पिछले दिनों तीन कारकों के एक साथ आने से जाति और अल्पसंख्यकों से जुड़ी ऐसी समस्याओं का एक मिश्रण हमारे सामने आया है जिन्हें देश संविधान निर्माण के 75 वर्ष बाद भी सुलझा पाने में नाकाम रहा है। जाति की समस्या तो हमारे यहां सदियों से व्याप्त है।
तीन घटनाएं सामने आई हैं: देश के दलित मुख्य न्यायाधीश पर उनकी ही अदालत में जूता फेंका जाना, हरियाणा में एक वरिष्ठ दलित आईपीएस अधिकारी द्वारा आत्महत्या करना और सुसाइड लेटर में वर्षों तक भेदभाव, उत्पीड़न और वर्षों की पीड़ा का जिक्र और तीसरा बॉलीवुड के सबसे प्रमुख और प्रभावशाली दलित फिल्मकार नीरज घेवान की फिल्म ‘होमबाउंड’ की कामयाबी।
यह फिल्म प्रतिद्वंद्वी सैयारा, पठान, जवान, एनिमल, बाहुबली या कांतारा की तुलना में बड़ी हिट नहीं है। इस फिल्म को लेकर पीआर इंटरव्यू, प्रायोजित समीक्षाएं, सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स का इस्तेमाल नहीं नजर आया। इसमें बड़े सितारे भी नहीं थे। इसे मनोरंजक भी नहीं कहा जा सकता है। यह फिल्म 100 करोड़ रुपये की ओपनिंग को ध्यान में रखकर नहीं तैयार की गई थी।
इसके बावजूद बहुत धीमी शुरुआत के बाद भी इसने केवल लोगों की आपसी प्रशंसा की बदौलत अपनी पकड़ बनाई। ऐसा करने वालों में ऊपरी श्रेणी के पेशेवर और युवा उद्यमी आदि शामिल थे। कह सकते हैं कि ऐसे लोग जिनकी आय सात या आठ अंकों में है। यानी सामाजिक-आर्थिक प्रभावशाली वर्ग। इसका प्रमाण उन छोटे लेकिन सबसे महंगे मल्टीप्लेक्स हॉल से मिलता है जो महानगरों में पूरी तरह भरे चल रहे हैं।
इन सामाजिक चर्चाओं से जो बात सामने आती है, वह यह नहीं है कि फिल्म उबाऊ थी, अतिशयोक्तिपूर्ण थी, बहुत अधिक राजनीतिक थी, या वह सामान्य बात जो हम अक्सर सुनते हैं- ‘यह बात एकदम साफ है कि आरक्षण के 75 सालों ने असमानता को समाप्त नहीं किया है।’ तो फिर ‘हम’ और क्या कर सकते हैं? बेहतर होगा कि ‘उन्हें’ अच्छी शिक्षा और सुविधाएं तथा प्रतिस्पर्धा करने का अवसर दिया जाए। परंतु यह मिशन ‘हम’ और ‘वे’ के विभाजन पर ही समाप्त हो जाता है।
इसके विपरीत होमबाउंड देखने वाले दर्शकों में आप तीन युवा और गरीब ग्रामीण भारतीयों के संघर्षों के प्रति समानुभूति को देख सकते हैं। इनमें शिक्षा है, समझ है और आगे बढ़ने की आकांक्षा भी है। दर्शकों ने यह भी स्वीकार किया कि व्यवस्था उन्हें हर बार नाकाम करने के लिए ही बनी थी। तो अब हम क्या करें? संदर्भ के लिए, ये तीन युवा भारत की जनसंख्या के एक-तिहाई से अधिक हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं। यानी दलित और मुस्लिम समुदाय।
शिक्षा, आरक्षण और सरकारी नौकरी की मदद से समानता और गरिमा हासिल होनी थी। मुख्य न्यायाधीश पर जूता फेंकने की घटना दिखाती है कि हम अभी भी इससे कोसों दूर हैं। इससे भी दुखद है हरियाण पुलिस के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (एडीजीपी) वाई पूरन कुमार की आत्महत्या। उनकी पत्नी और 2001 बैच की आईएएस अधिकारी अमनीत पी कुमार भी दलित हैं। उन्होंने राज्य के डीजीपी और जिले के एसपी के विरुद्ध अपने पति के उत्पीड़न की एफआईआर दर्ज कराई है। तो आज हम यहां खड़े हैं। अगर एक मुख्य न्यायाधीश, एक आईपीएस और एक आईएएस अधिकारी की गरिमा सुरक्षित नहीं, उन्हें समानता हासिल नहीं तो यह दिखाता है कि हमारी व्यवस्था में अन्याय और पूर्वग्रह बहुत गहरे तक घर कर चुके हैं और 75 साल का आरक्षण भी इन्हें दूर नहीं कर सका है।
होमबाउंड के तीन युवा मित्र चंदन कुमार (वाल्मीकि), मोहम्मद शोएब अली और सुधा भारती (एक और दलित) जिनकी भूमिका क्रमश: विशाल जेठवा, ईशान खट्टर और जाह्नवी कपूर ने निभाई है, वे पुलिस कॉन्स्टेबल बनने की तैयारी कर रहे हैं। इसे देखते हुए मुझे 1985 में बाबू जगजीवन राम से हुई एक बातचीत याद आई।
मंडल आयोग की रिपोर्ट चर्चा का विषय बन गई थी और मैं इंडिया टुडे के लिए उच्चवर्ग की जातियों के पहले आंदोलन को कवर कर रहा था। जगजीवन राम उस समय सत्ता से बाहर थे और उनके पास समय था। उन्होंने आरक्षण को सटीक ढंग से समझाया। उन्होंने एक पुराने दोस्त की बात की जो अनुसूचित जाति (उस समय कोई दलित नहीं कहता था) से आता था। उनका मित्र आगरा का जूतों का कारोबारी था और बड़े पैमाने पर निर्यात करता था।
उसका एक बेहतरीन घर था, एक विदेशी कार और लाखों रुपये की जमापूंजी उसके पास थी। इसके बावजूद वह बाबूजी से याचना कर रहा था कि उसके बेटे को उत्तर प्रदेश पुलिस में सहायक पुलिस निरीक्षक (एएसआई) के रूप में नौकरी दे दी जाए। बाबूजी ने उससे पूछा, ‘तुम्हारे पास इतनी संपत्ति है, तुम अपने बेटे को एएसआई क्यों बनवाना चाहते हो?’ उसने जवाब दिया, ‘हम चाहे जितने अमीर हो जाएं, एक ब्राह्मण कभी भी मुझसे या मेरे बेटे से इज्जत से बात नहीं करेगा। लेकिन अगर मेरा बेटा एएसआई बन जाता है तो ब्राह्मणों सहित सभी जूनियर उसे सलाम करेंगे। इस तरह आरक्षण समानता और ताकत देता है।’
होमबाउंड में तस्वीर कुछ अधिक जटिल है क्योंकि चंदन सामान्य श्रेणी में प्रतिस्पर्धा करने पर जोर देता है। वह कहता है कि अगर वह अपनी जाति यानी वाल्मीकि का खुलासा कर देगा तो पुलिस सेवा में भी उसे साफ-सफाई के काम तक सीमित कर दिया जाएगा। सुधा स्नातक की पढ़ाई करके यूपीएससी निकालना चाहती है। शोएब चतुर है और एक कंपनी में चपरासी की नौकरी के बावजूद वह सामान बिकवाने में टाई वाले मैनेजरों तक को पीछे छोड़ देता है। उसका बॉस उसके काम से चकित है और कुछ भी बेच देने की उसकी काबिलियत के चलते उसे बेचू कहकर बुलाता है। वह भी एक टाई वाला मैनेजर बनने की ओर अग्रसर है कि तभी बॉस के घर में एक पार्टी में नशे में धुत कुछ लोग क्रिकेट मैच देखते समय उसे अपमानित करते हैं। वह भी जीत की खुशी मना रहा होता है लेकिन उससे कहा जाता है कि उसका दिल टूट गया होगा क्योंकि भारत ने पाकिस्तान को हरा दिया।
दलित और मुस्लिम दोनों को उनके पूर्वजों के अतीत के नीचे अलग-अलग ढंग से कुचला जाता है। दलितों को इसलिए क्योंकि उन्होंने पीढ़ीगत अन्याय को झेलना पड़ता है जिसके लिए उनके दमनकारियों को खुद में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। मुस्लिमों को इसलिए क्योंकि वे किसी न किसी तरह अपने मुगल, अफगान, तुर्क पूर्वजों और यहां तक कि जिन्ना द्वारा हिंदुओं पर की गई अतियों की कीमत चुकाते हैं। यही बातें चंदन, शोएब और सुधा के साथ-साथ एक तिहाई भारत की राह का रोड़ा हैं।
मोदी सरकार की कल्याण योजनाएं, प्रत्यक्ष नकदी हस्तांतरण योजनाएं किसी के साथ पहचान के आधार पर भेदभाव नहीं करतीं। सबसे महत्त्वपूर्ण प्रतियोगी परीक्षाएं, खासकर- यूपीएससी निष्पक्ष हैं और अच्छी खासी तादाद में मुस्लिम उसमें कामयाबी हासिल करते हैं। मुस्लिम पहले ही शीर्ष राजनीतिक, संवैधानिक या अफसरशाही पदों से बाहर हैं और सरकार के बाहर भी उनके लिए चुनौतियां हैं।
उन्हें अलगाव का सामना करना पड़ता है (शोएब से बार-बार पुलिस जांच के लिए पूछा जाता है, माता-पिता का आधार कार्ड मांगा जाता है) और किराये पर घर मिलने में समस्या आम है। मुस्लिमों से जुड़े कारोबारों पर भी सोचा समझा हमला किया जाता है। उदाहरण के लिए मांस के व्यापार पर त्योहारों के दौरान मनमाने ढंग से हफ्तों और पखवाड़ों तक का प्रतिबंध लगा दिया जाता है, चमड़े के कारोबार, कसाईखाने के साथ ऐसा ही होता है। आपने ध्यान दिया होगा कि कैसे ऐप आधारित डिलिवरी, उबर आदि सेवाओं में बड़ी संख्या में मुस्लिम युवा नजर आते हैं, वे ऐप आधारित मरम्मत या रखरखाव सेवाओं में भी काम करते दिखते हैं। सोशल मीडिया पर पहले ही ऐसा माहौल बना दिया गया है कि मानो वे आपके परिवार के लिए खतरा हों। ‘लव जिहाद’ और धर्मांतरण या अन्य जघन्य अपराधों के साथ भी उनका नाम जोड़ दिया जाता है।
अच्छी बात यह है कि जैसा कि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने विज्ञान भवन में गत माह कहा भी था कि भारतीय मुस्लिम अपनी नकारात्मक छवि को बदल रहे हैं। अब वे कितने बच्चे पैदा करते हैं? भागवत ने कहा कि पहले हिंदुओं की जन्म दर में कमी आई और उसके बाद मुस्लिमों की जन्म दर में कमी आ रही है। भारतीय मुस्लिमों ने पाकिस्तान के मुस्लिमों के उलट आधुनिक शिक्षा को अपनाया है, जबकि पाकिस्तानी मानते हैं कि उनका राष्ट्रवाद सर सैयद अहमद खां और अल्लामा इकबाल से प्रेरित है। इसके बावजूद अगर पढ़े-लिखे मुस्लिम अपने ही ‘घेटो’ में रहने को विवश हों तो यह बहुत दुखद है। इससे विकसित भारत बनाने में मदद नहीं मिलेगी।
यह कोई फिल्म समीक्षा नहीं है। यह जरूर है कि इस वर्ष भारत ने इसे ऑस्कर में अपनी प्रविष्टि के रूप में चुना है। इस फिल्म ने जनसंख्या के उस हिस्से को छुआ है जिसे हम अक्सर उग्र मानते हैं। संयोग से यह वास्तविक जीवन की दो कहानियों से मेल खाती है जिनमें भुक्तभोगी (यह शब्द मैं भारी मन से इस्तेमाल कर रहा हूं) वे हैं जिन्हें भारत एक नागरिक होने के नाते सबसे विशेषाधिकार प्राप्त पदों की पेशकश कर सकता है। मैं आपको भारत के पहले दलित मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालकृष्णन की नियुक्ति के दिन ही किए गए उनके अपमान की याद दिलाना चाहूंगा। इस प्रवृत्ति की हम अनदेखी नहीं कर सकते, खासकर तब जब यह हर तीन में से एक भारतीय को प्रभावित करता हो।