पिछले हफ्ते सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की समस्याओं पर लिखे गए स्तंभ को पढ़ने के बाद एक बैंकर अपने करियर के बारे में एक लंबा ईमेल भेजने के लिए प्रेरित हुए। वह हाल ही में सेवानिवृत्त हुए। मैं उनके ईमेल का संपादित संस्करण उनकी अनुमति से लिख रहा हूं।
उनकी पत्नी उन्हें घुमंतू बोलती हैं लेकिन अब उन्हें इस बात से संतुष्ट होना पड़ता है कि अपने साढ़े तीन दशक के करियर में उन्होंने भारत दर्शन कर लिया।
वह पश्चिम बंगाल के मध्यमवर्गीय परिवार से हैं। स्नातकोत्तर की पढ़ाई करने के बाद उन्होंने1980 के दशक के आखिर में दक्षिण के एक सरकारी बैंक में बतौर प्रोबेशनर अधिकारी (पीओ) काम करना शुरू कर दिया।
शुरुआत में उन्हें छह-छह महीने अहमदाबाद (गुजरात), बालुगांव (ओडिशा), इरोड (तमिलनाडु) और कोलकाता (पश्चिम बंगाल) जैसी जगहों पर जाना पड़ा। इस दौरान उन्हें सामान्य बैंकिंग, कृषि, ऋण और विदेशी मुद्रा संबंधित प्रशिक्षण दिए गए।
उन दिनों पीओ के लिए बैंक की ओर से कोई आवास भी नहीं मिला करता था, ऐसे में उन्हें विभिन्न क्षेत्रों के पेशेवरों के साथ छोटे कमरे में रहना पड़ा। ये चारों जगहें उनके लिए भाषा, खान-पान और मौसम के लिहाज से काफी अलग थीं।
प्रशिक्षण के बाद उनकी नियुक्ति ओडिशा के बालासोर में हुई। उन दिनों चांदीपुर तट और भारतीय बैलिस्टिक मिसाइल रक्षा कार्यक्रम के प्रायोगिक परीक्षण के लिए सुर्खियों में था। नए निजी बैंकों का अस्तित्व तब तक नहीं था और इसी वजह से बैंक कारोबार में कोई प्रतिस्पर्द्धा नहीं थी। उसी दौरान उनका विवाह हुआ और वह पिता बन गए।
कुछ ही दिन बाद उनका तबादला गंगटोक हो गया जहां वह बैंक मैनेजर (नामित) बनकर गए। सिक्किम में वह बैंक की पहली शाखा थी। छह महीने की बेटी को लेकर उनका परिवार दिसंबर के आखिरी हफ्ते में गंगटोक पहुंचा जब वहां का तापमान 4 डिग्री सेल्सियस था।
नई शाखा का दफ्तर लगभग बनकर तैयार हो चुका था हालांकि अभी स्ट्रॉन्ग रूम बनना बाकी था जहां पैसे रखे जाते हैं। वहां उन्हें अच्छा फ्लैट मिल गया जिसके लिए उन्हें अपनी जेब से अतिरिक्त पैसे खर्च करने पड़े क्योंकि घर का किराया, बैंक के आवास मद में मिलने वाले वाली राशि से काफी अधिक था।
उसके बाद नए निजी बैंकों ने पांव फैलाना शुरू कर दिया। उनके बैंक का कारोबार उम्मीद के अनुरूप नहीं था। वह ग्राहकों को नई कंप्यूटरीकृत व्यवस्था के अनुरूप सेवाएं नहीं दे सके जिसकी पेशकश निजी बैंक कर रहे थे। उन्होंने शाखाओं को कंप्यूटर से लैस करने पर जोर दिया लेकिन प्रबंधन ने इसे प्रदर्शन न करने के एक बहाने के तौर पर देखा।
‘प्रदर्शन न करने वाले’ कर्मचारी के तौर पर उनकी अगली नियुक्ति आंध्र प्रदेश के रेपाल्ले में हुई। गंगटोक में जहां गर्मी का औसत तापमान 9-10 डिग्री सेल्सियस हुआ करता था, वहीं उन्हें 35-38 डिग्री सेल्सियस तापमान का सामना करना था। इसके साथ ही भाषा को लेकर एक बड़ी चुनौती थी।
उन्होंने अपने परिवार को अपने ससुराल भुवनेश्वर में छोड़ा और अकेले ही रेपाल्ले गए। वहां उनके लिए लाल मिर्च वाला तीखा और मसालेदार खाना एक बुरे सपने जैसा तब तक रहा जब तक उनकी पत्नी वहां नहीं आ गईं।
उनका अगला पड़ाव बैंक की विशाखापत्तनम शाखा के विदेशी मुद्रा विभाग में था। उन्हें यह शहर बेहद पसंद आया। यहां का नीला समंदर, हरियाली, पहाड़ियां तो उन्हें भा गईं, साथ ही यहां के विनम्र और सभ्य लोगों का साथ भी मिला।
उन दिनों विदेशी मुद्रा विभाग में नियुक्ति कई लोगों को नहीं भाती थी क्योंकि इसमें लंबे समय तक काम करना होता था और छुट्टियां भी कम थीं। लेकिन वह इस लिहाज से अपवाद थे। उनके विदाई समारोह में मुख्य प्रबंधक ने उनके शानदार प्रदर्शन का जिक्र किया। उन्हें प्रोन्नति मिली और उनका तबादला भुवनेश्वर हो गया।
यह कार्यावधि फंसे कर्जों के खिलाफ लड़ाई से जुड़ी थी। वरिष्ठ प्रबंधक (रिकवरी) के तौर पर उन्हें हर रविवार और छुट्टी के दिन भी ऋण न चुकाने वालों के साथ बैठक करनी होती थी। कई कारोबार के असफल होने के मामले भी होते थे जिसके चलते कर्ज फंस जाता था लेकिन वैसे चूकदारों के साथ निपटना मुश्किल होता था जिनके पास पैसे तो थे लेकिन वे भुगतान करना नहीं चाहते थे।
तब तक उनकी बेटी ने स्कूल जाना शुरू कर दिया था। वह अपनी मां से पूछती थी कि उनके पापा रविवार को भी दफ्तर में क्यों रहते हैं जबकि उनके दोस्तों के पापा उन्हें छुट्टी के दिन बाहर ले जाते हैं। उन्होंने कई बैंक खातों का निपटान करने में सफलता पाई और अच्छी खासी रकम भी वसूल की।
इस प्रदर्शन के एवज में उनकी नियुक्ति मुंबई ट्रेजरी में हुई। बैंक ने मुंबई के पश्चिमी इलाके जोगेश्वरी में घर दिया जो अच्छा था लेकिन उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती अपनी बेटी के लिए अच्छे स्कूल की तलाश करना था।
आखिरकार एक आईसीएसई स्कूल ने उनकी बेटी का नामांकन इस शर्त पर करने के लिए सहमति जताई कि वह स्कूल के विकास में कुछ मौद्रिक योगदान देंगे। उनकी बेटी ने स्कूल तो जाना शुरू कर दिया लेकिन उनकी पूरी बचत घटने लगी।
ट्रेजरी मार्केट की शुरुआत सुबह 9 बजे होती थी और अधिकारियों को इससे आधे घंटे पहले पहुंचना होता था। उन्हें सुबह 7.15 बजे ही घर से निकलना पड़ता था और साउथ मुंबई के दफ्तर पहुंचना होता था। लेकिन वापसी में उन्हें कई दिन साढ़े-तीन घंटे तक तक लग जाते थे।
ऐसे में वह करीब 9.30 बजे घर पहुंचते थे और तुरंत ही उन्हें रात का खाना खाकर सोना होता था। रात में सोने जाने से पहले वे सुबह जाने की थोड़ी बहुत तैयारी भी कर लेते थे ताकि वह अगले दिन के लिए देर न हों।
गर्मी में पानी के संकट, मॉनसून में लगातार बारिश, जीवन जीने की अधिक लागत और सार्वजनिक परिवहन में काफी भीड़ के बावजूद उनके परिवार को यह शहर भाया। उनकी बेटी अब तक 9वीं कक्षा में पहुंच गई थी और बोर्ड परीक्षा की तैयारी कर रही थी। इस वर्ष में स्थायित्व की जरूरत थी लेकिन वह मुंबई में पांच वर्ष के लिए ही थे और इसके बाद उनका तबादला दिल्ली जोनल ऑफिस में हो गया और वह डिप्टी जोनल मैनेजर हो गए। वह अपने परिवार को छोड़ नहीं सकते थे। दिल्ली में सबसे ज्यादा मुश्किल उनकी बेटी का 9वीं कक्षा में प्रवेश कराने में हुई।
उन्हें अपने करियर के आखिरी पड़ाव में स्थानांतरण होने पर अकेले ही जाने का फैसला किया। रायपुर (छत्तीसगढ़) और पटना (बिहार) में जोनल हेड के तौर पर दो और कार्यकाल पूरा करने के बाद उनके हिस्से में आखिरी पड़ाव मुंबई आया। इस वक्त तक बैंकिंग उद्योग में काफी बदलाव देखे गए थे। जैसे-जैसे वह सेवानिवृत्ति के करीब आ रहे थे उन्हें पहचान के संकट से गुजरना पड़ा क्योंकि उनके बैंक का विलय दूसरे बैंक के साथ हो गया।
उनके तबादले की सूची लंबी है। इसमें कोई शक नहीं कि अलग जगहों की चुनौतियों का सामना करते हुए बेहतर बैंकर बने लेकिन उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ी। उनकी बेटी कोई दोस्त नहीं बना सकी क्योंकि वह करीब आठ स्कूलों में पढ़ने के लिए मजबूर हुई। वह अक्सर अपने स्कूल में बाहरी लोगों की तरह ही बनकर रही। उनकी पत्नी को भी अवसाद की समस्या होने लगी। उन्होंने खानाबदोश लोगों की तरह अपनी जिंदगी बिताई।
उनके कुछ सहयोगी जो शीर्ष स्तर पर जाने के योग्य थे उन्होंने बीच में ही करियर छोड़ दिया और तनाव मुक्त जिंदगी जीनी शुरू कर दी। हालांकि उन्हें यह नहीं पता कि उन्होंने यह ठीक किया या नहीं लेकिन उनमें से कुछ लोगों के बच्चे अपनी जिंदगी में अच्छा कर रहे हैं जिन्होंने प्रोन्नति का लालच छोड़ दिया था।
बैंक अधिकारी की जिंदगी कई तरह के त्याग की दास्तान है। कई लोगों की तरह उन्हें भी यह महसूस होता है कि उन्होंने पेशेवर तरीके से बेहतर प्रदर्शन किया लेकिन कई लोगों को लगता है कि उन्होंने अपने परिवार के साथ अच्छा नहीं किया। अगर सरकारी बैंकर की जिंदगी को देखा जाए तो इसमें पूर्णता के साथ कमी, सहानुभूति के साथ अपराधबोध सब शामिल है।