सरकार से अधिक खर्च करने की मांग करने वाले सभी लोगों से मेरा सवाल है कि सियासत की सबसे बड़ी दुश्मन मुद्रास्फीति से उस समय बचा जा सकता है जब लगभग सारे मौजूदा प्रयास विनिर्माण उत्पादों की खपत की मांग फिर से पैदा करने से अधिक वजूद बनाए रखने पर ही टिके हुए हैं?
यह ध्यान रखना चाहिए कि सरकार करीब 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज दे रही है। पिछले साल से ही इसने कई महीनों तक 8 करोड़ परिवारों को मुफ्त रसोई गैस मुहैया कराने के अलावा 40 करोड़ से अधिक लोगों के खातों में सीधे नकदी भी भिजवाई है। यह सब सिऌर्फ वजूद बचाने के लिए है।
इसी के साथ सरकार अपनी गारंटी पर बिना किसी दस्तावेज के सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम इकाइयों (एमएसएमई) को कर्ज दिलाकर उनके पास पैसे भी भिजवा रही है। इस तरह करीब 2.5 लाख करोड़ रुपये या तो स्वीकृत किए जा चुके हैं या वितरित हो चुके हैं। वह भी वजूद बचाना ही है। इसमें से किसी का भी इस्तेमाल वृद्धि के लिए निवेश में नहीं हो रहा है, छोटी कंपनियां सिर्फ अपना वजूद बचाए रखने के लिए इस राशि का इस्तेमाल कर रही हैं।
कुल मिलाकर, वित्तीय वर्ष 2020-21 में सरकार ने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की करीब 1.5 फीसदी रकम खर्च की। समस्या यह है कि इससे कीमतें बढ़ रही हैं और यह रकम बढ़ती ही जाएगी।
इसे एक और तरीके से देखते हैं। क्या औद्योगिक मांग बहाल करने के कीन्सवादी समाधान कारगर हो सकते हैं जब समस्या भी कीन्सवादी नहीं है? याद रखें कि औद्योगिक उत्पाद खरीदने वाले लोगों पर ज्यादा मार नहीं पड़ी है क्योंकि दिहाड़ी मजदूरी पर जीवन जीने वाले लोगों की आमदनी में भारी गिरावट आई है।
सच है कि औपचारिक क्षेत्र में भी करीब 20 लाख लोगों को आय में बड़ी गिरावट का सामना करना पड़ा है लेकिन दिहाड़ी मजदूरी पर ही जीवन बिताने वाले करीब 20 करोड़ लोगों की तुलना में उनकी समस्या नगण्य है। आखिर, दिहाड़ी पर जिंदगी गुजारने वाले इन लोगों की आय शून्य के करीब हो गई है।
किसी भी सत्तारूढ़ दल के लिए इस श्रेणी के लोग राजनीतिक समस्या का सबब बन सकते हैं। आर्थिक समस्या तो उसके बाद आती है।
लेकिन यह मान लें कि सत्तारूढ़ दल अभी अपने वोट को लेकर फिक्रमंद नहीं है। आखिर अगले तीन वर्षों तक उसे किसी के मत की जरूरत भी नहीं है। इस दौरान सरकार को निशाना किस पर लगाना चाहिए? औपचारिक क्षेत्र के कर्मचारी या अनौपचारिक क्षेत्र के कर्मचारी या फिर खर्च करने लायक होने पर दोनों का ही ध्यान रखे?
इस सवाल का जवाब इसलिए अहम है कि यह राजकोषीय एवं मौद्रिक नीति दोनों से ही सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है। दुखद है कि इसकी राजनीति एवं अर्थशास्त्र के बीच कोई सही संतुलन है ही नहीं।
निर्वहन योग्य गतिविधियों को दी गई वित्तीय मदद से हुए भारी घाटे का नतीजा निश्चित तौर पर खाद्य उत्पादों की महंगाई के रूप में सामने आएगा- उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में भोजन का भारांक 54 है। जबकि औद्योगिक उत्पादों की खपत के लिए वित्त मुहैया कराने से हुए घाटे का ब्याज दर के जरिये मौद्रिक नीति पर असर पड़ेगा।
यह मान पाना मुश्किल है कि पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं की तरह भारत सरकार से भी कदम उठाने की मांग करने वाले लोग असल में नोट छापने की बात कर रहे हैं, मानो कल आएगा ही नहीं।
अमेरिका अपनी मुद्रास्फीति दूसरे देशों को निर्यात कर देता है और वह जल्द ही सेहतमंद हो जाएगा। लेकिन पश्चिमी यूरोप के देशों का क्या? वे चीन के संरक्षित देश भी बन सकते हैं।
उसके अलावा हमारी सरकार भले ही न कहे लेकिन असल में वह नोट छाप रही है। सच यह है कि भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की तरफ से केंद्र को करीब एक लाख करोड़ रुपये का अधिशेष दिया गया है। सरकार ने बिना किसी उधारी के ही उधारी जुटा ली है और अपनी मुद्रा आपूर्ति बढ़ा ली है। लिहाजा सरकार एवं आरबीआई को इसकी वजह से पैदा हुई मुद्रास्फीति से निपटना होगा। मुख्य रूप से खाद्य उत्पादों के महंगा होने से आबादी का बड़ा हिस्सा प्रभावित हो रहा है।
यह जल्दी खत्म भी नहीं होने वाला है।
दरअसल यह आरबीआई के समक्ष उत्पन्न कोई आर्थिक समस्या ही नहीं है बल्कि यह सरकार के लिए एक राजनीतिक समस्या भी है। आरबीआई के पास ब्याज दरें बढ़ाने का काफी हद तक स्पष्ट जवाब मौजूद है लेकिन सरकार उतनी खुशकिस्मत नहीं है। उसे अगले दो महीनों में 16 विधानसभा चुनावों का सामना करना है। इनमें से सात राज्यों में चुनाव 2022 में होने हैं जबकि नौ राज्यों के चुनाव 2023 में होंगे। फिर 2024 में लोकसभा चुनाव होने ही हैं। लिहाजा एनआरआई अर्थशास्त्रियों के शोर मचाने के बावजूद राजकोषीय समझदारी का प्रदर्शन दूर की कौड़ी ही लग रही है।
सरकार को निर्वाह-व्यय बरकरार रखने के साथ ही मुद्रास्फीति को और बढ़ाए बगैर बड़े पैमाने पर रोजगार अवसर पैदा करने हैं। यह मुद्रास्फीति एवं वृद्धि का क्लासिक दुविधा है लेकिन इस बार निर्वाह-व्यय के रूप में बढ़ी अप्रत्याशित राशि भी शामिल है। और किसी शख्स की दाढ़ी की तरह यह खर्च हमेशा बढ़ता ही रहता है क्योंकि ज्यादा लोगों को मदद की दरकार होती है।
इस वजह से राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार का कलहंस कुछ उसी तरह पक चुका है जैसा 2012 एवं 2013 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार के समय था। वर्ष 2010 एवं 2014 के बीच खाद्य मुद्रास्फीति 65 फीसदी थी और राजकोषीय घाटा औसतन 6 फीसदी था। यही कारण है कि 2014 में नरेंद्र मोदी की भरोसेमंद वक्तृत्व क्षमता के बगैर भी विपक्ष जीत गया होता। राजग इस समय खुद को उसी स्थिति में पा रहा है।
