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फंसे कर्ज को छुपाने के लिए बैंक अपना रहे नए हथकंडे

Last Updated- June 08, 2023 | 10:59 PM IST
No privatization of public sector bank on cards 

अगर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में अधिकारियों और कर्जधारकों के बीच सांठगांठ से खुलकर उधारी बांटने का सिलसिला शुरू हुआ तो इसके परिणाम गंभीर हो सकते हैं। बता रहे हैं देवाशिष बसु

भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने पिछले महीने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (PSB) के निदेशकों के लिए एक सम्मेलन का आयोजन किया था। अपने उद्घाटन भाषण में आरबीआई गवर्नर शक्तिकांत दास ने कुछ महत्त्वपूर्ण बातें कहीं।

उन्होंने कहा, ‘वित्तीय बहीखातों को बेदाग रखना उन प्रमुख बातों में एक है जिन पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। ऐसे कई मौके आए हैं जब तथाकथित लेखा विधियों का इस्तेमाल किसी बैंक का वित्तीय प्रदर्शन बेहतर दिखाने के लिए किया गया है।’ आखिर आरबीआई को किन बातों की भनक लगी थी? दास के शब्दों में, फंसे ऋण की वास्तविक स्थिति छुपाने के लिए कई तरह के अवैध तरीके अपनाए गए थे। ये निम्नलिखित थे:

1. दो ऋणदाता आपस में सांठगांठ कर ऋण या बॉन्ड की बिक्री एवं खरीदारी कर एक दूसरे के ऋण को गैर-निष्पादित आस्तियां (एनपीए) नहीं बनने देते हैं।

2. एपीए छुपाने के लिए अच्छी साख वाले ऋणदाताओं के साथ बैंक नियमित भुगतान नहीं करने वाले ग्राहकों के बीच तालमेल बैठाकर कोई न कोई रास्ता निकाल लेते थे।

3. कर्जधारकों के भुगतान संबंधी देनदारियों को समायोजित करने के लिए आंतरिक या कार्यालय खातों का इस्तेमाल हो रहा था।

4. भुगतान नहीं करने वाले कर्जधारकों या संबंधित इकाइयों को पुराने ऋण के भुगतान की तारीख निकट आने के समय ऋण के नवीकरण या नए या अतिरिक्त ऋण का आवंटन किया जा रहा था।

5. आश्चर्य की बात यह है कि आरबीआई के समक्ष कई ऐसे मौके भी आए जब ऋण को मानक बनाए रखने के अनधिकृत तरीके नियामक की नजर में आने के बाद बैंक एवं वित्तीय संस्थान दूसरे हथकंडे अपनाने लगे।

चूंकि, आरबीआई गवर्नर ने सार्वजनिक रूप से इन आरोपों की चर्चा की, इसलिए मेरा मानना है कि यह एक गंभीर विषय है। इसे देखते हुए मैं उन मामलों की खोज-खबर लेना चाह रहा था जिनमें उक्त तौर-तरीके अपनाने के लिए बैंक दंडित किए गए हैं।

मगर अफसोस की बात कि ऐसा कोई मामला सामने नहीं आया। हालांकि, यह जरूर है कि कई मौकों पर विभिन्न तरह के नियमों के उल्लंघन पर आरबीआई विशेषकर सार्वजनिक क्षेत्र के और सहकारी बैंकों पर जुर्माना लगाता रहा है।

आरबीआई इंडियन ओवरसीज बैंक (IOB) पर कई नियमों के अनुपालन में विफल रहने के लिए जुर्माना लगा चुका है। इनमें आय पहचान से जुड़े नियमों का अनुपालन नहीं करने, सार्वजनिक किए गए मुनाफे में 25 प्रतिशत आरक्षित कोष में नहीं डालने, बैंक द्वारा दिखाए गए और जांच में आए एनपीए में अंतर आदि से जुड़े मामले शामिल हैं।

आरबीआई केनरा बैंक पर नो योर कस्टमर (केवाईसी) नियमों का अनुपालन नहीं करने, अनधिकृत इलेक्ट्रॉनिक लेनदेन में ग्राहकों पर सीमित देनदारी तय नहीं करने, अयोग्य इकाइयों के नाम पर कई बचत जमा खाते खोलने और कई क्रेडिट कार्ड खातों में फर्जी मोबाइल नंबर देने के लिए 2.92 करोड़ रुपये का जुर्माना लगा चुका है।

बैंक रोजाना जमा योजना के अंतर्गत जमा रकम पर ब्याज देने में विफल रहा और समय पूर्व ही खाते वापस ले लिए। इसके अलावा बैंक ने ग्राहकों से बेवजह एसएमएस अलर्ट शुल्क भी वसूला।

आरबीआई ने शून्य बकाया रकम एवं अवधि समाप्त हो चुके क्रेडिट कार्ड की सूचना क्रेडिट इन्फॉर्मेशन कंपनियों को नहीं देने के लिए एचएसबीसी पर 1.73 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया था। इंडियन बैंक पर इसलिए 55 लाख रुपये का जुर्माना लगाया गया क्योंकि उसने एक प्रॉपराइटरी फर्म के नाम पर खाता खोलने में केवाईसी शर्तों का पालन नहीं किया।

बैंक ऑफ बड़ौदा पर भी इसलिए 30 लाख रुपये का जुर्माना लगाया गया क्योंकि उसने निर्धारित लेनदेन सीमाओं का उल्लंघन किया और सावधि जमा पर निर्धारित ब्याज का भुगतान नहीं किया। इनमें कोई भी जुर्माना ऋण की एवरग्रीनिंग (ऋण पर केवल ब्याज का भुगतान करना जबकि मूलधन जस का तस रखना) या फंसे ऋण छुपाने जैसी उन गंभीर गतिविधियों से जुड़ा नहीं है जिनका जिक्र गवर्नर दास ने किया था। शायद आरबीआई ने ऐसी हरकतों के लिए बैंकों पर जुर्माना नहीं लगाया है।

ऋण पर केवल ब्याज भुगतान करना और मूलधन जस का तस रखने का प्रयास कोई नया नहीं है इसलिए इसे लेकर किसी को कोई आश्चर्य तो नहीं होगा। बैंक ऐसा करते आए हैं। मगर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि निजी क्षेत्र के बैंक और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में अंतर है। जब निजी क्षेत्र के बैंक ऐसा करते हैं तो इनके शेयरधारकों को इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। उनके शेयर भाव इस बात का संकेत होते हैं कि संबंधित बैंक का परिचालन किस तरह से हो रहा है। प्रवर्तक बाहर निकाल दिए जाते हैं और यहां तक जेल भी जाते हैं।

मगर जब सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक अपने बहीखातों का कुप्रबंधन करते हैं तो बैंक के चेयरमैन, निदेशकमंडल या संलिप्त अधिकारियों को कुछ नहीं होता है। इसका कारण यह है कि सार्वजनिक बैंकों में प्रमुख सुधार नहीं हुए हैं। इनके अभाव में पूरे बैंकिंग तंत्र के लिए गंभीर परिणाम हो सकते हैं।

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के पास लोगों की मोटी रकम जमा है। ये बैंक छोटे कारोबारों और किसानों के लिए ऋण के प्रमुख स्रोत हैं और सरकारी योजनाओं, सब्सिडी एवं पेंशन का लाभ लाभार्थियों तक पहुंचाने के भी माध्यम हैं।

समझ-बूझ के साथ चलाए जा रहे बैंकिंग कारोबार को अवश्य मुनाफा अर्जित करना चाहिए मगर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक नुकसान उठाते हैं या मामूली मुनाफा कमाते हैं। इन बैंकों को मजबूत बनाए रखने के लिए सरकार करदाताओं की रकम का इस्तेमाल इनमें पूंजी डालने में करती आई है।

मगर फर्जी परियोजनाओं को ऋण आवंटन से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को फंसे ऋण के रूप में नुकसान उठाना पड़ता है। लोगों को इसकी जानकारी तब मिलती है जब मेहुल चोकसी, नीरव मोदी, जतिन मेहता, संदेसरा या विजय माल्या जैसे लोग सुर्खियां बनते हैं। यह भी सच है कि हजारों बड़े एवं छोटे कारोबारों के कारण सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर फंसे ऋण का दबाव काफी हद तक बढ़ गया है।

पिछले वर्ष दिसंबर में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने राज्यसभा को बताया था कि सूचीबद्ध वाणिज्यिक बैंकों (एससीबी) ने पिछले पांच वर्षों के दौरान 10 लाख रुपये के ऋण बट्टे खाते में डाल दिए हैं और इनमें केवल 13 प्रतिशत ऋण की वसूली हो पाई है। सितंबर 2022 तक ऋण शोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) के माध्यम से केवल 30.8 प्रतिशत फंसे ऋण की वसूली हो पाई है। 90 प्रतिशत से अधिक फंसे ऋण सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से ताल्लुक रखते हैं। इनमें तो कई ऋणों के एनपीए में तब्दील होने की आशंका शुरू से ही रहती है।

ऋण मंजूर होने के चरण से ही भ्रष्टाचार शुरू हो जाता है। जब कोई मामला आईबीसी में जाता है तब तक वसूली के लिए कोई परिसंपत्ति शेष नहीं रह जाती है। बैंकों के पास जब्त करने के लिए गिरवी के रूप में कोई परिसंपत्ति शेष नहीं रह जाती है क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक परिसंपत्तियां गिरवी रखकर ऋण देते हैं न कि नकदी की उपलब्धता पर ।

दिसंबर 2020 के बाद से बेहतर कामकाज वाले सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के शेयरों में दो-तीन गुना इजाफा हुआ है। माना जा रहा है कि प्रतिकूल दौर अब गुजर चुका है। मगर बैंकों के पूंजीकरण, बैंकिंग प्रणाली में फंसे ऋण का बंदोबस्त होने और आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था के कारण कारोबार में बढ़ोतरी से हम यह मान लेते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में सब कुछ ठीक चल रहा है।

मोदी सरकार में बैंकों में राजनीतिक हस्तक्षेप कम रहा है। सरकार ने धनी एवं ताकतवर कारोबारियों के लिए ऋण मेला आदि आयोजित करने से परहेज किया है। 2005-2014 के दौरान और 1990 के दशक के मध्य से लेकर इसके उत्तरार्ध में यह सिलसिला खूब दिखा था। जिन लोगों को लगता है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक मजबूत स्थिति में हैं तो यह जरूर समझ लेना चाहिए कि अगर बाहरी परिस्थितियां बदलनी हैं और सांठगांठ के तहत बैंक अधिकारी दोनों हाथों से फिर उधारी बांटते हैं तो परिणाम गंभीर होंगे। आरबीआई गवर्नर का भाषण इसी आशंका की तरफ समय रहते इशारा कर रहा है।
(लेखक मनीलाइफडॉटइन के संपादक हैं)

First Published - June 8, 2023 | 10:59 PM IST

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