व्यय इसकी वजह मानी जा रही है। लंबे समय तक चुनावी सरगर्मी और प्रतिकूल मौसम की मार पूंजीगत व्यय में कमी के कारण रही हैं। हालांकि, उम्मीद जताई जा रही है कि दूसरी छमाही में अर्थव्यवस्था की गति फिर तेज होगी मगर यह पूर्व में जताए गए अनुमानों से कम रह सकती है। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने चालू वित्त वर्ष के लिए आर्थिक वृद्धि दर अब 6.6 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया है जबकि पहले उसने यह 7.2 प्रतिशत रहने की उम्मीद जताई थी।
इन उतार-चढ़ाव के बावजूद मध्यम अवधि के लिए संभावना मजबूत दिख रही है। क्रिसिल का अनुमान है कि मौजूदा दशक के अंत तक भारत की औसत सालाना आर्थिक वृद्धि दर 6.7 प्रतिशत रह सकती है। अमूमन, दीर्घ अवधि की आर्थिक वृद्धि में तीन कारक- पूंजी, श्रम और उत्पादकता- सहायक होते हैं। उत्पादकता अधिक होने का मतलब कच्चे माल की मात्रा स्थिर रखते हुए अधिक उत्पादन प्राप्त करना है। हमें लगता है कि पूंजी निवेश आर्थिक वृद्धि में बड़ा योगदान देगा। इस समय ज्यादातर पूंजी निवेश सरकारी आधारभूत परियोजनाओं और घरेलू निवेश से हो रहा है। किसी विकासशील अर्थव्यवस्था के लिए बुनियादी ढांचे का तेजी से विकास काफी जरूरी होता है क्योंकि इससे न केवल निकट अवधि में कई तरह के लाभ मिलते हैं बल्कि देश की दीर्घ अवधि की आर्थिक संभावना भी मजबूत होती है। अच्छी बात यह है कि कोविड-19 महामारी के बाद आधारभूत ढांचे के विकास पर सरकार द्वारा जोर दिए जाने के कई सकारात्मक मगर चौंकाने वाले परिणाम मिले हैं। मगर कई सकारात्मक बातों जैसे वेतन मद में कम खर्च, कंपनी करों में कमी और सरकार के आधारभूत क्षेत्र में निवेश झोंकने के बावजूद भारत का निजी क्षेत्र पूरे उत्साह के साथ निवेश गतिविधियों में भाग नहीं ले पा रहा है। मौजूदा आधारभूत परियोजनाओं से हो रहे लाभ के कारण इस्पात और सीमेंट जैसे क्षेत्रों से सीमित मात्रा में निवेश आ सकता है। उत्पादन प्रोत्साहन योजना (पीएलआई) के और रफ्तार पकड़ने का भी फायदा मिलेगा क्योंकि इससे पूंजी निवेश में गति आएगी।
क्रिसिल रिसर्च का मानना है कि सेमीकंडक्टर और हरित ऊर्जा क्षेत्र में नए निवेश बढ़ेंगे जिससे धीरे-धीरे इस क्षेत्र की सरकार की तरफ से आने वाले निवेश पर निर्भरता कम हो जाएगी। मगर अमेरिका में शुल्क नीति को लेकर अनिश्चितता और भारत में मांग की मौजूदा स्थिति को देखते हुए यह प्रगति धीमी रहेगी। सर्वाधिक मुमकिन स्थिति में आर्थिक वृद्धि में श्रम का योगदान तुलनात्मक रूप से कम रह सकता है। श्रम की कमजोर गुणवत्ता और श्रम बल में महिलाओं की कम भागीदारी इसका कारण हो सकता है। वर्ष 2023-24 में भारत में महिला श्रम बल की भागीदारी बढ़कर 42 प्रतिशत हो गई मगर चीन और वियतनाम की तुलना में यह अब भी कम है। अधिक श्रम की जरूरत वाले क्षेत्रों में शिक्षा एवं रोजगार की संभावना में सुधार आर्थिक वृद्धि की संभावनाएं मजबूत कर सकता है। आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा देने वाला तीसरा कारक उत्पादकता इस पूरे दशक में बड़ी भूमिका निभाएगी। भौतिक ढांचों में सुधार, डिजिटलीकरण में तेजी और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) जैसे महत्त्वपूर्ण सुधार कारोबार एवं निवेश में सुगमता और बढ़ाएंगे।
डिजिटलीकरण की प्रक्रिया काफी तेज हुई है, खासकर कोविड महामारी के बाद तो इस क्षेत्र में कमाल की प्रगति हुई है। आधारभूत ढांचे और आर्थिक सुधारों की रफ्तार भी तेजी से बढ़ी है। वृद्धि दर और तेज करने और दुनिया में अपना दमखम बनाए रखने के लिए भारत को बुनियादी ढांचे का विकास जारी रखने और पीएलआई योजना को बढ़ावा देने पर अनिवार्य रूप से काम करना चाहिए। डिजिटलीकरण में निवेश थोड़ा लगता है मगर अनुकूल माहौल में इसमें नवाचार एवं सक्षमता को बढ़ावा देने की खूब क्षमता होती है। जेनेरेटिव आर्टिफिशल इंटेलिजेंस के आने के बाद उत्पादकता बढ़ने से जुड़े लाभ मिलने खासकर बार-बार दोहराए जाने वाले कार्यों की गुणवत्ता बढ़ने की संभावना और मजबूत हो गई है। जीएसटी के प्रावधानों पर विचार करने की जरूरत है, खासकर इसमें पेट्रोलियम उत्पादों और एल्कोहल को शामिल करने पर विचार किया जाना चाहिए। श्रम एवं भूमि सुधार निजी निवेश को बढ़ावा देंगे और पूर्ण रूप से लागू होने के बाद आर्थिक वृद्धि की संभावना को आगे बढ़ाएंगे।
कई दूसरी चुनौतियां भी मौजूद हैं। शुल्कों को लेकर तनातनी एवं संरक्षणवादी नीतियों सहित जलवायु परिवर्तन और भू-राजनीतिक स्तर पर उठापटक भारत की कड़ी परीक्षा लेंगे। जब विकसित देश तेज वृद्धि दर हासिल करने की प्रक्रिया में थे तो उन्हें इन मसलों का सामना नहीं करना पड़ा था। ऊंची वृद्धि दर हासिल करने के क्रम में भारत कार्बन का भी अधिक उत्सर्जन करेगा क्योंकि जीवाश्म ईंधन इसकी ऊर्जा आपूर्ति का एक प्रमुख हिस्सा बने रहेंगे। भारत अपनी आर्थिक प्रगति में उद्योग एवं बुनियादी ढांचे को अधिक तरजीह देने की तरफ कदम बढ़ा रहा है। ये क्षेत्र कार्बन का अधिक उत्सर्जन करते हैं। इससे आर्थिक प्रगति के साथ ही कार्बन उत्सर्जन कम करना एक कठिन चुनौती साबित होगी।
ऊंची वृद्धि दर, ऊर्जा सुरक्षा और हरित ऊर्जा की तरफ बढ़ते कदमों के बीच संतुलन साधने की भारत की क्षमता कसौटी पर रखी जा रही है। इस स्थिति से निपटने के लिए एक सोची-समझी नीति की जरूरत होगी। कार्बन में कमी, दीर्घ अवधि के लिए भंडारण और हरित हाइड्रोजन में तकनीकी प्रगति हरित ऊर्जा की तरफ तेजी से कदम बढ़ाने के लिए आवश्यक है। उदाहरण के लिए सौर ऊर्जा सस्ता होने के बाद भारत इसे तेजी से अपना रहा है। मगर यह पेचीदा रास्ता होगा इसलिए फिलहाल इस पर कुछ कहना मुनासिब नहीं होगा। भारत ने विकास के अपने चरण और आर्थिक वृद्धि से जुड़ी अपनी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए शून्य कार्बन उत्सर्जन के लिए वर्ष 2070 का लक्ष्य तय कर ठीक ही किया है।
जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम कर हरित ऊर्जा के इस्तेमाल की तरफ बढ़ना एक दीर्घकालिक लक्ष्य है इसलिए जलवायु परिवर्तन से जुड़े झटके सहने के उपायों पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है। वर्ष 2023 और 2024 में यह बात साफ दिख चुकी है तापमान में वृद्धि खाद्य मुद्रास्फीति और मौद्रिक नीति पर असर डालते हैं। ऊंची खाद्य मुद्रास्फीति के रूप में इसका असर भी दिख चुका है, खासकर सब्जियों के दाम आसमान छूने लगे हैं। ऊंची मुद्रास्फीति को देखते हुए आरबीआई ने भी ब्याज दरें घटाने से परहेज किया है। आरबीआई की मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) समग्र मुद्रास्फीति पर नजरें टिकाए रखता है और खाद्य मुद्रास्फीति पर नियंत्रण किए बिना यह काबू में नहीं आ सकती।
क्रिसिल रेटिंग का मानना है कि भीषण गर्म हवाओं से सूक्ष्म वित्त संस्थानों की ऋण वसूली क्षमता पर असर हुआ है। इससे ऋण अदायगी में चूक के मामले बढ़े हैं। भू-राजनीतिक तनाव, प्रमुख देशों में शुल्कों को लेकर तनातनी और घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने में सहायक औद्योगिक नीतियों का महत्व बढ़ रहा है। दुनिया के देश अब अपनी कार्य कुशलता के बजाय विपरीत परिस्थितियों से जूझने की ताकत विकसित करने पर अधिक जोर दे रहे हैं। अमेरिका में डॉनल्ड ट्रंप के सत्ता में आने के बाद मामला और तूल पकड़ सकता है और माना जा रहा है कि वह चीन के खिलाफ बड़े शुल्क लगा सकते हैं। भारत को भी इन घटनाक्रम को लेकर सावधान रहने की जरूरत है।
अमेरिका अगर चीन पर शुल्क लगाता है तो इससे उसकी (चीन) अर्थव्यवस्था सुस्त पड़ जाएगी और दाम कम हो जाएंगे। मगर इससे चीन के निर्यातक मजबूत स्थिति में आ जाएंगे जिसे लेकर भारत को सावधान रहना होगा। भारत चीन को निर्यात से अधिक वहां से आयात करता है। कच्चे माल एवं उपकरणों के आयात पर कम शुल्कों से इलेक्ट्रॉनिक्स और दवा क्षेत्रों को भारत में फायदा हुआ है। यह रणनीति मूल्य वर्द्धित विनिर्माण के लिए महत्त्वपूर्ण रहेगी। एक बात तो निश्चित है कि कई चुनौतियों के बीच नीति निर्धारक वर्ष 2025 में पसोपेश की स्थिति में रहेंगे।
(लेखक क्रिसिल में मुख्य अर्थशास्त्री हैं)