पिछले लगभग एक दशक से भारत में नियम-कायदों से जुड़े झमेले और झंझट बहुत बढ़ गए हैं। वित्त वर्ष 2025-26 के बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इन्हें दूर करने के लिए कुछ दिलचस्प उपायों की घोषणा की। वित्तीय क्षेत्र के लिए वित्तीय स्थायित्व एवं विकास परिषद (एफएसडीसी) के अंतर्गत एक प्रक्रिया शुरू करने का प्रस्ताव है, जिससे पता चलेगा कि वर्तमान वित्तीय नियमों एवं निर्देशों का कैसा असर पड़ रहा है। साथ ही उन नियमों का असर बढ़ाने तथा वित्तीय क्षेत्र के विकास में सहारा देने के लिए ढांचा भी तैयार किया जाएगा।
सरकार तौर-तरीके बदलवाने के लिए नियम-कायदे बनाती है। कायदे में इनका मकसद बाजार विफलता से निपटना होना चाहिए और इन्हें केंद्रीय नियोजन में नहीं होना चाहिए। भारत में नियामकों को वित्तीय क्षेत्र में सर्वाधिक अधिकार दिए गए हैं और आज भी वही सोच हावी है, जिसके तहत कई दशक पहले भारतीय रिजर्व बैंक तथा भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) की स्थापना की गई थी। मगर अब लगभग सभी महसूस करने लगे हैं कि भारत में वित्तीय नियमन केंद्रीय नियोजन की तरफ बढ़ रहा है, जिससे उचित कानून एवं दिशानिर्देश ठीक से काम नहीं पा रहे।
नियामकीय सिद्धांत में ये कठिनाइयां भी दिखी हैं और यह भी बताया गया है कि उन्हें दूर करने के लिए नियामकीय संगठनों का ढांचा बेहतर कैसे बनाया जा सकता है। नीति निर्धारक समाधान पाने के लिए इन समस्याओं और संभावित नीतिगत मार्गों पर विचार कर रहे हैं।
बजट में घोषित नीतिगत उपाय के मुताबिक वित्तीय क्षेत्र के नियमन और अन्य पहलुओं का प्रभाव आंकने का जिम्मा एफएसडीसी को दिया गया है। पहली नजर में यह काफी रोचक लग रहा है क्योंकि हजारों कर्मचारियों वाले हमारे वित्तीय नियामक उसी विवेकाधिकार के साथ काम करते रहेंगे मगर एक बाहरी संगठन उनका कामकाज सुधारने की कोशिश करेगा।
इसे कारगर बनाना है तो कर्मचारियों की क्षमता तथा अधिकार के सवालों पर विचार करना होगा। वित्तीय नियामक लगभग रोजाना 10 पृष्ठ के नियम तैयार कर देते हैं और साल भर में हजारों पृष्ठों के कायदे लिख दिए जाते हैं। इन्हें पढ़ने और समझने के लिए भी मजबूत दिमाग की जरूरत होती है। नियामकों से ऊपर उठकर सोचना, नियमों को नियामकीय सिद्धांतों के नजरिये से देखना तो और भी मुश्किल काम है।
इसके बाद अधिकार का सवाल आ जाता है। नियामक ईर्ष्या के साथ अपने अधिकार क्षेत्र पर अड़े रहते हैं और असानी से पीछे नहीं हटते चाहे नियमों की आलोचना हो या उनसे नुकसान होता हुआ ही क्यों न दिख रहा हो।
तो क्या एफएसडीसी इन बड़े नियामकों की जमीन हिला सकता है? एफएसडी में पांच लोगों का सचिवालय है। विभिन्न नियामकों के प्रमुखों को बैठकों में लाने के लिए इसने संयोजक की भूमिका निभाई है। इन बैठकों के बाद प्रेस विज्ञप्तियां जारी होती है। इन विज्ञप्तियों की पड़ताल बताती है कि एफएसडीसी ने आज तक कोई बड़ा काम नहीं किया है। ऐसे में लगता नहीं कि एफएसडीसी इस चुनौती से निपट पाएगा।
वित्त मंत्रालय इस स्थिति का किस तरह बेहतर इस्तेमाल कर सकता है? हमें समझना होगा कि एफएसडीसी नियामकों के हजारों कर्मचारियों को नियंत्रित नहीं कर सकता है। हां, वह नियामकों के तौर-तरीकों को नियामकीय सिद्धांतों के जरिये सुधारकर समस्या को जड़ से खत्म करने में बड़ी भूमिका निभा सकता है। नियम तैयार करने के हरेक चरण में चर्चा होनी चाहिए और जरूरत पड़ने पर आलोचना भी होनी चाहिए ताकि बेहतर व्यवस्था अपनाई जा सके।
उदाहरण के लिए सेबी ने हाल ही में नियम बनाने का कायदा जारी किया है। कुछ मायनों में यह अहम कदम है। इसकी हिमायत सुधारवादी वर्ष 2013 से ही कर रहे हैं और अब यह आ ही गया है। मगर इसकी भी कुछ सीमा हैं। इसमें सेबी के भीतर ही एक अलग व्यवस्था होनी है, जो सेबी की मुख्य इकाई द्वारा तैयार दिशानिर्देशों की समीक्षा करेगी। मगर जरूरत इस बात की है कि मुख्य इकाई ही अलग ढंग से काम करे।
वित्तीय क्षेत्र से बाहर नियमन की बात करते हुए वित्त मंत्री ने कहा कि सरकार पुराने कानूनों के तहत बने नियम-कायदों में सुधार करेगी। इस आधुनिक, लचीले, जन हितैषी और विश्वास आधारित समकालीन नियामकीय व्यवस्था तैयार करने के लिए वित्त मंत्री ने कुछ खास उपायों के प्रस्ताव दिए, जिनमें नियामकीय सुधार के लिए उच्च स्तरीय समिति का गठन भी शामिल है। यह समिति वित्त के अलावा बाकी सभी क्षेत्रों के नियमनों, प्रमाणपत्रों, लाइसेंसों और मंजूरियों की समीक्षा करेगी तथा एक साल के भीतर सुझाव देगी।
पहला सवाल है कि ‘वित्तीय क्षेत्र से बाहर के दिशानिर्देशों’ का अर्थ क्या है? क्या इसकी परिभाषा में कंपनी कानून, भारतीय प्रतिस्पर्द्धा कानून अधिनियम, भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण अधिनियम और औषधि एवं सौंदर्य प्रसाधन अधिनियम के अंतर्गत बने नियम-कानून भी आएंगे? केंद्र के विभिन्न श्रम कानूनों के तहत बने नियमों का क्या होगा? कुछ अन्य कानून भी हैं जो अकाउंटेंट, ऑडिटर और अन्य पेशे तथा शिक्षा क्षेत्र का नियमन करते हैं। उदाहरण के लिए दवा कानून दवाओं के खुदरा कारोबार और कुछ हद तक दवा विनिर्माण से भी जुड़ा है। इसके साथ यह दवा बनाने एवं बेचने वालों (फार्मासिस्ट) के पेशे का भी नियमन करता है।
यहां भी वैसी ही दिक्कत आती है। एफएसडीसी कम से कम स्थायी इकाई है मगर नियामकीय सुधार के लिए उच्च स्तरीय समिति की तो शुरुआत ही होगी। मान लें कि यह लगभग 20 लोगों की तकनीकी टीम खड़ी कर सकती है तो भी इसे 20,000 लोगों से निपटना होगा, जो लगातार नियम बनाए जा रहे हैं। इन नियमों को समझने के लिए उस क्षेत्र की बारीक जानकारी भी होनी चाहिए। अगर प्रस्तावित समिति के पास अच्छा दस्तावेज लिखने वाले बुद्धिजीवी आ जाते हैं तो भी अधिकार का सवाल खड़ा हो जाएगा। सरकार का हरेक पुर्जा दमनकारी ताकत से अपनी अहमियत साबित करता है और इस ताकत को बचाए रखने के लिए वह पीछे हटने को राजी नहीं होगा।
हम श्रेष्ठ परिणाम हासिल करने के लिए इस स्थिति का इस्तेमाल किस तरह कर सकते हैं? इसके लिए सही तरीका तो यही है कि बारीकियों में नहीं पड़ा जाए। प्रस्तावित समिति के सब कुछ अच्छी तरह समझ पाना और उसकी व्याख्या करना असंभव ही होगा। उदाहरण के लिए हवाई अड्डे से जुड़े नियम-कायदों का माहिर बनने के लिए एक साल काफी नहीं है। भारत की वित्तीय यात्रा से हमने यही समझा है कि कोई टीम किसी एक क्षेत्र को पूरी तरह समझने में कम से कम 25 वर्ष ले जाती है।
दूसरा तरीका यह है कि समिति भारतीय नियामकीय सिद्धांत के मौजूदा ज्ञान का इस्तेमाल करने के लिए एक या दो गैर-वित्तीय नियामकीय संगठनों (शायद भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण और भारतीय विमानपत्तन आर्थिक नियामकीय प्राधिकरण) पर ध्यान केंद्रित कर सकती है। उसके बाद यह इन संगठनों के कामकाज में सुधार के उपाय सुझा सकती है।
(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रह चुके हैं और आइजक सेंटर फॉर पब्लिक पॉलिसी में मानद वरिष्ठ फेलो हैं)