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पेरिस शिखर सम्मेलन के एक दशक बाद, बिखर गए दुनिया के जलवायु वादे

वर्ष 2015 का पेरिस समझौता संयुक्त राष्ट्र जलवायु ढांचे के विघटन को वैधता प्रदान करता है। बेलेम में आयोजित कॉप 30 में इतिहास खुद को दोहरा सकता है। बता रहे हैं श्याम सरन

Last Updated- October 16, 2025 | 10:34 PM IST
Paris summit

आज से 33 वर्ष पहले 1992 में मैं भी उस भारतीय प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा था जो रियो डी जेनेरियो में अंतिम दौर की वार्ता में शामिल हुआ। यह संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन (यूएनएफसीसीसी) के रूप में सामने आया। यह वैश्विक जलवायु परिवर्तन के आसन्न संकट से निपटने का एक बहुपक्षीय प्रयास था। विकासशील देशों के लिए इसमें कुछ अहम प्रावधान थे।

इनमें से एक था 19वीं सदी में जीवाश्म ईंधन आधारित औद्योगिक दौर की शुरुआत के बाद पृथ्वी के वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में विकसित और औद्योगिक देशों की ऐतिहासिक जवाबदेही के सिद्धांत को मान्यता देना।

कार्बन उत्सर्जन वातावरण में सैकड़ों वर्षों तक बना रहता है और समय के साथ इसमें बहुत मामूली कमी आती है। मौजूदा उत्सर्जन जिसमें विकासशील देशों का उत्सर्जन भी शामिल है, पहले से मौजूद कार्बन में चरणबद्ध इजाफा करता है। पहले से भंडारित कार्बन और अब वातावरण में उत्सर्जित कार्बन की यह दलील ही जलवायु बहस के केंद्र में है।

दूसरा, यूएनएफसीसीसी ने ‘साझा किंतु भिन्न जिम्मेदारियों और संबद्ध क्षमताओं’ का सिद्धांत दिया जिसे सीबीडीआर सिद्धांत के नाम से जाना जाता है। इसका अर्थ यह है कि एक ओर जहां ऐतिहासिक कारणों से जलवायु परिवर्तन से निपटना सभी देशों की जिम्मेदारी है वहीं चूंकि विकसित देशों के पास धन तथा तकनीकी संसाधन उपलब्ध हैं इसलिए उन्हें ही इस प्रक्रिया का नेतृत्व करना चाहिए।

यूएनएफसीसीसी ने यह भी माना कि विकासशील देशों द्वारा जलवायु कार्रवाई, जो वे अपनी सीमित संसाधनों के भीतर नहीं कर सकते, उन्हें विकसित देशों से वित्त और तकनीक दोनों के माध्यम से सहयोग मिलना चाहिए। यह वित्त मुख्य रूप से सार्वजनिक राजस्व से आना था, और तकनीक का हस्तांतरण सरकार से सरकार के स्तर पर किया जाना था। निजी और परोपकारी योगदान इन दोनों का पूरक हो सकते थे, लेकिन वे राज्य-स्तरीय कार्रवाई का विकल्प नहीं बन सकते थे।

ये सिद्धांत और प्रावधान 1997 में अपनाए गए क्योटो प्रोटोकॉल में भी दोहराए गए। प्रोटोकॉल में उत्सर्जन में कमी के लिए दो प्रतिबद्धता अवधि सुझाई गई थीं। पहला 2008 से 2012 तक और दूसरा 2013 से 2020 तक। इसका निर्धारण 2013 में दोहा संशोधन को अपनाने के बाद किया गया। 37 औद्योगिक देशों और यूरोपीय संघ ने आपस में पहले प्रतिबद्धता अवधि के लिए लागू होने वाले उत्सर्जन कटौती लक्ष्यों पर बातचीत की। इस चरण के दौरान विकासशील देशों से यह उम्मीद नहीं थी कि वे कोई कानूनी रूप से बाध्यकारी उत्सर्जन लक्ष्य मानेंगे। यह केवल 2008 से 2012 तक की चार वर्ष की अवधि के लिए था। दूसरी प्रतिबद्धता अवधि के लिए कुल उत्सर्जन लक्ष्य में कमी का काम बाद की वार्ताओं के लिए छोड़ दिया जाए।

क्योटो प्रोटोकॉल जलवायु परिवर्तन कदमों से संबंधित एक अहम उपाय था। इसकी अनुपालन प्रक्रिया बहुत मजबूत थी। अगर कोई देश पहली प्रतिबद्धता अवधि में अपनी उत्सर्जन प्रतिबद्धताओं में कमी नहीं कर पाता तो कमी को न केवल दूसरी प्रतिबद्धता में जोड़ दिया जाता बल्कि अतिरिक्त उत्सर्जन कटौती के रूप में 30 फीसदी जुर्माना भी लगाने की बात कही गई थी।

पहला झटका तब लगा जब अमेरिका ने समझौते का पालन नहीं किया और खुद को समझौते से बंधा हुआ नहीं माना। अमेरिका का यह व्यवहार बाद की वार्ताओं में भी दिखता रहा। इसमें 2015 का पेरिस समझौता भी शामिल है। वर्ष2007 में आयोजित बाली कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (कॉप) में यूएनएफसीसीसी को बचाने का प्रयास किया गया। इसमें सर्वसम्मति से बाली रोडमैप और बाली एक्शन प्लान को अपनाया गया। इसके दो प्रमुख परिणाम थे:

पहला, यूएनएफसीसीसी के सिद्धांतों और प्रावधानों के क्रियान्वयन को एक व्यापक प्रक्रिया के जरिये मजबूत करना ताकि इस संधि की पूर्ण, प्रभावी और सतत क्रियान्वयन को संभव बनाया जा सके। इसके लिए दीर्घकालिक सहयोगी कार्रवाई पर एक विशेष कार्य समूह की स्थापना की गई जो 2009 में कोपेनहेगन में आयोजित 15वें कॉप तक बहुपक्षीय वार्ताओं में लगा रहा। बाली कार्ययोजना चार स्तंभों पर आधारित थी- उत्सर्जन में कमी, अनुकूलन, वित्त और प्रौद्योगिकी। दूसरा, विकासशील देशों के लिए महत्त्वपूर्ण बात यह है कि बाली कार्य योजना ने उनके द्वारा की जाने वाली जलवायु कार्रवाई और विकसित देशों द्वारा वित्त और प्रौद्योगिकी प्रदान करने के बीच एक स्पष्ट संबंध स्थापित किया।

तब से अब तक जलवायु गाथा एक निंदात्मक, योजनाबद्ध और अंततः आत्मघाती प्रयास रही है, जिसमें विकसित देशों ने यूएनएफसीसीसी को कमजोर करने, एक अंतरराष्ट्रीय कानूनी रूप से बाध्यकारी दस्तावेज यानी क्योटो प्रोटोकॉल से बिना किसी दंड के बाहर निकलने, और विकसित व विकासशील देशों के बीच के अंतर को मिटाने की कोशिश की। मैं 2007 से 2010 तक भारत का प्रमुख जलवायु वार्ताकार होने के नाते इसका प्रत्यक्ष गवाह रहा हूं, और बाद की वार्ताओं का पर्यवेक्षक भी। इन वार्ताओं में हमारे विकसित देश साझेदारों ने क्या हासिल किया?

पहली बात, 2015 तक पेरिस समझौता बैठक में ऐतिहासिक जवाबदेही के सिद्धांत को त्यागा जा चुका था। इसका अर्थ यह भी था कि विकसित और विकासशील देशों के बीच का स्पष्ट भेद समाप्त कर दिया गया था और पूरा ध्यान वर्तमान उत्सर्जन पर केंद्रित कर दिया गया। आने वाले वर्षों में भारत का उत्सर्जन बढ़ना लाजमी है। भले ही हमारा प्रति व्यक्ति उत्सर्जन वैश्विक औसत का आधा हो।

दूसरा, उत्सर्जन, वित्त या प्रौद्योगिकी से संबंधित कानूनी रूप से बाध्यकारी प्रतिबद्धताओं की अवधारणा को त्याग दिया गया है और उसकी जगह स्वैच्छिक प्रतिबद्धताओं को अपनाया गया है। अब ‘वचन और समीक्षा’ प्रणाली लागू है, जिसमें केवल ‘नाम उजागर करना और शर्मिंदा करना’ ही प्रेरक तत्व हैं। हम जानते हैं कि ये कितने प्रभावी होंगे।

वर्ष2015 का पेरिस जलवायु समझौता यूएनएफसीसीसी को कमजोर करने की इस प्रक्रिया को वैधता प्रदान करता है, जिसमें विकसित देशों की ओर से कमजोर आकांक्षात्मक लक्ष्य और अस्पष्ट प्रतिबद्धताएं शामिल थीं। यह क्षरण प्रक्रिया अब भी जारी है। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस वर्ष नवंबर में होने वाला कॉप 30 भी इससे अलग नहीं होगा, भले ही मेजबान ब्राजील इसे क्रियान्वयन कॉप कह रहा हो। एक सर्वसम्मत दस्तावेज अपनाने और जीत की घोषणा करने का दबाव एक बार फिर न्यूनतम साझा सहमति वाले परिणाम को सुनिश्चित करेगा।

यह अफसोस की बात है कि भारत ने, वास्तव में, अपने और अन्य विकासशील देशों के हितों को नुकसान पहुंचाते हुए, इस क्षय प्रक्रिया को चुपचाप स्वीकार कर लिया है। अभी भी देर नहीं हुई है कि हम सच्चाई को स्वीकार करें और उन लोगों का सामना करें जो अपने ही महत्त्वपूर्ण हितों की निंदात्मक उपेक्षा के माध्यम से पृथ्वी को खतरे में डाल रहे हैं। यह एक वैश्विक चुनौती है और कोई भी देश उस खतरे से नहीं बच पाएगा जो हमारी सामूहिक उदासीनता से उत्पन्न होगा। चेतावनी के संकेत पहले से ही मौजूद हैं।


(लेखक विदेश सचिव रह चुके हैं और साल 2007-2010 के दौरान जलवायु परिवतर्न पर भारत के मुख्य वार्ताकार थे)

First Published - October 16, 2025 | 10:03 PM IST

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