एक लंबे अरसे से शहरों में जल को प्राकृतिक दृश्य या कारखानों एवं नालों से बहने वाले पानी के रूपों में देखा गया है। जल को एक रणनीति के रूप में तवज्जो नहीं दी गई है। मगर नीली अर्थव्यवस्था (ब्लू इकॉनमी) की अवधारणा में ये तीनों पहलू शामिल किए गए हैं। यह एक आशावादी सोच है। जब हम नीली अर्थव्यवस्था का जिक्र करते हैं तो हमारे जेहन में महासागर, समुद्री बंदरगाह, मछली पकड़ने वाली नौकाएं आदि आने लगते हैं। इसके उलट जब हम शहरों के बारे में सोचते हैं तो ऊंची इमारतें, सड़कों पर गाड़ियों की लंबी कतारें और रूफ-टॉप गार्डन हमारे दिमाग में उभरने लगते हैं। यह दो स्थितियां इस बात पर गौर नहीं कर पाती हैं कि कई भारतीय शहरों का जल से गहरा ताल्लुक है। भारत में तटीय क्षेत्र लगभग 7,500 किलोमीटर लंबा है। चेन्नई और सूरत जैसे बड़े शहर समुद्र के किनारे बसे हैं तो वाराणसी और पटना गंगा नदी के किनारे हैं। उदयपुर और श्रीनगर जैसे शहर झीलों के किनारे हैं। भारत में कम से कम 35-40 शहर हैं जिनका पानी के साथ गहरा रिश्ता रहा है। उनमें कई तो देश के सबसे बड़े शहरी केंद्रों में एक हैं।
भारत इस समय टिकाऊ विकास की जटिलताओं से गुजर रहा है, ऐसे में नीली अर्थव्यवस्था शहरी विकास को सामाजिक समावेश एवं पर्यावरण के लिहाज से टिकाऊपन के साथ जोड़ने की एक बेहद ठोस रणनीति की पेशकश कर रही है। जल मूल रूप से शहरी जीवन में समाया हुआ है। यह व्यापार को बढ़ावा देने के साथ ही जीवन की गुणवत्ता में भी सुधार लाता रहा है। मगर शहरों के अंधाधुंध विकास से जल क्षेत्रों को नुकसान पहुंच रहा है।
नदियों में कारखानों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थ एवं रासायनिक तत्व बहाए जा रहे हैं वहीं, तालों, तालाबों आदि में कचरे फेंके जा रहे हैं और निर्माण गतिविधियों के लिए आर्द्र भूमि का लगातार दोहन हो रहा है। शहरी व्यवस्था में जल निकायों को ‘अनुत्पादक जगहों’ के रूप में देखने के बजाय उन्हें समाधान के स्रोत के रूप में देखा जाना चाहिए। ताल, तालाब छोटे हों या बड़े उन्हें व्यापक जीवंत परिसंपत्ति के रूप में देखा जाना चाहिए।
पूरी दुनिया में जल आधारित शहरी विकास में गहरी दिलचस्पी देखी जा रही है। कोलकाता, चेन्नई और वाराणसी जैसे शहरों में नीली अर्थव्यवस्था के सिद्धांत व्यवहार में उतारे तो गए हैं मगर उन्हें कोई औपचारिक नाम नहीं दिया गया है। उदाहरण के लिए केरल में कोच्चि ने 2023 में एक जलीय मेट्रो प्रणाली की शुरुआती की, जो इलेक्ट्रिक नौकाओं से चलती है। इससे सड़कों पर भीड़ कम होने के साथ ही कार्बन उत्सर्जन कम करने में भी मदद मिल रही है और लोगों को एक स्वच्छ एवं सस्ती परिवहन प्रणाली भी मयस्सर हो पा रही है। गौर करने वाली बात यह है कि यह परियोजना जेटी के आस-पास जल की गुणवत्ता सुधारने के लिए शुरू हुई थी। इस पहल से स्थिर जल क्षेत्रों में जल की गुणवत्ता में सुधार हो रहा है और स्थानीय मत्स्य कारोबार एवं लोगों को जीविकोपार्जन में भी मदद मिल रही है।
कुल मिलाकर ये प्रयास यातायात, पारिस्थितिकी-तंत्र और अर्थव्यवस्था के विवेकपूर्ण सम्मिश्रण को परिलक्षित करते हैं। चेन्नई में मैंग्रोव (समुद्र के किनारे उगने वाली वनस्पतियों) के संरक्षण से तटीय इलाकों में बाढ़ से सुरक्षा का इंतजाम किया जा रहा है। भारत दुनिया के अन्य देशों में हो रहे श्रेष्ठ व्यवहारों का भी अनुपालन कर सकता है। बार्सिलोना में विकसित ओलिंपिक पोर्ट और हेलसिंकी बंदरगाह इस बात के उदाहरण हैं कि नीली अर्थव्यवस्था किस तरह कम इस्तेमाल होने वाले जल क्षेत्र में जान फूंक कर उन्हें जीवंत सार्वजनिक स्थानों एवं नवाचार केंद्रों में तब्दील कर सकती है। भारत और विदेश दोनों जगहों में ये प्रयोग दर्शाते हैं कि आर्थिक गतिविधियां और पर्यावरण संतुलन न केवल एक साथ हो सकते हैं बल्कि एक साथ फल-फूल भी सकते हैं।
बदलाव का यह अवसर ऐसे समय में और महत्त्वपूर्ण हो गया है जब ज्यादातर भारतीय शहर गंभीर जल संकट का सामना कर रहे हैं। पानी की उपलब्धता और उनकी गुणवत्ता दोनों ही मामलों में शहरों को दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। वर्ष 2021 में आवास एवं शहरी मामलों के मंत्रालय ने नदी केंद्रित शहरी नियोजन से संबंधित दिशानिर्देश तय किए थे। उन दिशानिर्देशों में नो डिवलपमेंट कंस्ट्रक्शन जोन्स (एनडीसीजेड), सक्रिय बाढ़ क्षेत्र का पुनर्वास और पारिस्थितिकी-तंत्र के प्रति संवेदनशील सुरक्षित क्षेत्रों के विकास पर जोर दिया गया था।
अगर ये उपाय पूरी राजनीतिक इच्छाशक्ति और सामुदायिक भागीदारी के साथ क्रियान्वित किए जाएं तो शहरी क्षेत्रों में जोखिम कम होने के साथ ही जीवन की गुणवत्ता में भी सुधार हो सकता है। इन सिद्धांतों पर काम करने के लिए शहरों में क्षेत्रीय और संपूर्ण जल दृष्टिकोण नजरिया, दोनों ही अपनाया जा सकता है। क्षेत्रीय दृष्टिकोण में प्रत्येक शहर या क्षेत्र के विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र, सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय स्थितियों पर जोर दिया जाता है और अधिक सटीक एवं समावेशी स्थानीय रणनीतियों को बढ़ावा दिया जाता है। एक ही ढांचा सभी पर लागू करने के बजाय यह दृष्टिकोण विशेष सरकारी ढांचे, विभिन्न पक्षों की आपसी भागीदारी और एकसमान नीतियों का समर्थन करता है जो जल, शहरी नियोजन और आर्थिक क्षेत्रों में खामियों को दूर करता है।
इसके साथ संपूर्ण जल दृष्टिकोण स्वच्छ जल और जलीय तंत्र के आपसी जुड़ाव को दर्शाता है। यह स्रोत जल से लेकर तटों तक पूरे जल चक्र के एकीकृत प्रबंधन पर जोर देता है। यह नजरिया भारतीय शहरों के लिए महत्त्वपूर्ण है जहां ऊपरी प्रवाह प्रदूषण और अनियोजित विकास डाउनस्ट्रीम यानी निचली जलधाराओं के पास रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य, टिकाऊपन और जीविका को सीधे प्रभावित करता है।
हालांकि, इन बातों का यह कतई मतलब नहीं है कि नीली अर्थव्यवस्था केवल बुनियादी ढांचे या नियमन तक ही सीमित है। इसका लोगों से ही उतना ही सरोकार है। शहरों को अपने जल निकायों के संरक्षक के रूप में काम करना चाहिए। इसके लिए लोगों में जागरूकता, नागरिकों की भागीदारी और सामुदायिक स्वामित्व जरूरी है। नदियों के किनारों को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने, नागरिक विज्ञान और तकनीक एवं नवाचार की मदद से नीली अर्थव्यवस्था के प्रबंधन में सुधार जैसी पहल समुदायों को नदियों से जोड़ने में मदद कर सकती हैं। इससे देखभाल और नवाचार की संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा।
रॉटरडैम की ब्लू सिटी (एक स्विमिंग पूल जिसे चक्रीय अर्थव्यवस्था के केंद्र के रूप में विकसित किया गया) नदी आधारित पुनर्विकास के सामाजिक एवं रचनात्मक संभावनाओं को दर्शाती है। लिहाजा नीली अर्थव्यवस्था की संभावनाओं का लाभ उठाना न केवल विकास का एक पहलू है बल्कि एक व्यावहारिक ढांचा भी है जिसमें जल को शहरों की सोच, उनकी योजना एवं उनके विकास के केंद्र में रखा जाता है। जल की किल्लत, शहरी जीवन के विस्तार और आर्थिक असमानता से जूझ रहे भारतीय शहरों के लिए नीली अर्थव्यवस्था एक बड़ी महत्त्वाकांक्षा से अधिक आधुनिक, प्रणालीगत स्तर पर समस्या के समाधान का तरीका है। संदेश बिल्कुल साफ है कि हम नदियों और तटीय क्षेत्रों के महत्त्व की अनदेखी नहीं कर सकते हैं। जल एवं जल स्रोतों को मजबूत बनाकर ही हम अपना जीवन सुरक्षित कर सकते हैं।
(लेखक इंस्टीट्यूट फॉर कंपेटटिवनेस के चेयरमैन हैं। आलेख में मीनाक्षी अजित का भी योगदान है।)