facebookmetapixel
उत्तर प्रदेश में 34,000 करोड़ रुपये के रक्षा और एयरोस्पेस निवेश दर्जकेंद्र ने संसदीय समितियों का कार्यकाल दो साल करने का दिया संकेतशैलेश चंद्रा होंगे टाटा मोटर्स के नए एमडी-सीईओ, अक्टूबर 2025 से संभालेंगे कमानदिल्ली बीजेपी का नया कार्यालय तैयार, PM Modi आज करेंगे उद्घाटन; जानें 5 मंजिला बिल्डिंग की खास बातेंAtlanta Electricals IPO की बाजार में मजबूत एंट्री, ₹858 पर लिस्ट हुए शेयर; हर लॉट ₹1983 का मुनाफाJinkushal Industries IPO GMP: ग्रे मार्केट दे रहा लिस्टिंग गेन का इशारा, अप्लाई करने का आखिरी मौका; दांव लगाएं या नहीं ?RBI MPC बैठक आज से, दिवाली से पहले मिलेगा सस्ते कर्ज का तोहफा या करना होगा इंतजार?NSE Holidays 2025: अक्टूबर में 3 दिन बंद रहेंगे बाजार, 2 अक्टूबर को ट्रेडिंग होगी या नहीं? चेक करें डीटेलनए ​शिखर पर सोना-चांदी; MCX पर गोल्ड ₹1.14 लाख के पारअब QR स्कैन कर EMI में चुका सकेंगे अपने UPI पेमेंट्स, NPCI की नई योजना

कार्बन मूल्य की चुनौती और भारत का रुख

उभरते बाजार अवरोधों के बीच कार्बन प्राइसिंग को लेकर भारत का बंटा हुआ रुख कोई दीर्घकालिक रणनीति नहीं है। विस्तार से बता रहे हैं नितिन देसाई

Last Updated- October 19, 2023 | 11:22 PM IST
Carbon pricing challenges
Illustration: Binay Sinha

Carbon Pricing: वर्ष 2015 में हुए पेरिस समझौते के बाद से कार्बन उत्सर्जन में कमी के लिए बाजार आधारित उपाय तेजी से विस्तारित हुए हैं। विश्व बैंक की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार अब 73 राष्ट्रीय या उपराष्ट्रीय क्षेत्रों में उनका क्रियान्वयन किया जा रहा है या इसकी योजना बनाई जा चुकी है जो 11.66 अरब टन कार्बन डाईऑक्साइड के समान है जो वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के 23 फीसदी के बराबर है।

बाजार आधारित हलों के मोटे तौर पर दो रूप हैं। पहला है कुछ खास क्षेत्रों में बिना किसी खास लक्ष्य स्तर को तय किए कार्बन उत्सर्जन की कीमत। यह कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के लिए कार्बन उत्सर्जन की लागत पर निर्भर करता है। दूसरा है कैप और ट्रेड (सीएटी) व्यवस्था जिसमें लक्ष्य का स्तर तय होता है। इस तरीके में जो उत्पादक लक्ष्य को हासिल कर लेते हैं करता है वह कार्बन क्रेडिट को उन लोगों को बेच सकता है जिनका उत्सर्जन तय सीमा से अधिक है।

कुछ अन्य स्वरूप भी हैं जिनमें कारोबार योग्य क्रेडिट या ऐसे उत्सर्जन पर कर शामिल है जो तय सीमा से कम या अधिक हो। यूरोप में स्वीडन ने 1991 में तयशुदा उत्सर्जकों के लिए कार्बन मूल्य निर्धारित किया जो 40 फीसदी उत्सर्जन के लिए उत्तरदायी थे। इस समय प्रति टन करीब 100 डॉलर कार्बन मूल्य लिया जा रहा है।

इसका असर स्वीडन के कार्बन उत्सर्जन में अब तक आई 25 फीसदी कमी में देखा जा सकता है। चीन ने 2021 में आठ इलाकों में सीएटी व्यवस्था लागू की और अब यह उसके एक तिहाई उत्सर्जन को कवर करता है। बहरहाल, उत्सर्जन कारोबार से उभरने वाला कार्बन मूल्य केवल 8 डॉलर प्रति टन है।

अमेरिका ने राष्ट्रीय स्तर पर कोई कार्बन मूल्य या सीएटी व्यवस्था लागू नहीं की है, हालांकि कैलिफोर्निया ने अपेक्षाकृत महत्त्वाकांक्षी सीएसटी प्रणाली लागू की है जिसमें व्यापक क्षेत्रवार कवरेज और महत्त्वाकांक्षी उत्सर्जन लक्ष्य शामिल हैं।

बहरहाल बराक ओबामा के बाद से अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी ने कार्बन की सामाजिक लागत (एससीसी) का आकलन शुरू किया। ओबामा के कार्यकाल में प्रति टन कार्बन डाईऑक्साइड 43 डॉलर कीमत तय की गई थी जबकि ट्रंप के कार्यकाल में यह घटकर तीन से पांच डॉलर प्रति टन रह गई क्योंकि कार्बन उत्सर्जन के वैश्विक प्रभाव के बजाय केवल अमेरिका पर प्रभाव को ध्यान में रखा जाने लगा।

हाल ही में अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी ने प्रति टन कार्बन डाईऑक्साइड के लिए 190 डॉलर का मूल्य रखने का सुझाव दिया जिससे लगता है कि वह हकीकत के करीब जा रही है। इन अनुमानों का इस्तेमाल कार्बन उत्सर्जन में कमी के किसी विशेष प्रस्ताव की तुलना कार्बन की अनुमानित सामाजिक लागत से करने में किया जाता है। ऐसा इसलिए ताकि वे विकल्प हासिल हो सकें जिनकी लागत कार्बन की सामाजिक लागत से कम हो।

कार्बन की सामाजिक लागत पर यह निर्भरता समझदारी भरी नहीं लगती। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का कल्याण पर प्रभाव कई अनिश्चितताओं से भरा है। कार्बन उत्सर्जन के कई प्रभाव मसलन स्वास्थ्य, बस्तियों में जीवन परिस्थितियों, प्रजातियों के नष्ट होने और पारिस्थितिकी पर प्रभाव आदि का आकलन आसानी से नहीं किया जा सकता है।

अक्सर कार्बन की सामाजिक लागत का आकलन करते समय इन्हें ध्यान में नहीं रखा जाता। कार्बन की सामाजिक लागत पर आधारित रुख इस अवास्तविक अवधारणा पर निर्भर करता है कि बाजार की उपयुक्तता को एकल सुधारात्मक कदम से महसूस किया जाएगा जो कार्बन उत्सर्जन को प्रभावित करने वाली अन्य बाजार विफलताओं के बारे में विचार किए बिना सभी उत्सर्जकों पर कार्बन की सामाजिक लागत को लागू करता है बिना उन अन्य बाजार विफलताओं पर विचार किए जो कार्बन उत्सर्जन को प्रभावित करती हैं।

जलवायु अनुकूल दिशा में उत्पादन और उपभोग के निर्णयों को प्रभावित करने के लिए बाजार की ताकतों का उपयोग निश्चित रूप से विचारणीय हैं लेकिन ऐसा कार्बन मूल्यांकन की सामाजिक लागत से नहीं किया जाना चाहिए। मूल्य, कर और सब्सिडी इस प्रकार डिजाइन की जानी चाहिए कि वह उत्सर्जन लक्ष्य को बढ़ावा दे और अगर हमें तापवृद्धि के तय लक्ष्य से नीचे रहना है तो इनका पालन करना होगा।

भारत में औपचारिक कार्बन मूल्य प्रणाली या कार्बन आधारित सीएटी कार्यक्रम नहीं हैं। बहरहाल, हमारे यहां कोयले पर उपकर और वस्तु एवं सेवा कर है जिससे साल 2019-20 में 600 अरब डॉलर की राशि एकत्रित हुई।

उस वर्ष कोयला खपत के कारण 167.8 करोड़ टन कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन हुआ। उस वर्ष की विनिमय दर के आधार पर कर संग्रह को डॉलर मे बदला गया। प्रति टन कार्बन डाईऑक्साइड पर 5 डॉलर कार्बन कर का आकलन किया गया। यह दर लैटिन अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका के विकासशील देशों के लिए तय कार्बन दरों के साथ समतुल्य है।

पेट्रोलियम उत्पादों और प्राकृतिक गैस् पर लगने वाला कर कार्बन कर से बहुत अधिक है। 2019 में उन्होंने 80 करोड़ टन कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन किया और 4.9 लाख करोड़ रुपये का राजस्व तैयार हुआ। यानी प्रति टन कार्बन के लिए 87 डॉलर की दर से जो वैश्विक मानकों से काफी अधिक है। परंतु हमें यह स्वीकार करना होगा कि पेट्रोलियम उत्पादों का कराधान पेट्रोलियम और गैस के इस्तेमाल को कम करने के बजाय राजस्व जुटाने पर केंद्रित रहा।

लब्बोलुआब यह है कि सीएटी के माध्यम से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कार्बन मूल्य की प्रस्तुति कम विसंगति वाली होगी। इसमें बजटीय वित्त में कोयला उपकर, वस्तु एवं सेवा कर और उत्पाद शुल्क से अलग एक श्रेणी में आंशिक बदलाव शामिल हो सकता है। ऐसा यह मानते हुए हो सकता है कि आंशिक रूप से ही सही पेट्रोलियम उत्पादों पर राजस्व बढ़ाने वाला कराधान जारी रहेगा।

कार्बन कर और सीएअी में Carbon Pricing कार्बन डाईऑक्साइड के प्रभाव पर आधारित होने के कारण कोयले की लागत भी बढ़ सकती है। कुछ राजनीतिक जटिलताएं भी होंगी क्योंकि जीवाश्म ईंधन पर केंद्र और राज्य दोनों सरकारें कर लगाती हैं। एक अन्य बड़ी चुनौती यह है कि कोयले का सबसे अधिक इस्तेमाल बिजली क्षेत्र करता है जिसकी वित्तीय स्थिति ठीक नहीं है।

भारत को जल्दी ही कार्बन मूल्य विकल्पों पर विचार करना होगा क्योंकि वैश्विक दबाव बढ़ रहा है। निर्यात क्षेत्रों पर कार्बन उत्सर्जन संबंधी व्यापार प्रतिबंधों का दबाव है।

यूरोप कार्बन समायोजन सीमा प्रणाली लागू कर रहा है जो उन देशों से होने वाले आयात पर शुल्क लगाएगी जहां निर्यातक को कार्बन उत्सर्जन की कीमत नहीं चुकानी होती। ऐसा लगता है कि भारत सरकार ने इसे समझ लिया है और वह एक प्रत्यक्ष निर्यात कर पर विचार कर रही है जो इसे संतुलित करेगा।

कार्बन मूल्य को लेकर उभरते व्यापार गतिरोधों को लेकर टुकड़ों टुकड़ों में कदम उठाने का रुख सही नहीं है। भारत को क्षेत्रवार कार्बन आधारित सीएटी प्रणाली पर विचार करना चाहिए। बिजली उत्पादन, स्टील और सीमेंट उत्पादन में इस पर विचार हो सकता है।

चूंकि कार्बन उत्सर्जन का वैश्विक असर होता है इसलिए इसे चीन की तरह कुछ भौगोलिक इलाकों के उत्पादकों तक सीमित करना शायद भारत के लिए उपयुक्त न साबित हो। हमें एक राष्ट्रीय प्रणाली चाहिए जो न केवल कार्बन उत्सर्जन में कमी को गति दे बल्कि प्रासंगिक तकनीकी विकास में शोध एवं विकास की भी वापसी करे।

First Published - October 19, 2023 | 11:22 PM IST

संबंधित पोस्ट