यह सही है कि प्रवासन स्रोत राज्य तथा प्रवासियों के ठिकाना बनाने वाले राज्य, दोनों जगह राजनीतिक मुद्दा रहा है लेकिन इसकी नीतिगत समझ आश्चर्यजनक रूप से पुरानी बुनियादों पर निर्भर है। पिछला समर्पित प्रवासन सर्वेक्षण वर्ष2007-08 में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के 64वें दौर में किया गया था। उस समय तक स्मार्ट फोन, गिग वर्क, प्लेटफॉर्म आधारित रोजगार और जलवायु आधारित विस्थापन ने देश के श्रम बाजार को बदला नहीं था। ऐसे में सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय ने व्यापक प्रवासन सर्वेक्षण 2026-27 करने का जो प्रस्ताव रखा है वह समय पर, आवश्यक और बहुप्रतीक्षित कदम है।
प्रवासन दरों के विश्वसनीय अनुमान, लोगों के एक जगह से दूसरे स्थान पर जाने के कारण, धन प्रेषण और प्रवासियों के अनुभवों की मदद से नीति निर्माण में एक अहम कमी को दूर किया जा सकता है। जनगणना और एनएसएस के सावधिक मॉड्यूल से हासिल आंकड़े जनसंख्या के आवागमन को मापते हैं, लेकिन ये साधन केवल उस वास्तविकता के कुछ अंश ही पकड़ पाते हैं जो समय के साथ विकसित हुई है। आज आंतरिक गतिशीलता स्थायी स्थानांतरण से लेकर अत्यंत अल्पकालिक कार्य अवधियों तक फैली हुई है, जैसे निर्माण, कृषि, लॉजिस्टिक्स और आतिथ्य क्षेत्रों में।
वर्ष 2020-21 का एनएसएस बहु संकेतक सर्वेक्षण इस आवागमन के पैमाने के बारे में संकेत देता है। इसके मुताबिक 29.1 फीसदी यानी हर 10 में से करीब 3 भारतीय लोग प्रवासी थे। शहरी इलाकों में इनकी हिस्सेदारी बढ़कर 34.6 फीसदी हो गई। वर्ष2020-21 तक जहां 11.4 फीसदी पुरुष प्रवास कर चुके थे वहीं महिलाओं का 47.7 फीसदी का आंकड़ा काफी हद तक विवाह के कारण था। इसके विपरीत करीब 48.8 फीसदी पुरुष प्रवासी रोजगार संबंधी कारणों से प्रवास पर गए। इस आवागमन में स्थानीय स्तर पर किया गया प्रवास बहुत अधिक है।
करीब 87 फीसदी प्रवासियों ने एक ही राज्य के भीतर अपनी जगह बदली और करीब 58.5 फीसदी ने एक ही जिले के भीतर अपना स्थान बदला। इसके बावजूद यह प्रवासन की प्रेरणा के अहम अंतर को जाहिर नहीं करता। काम की तलाश में प्रवास करने वाले करीब 40 फीसदी लोग दूसरे राज्यों में गए जबकि शादी करने वालों में केवल 5 फीसदी। दूसरे शब्दों में देश में श्रमिकों का आवागमन स्थानीय अधिक है और केवल चुनिंदा मामलों में ही लंबी दूरी का प्रवासन होता है।
बहरहाल, प्रवासियों को जिन हकीकत का सामना करना पड़ता है वे सामने नहीं आ पातीं। असंगठित क्षेत्र के श्रमिक अक्सर अपनी कठिनाइयां नहीं बताते और मजबूत दिखते हैं या अफसरशाही की जांच से बाहर रह जाते हैं। राज्यों के बीच बहुत अधिक असमानता भी है। हिमाचल प्रदेश, केरल, तेलंगाना, पंजाब और महाराष्ट्र उन राज्यों में हैं जिनकी आबादी में प्रवासियों की संख्या बहुत अधिक है। यह मजबूत शहरीकरण और आर्थिक गतिविधियों को भी दर्शाता है।
इसके विपरीत, राज्य से बाहर प्रवासन गरीब राज्यों के सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य को लगातार परिभाषित करता रहा है। बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड और ओडिशा जैसे राज्यों में लंबे समय से बाहर जाने वाले प्रवास का इतिहास रहा है। हाल ही में हुए बिहार चुनावों ने भी इस मुद्दे को उजागर किया, जहां राजनीतिक दलों को उन श्रमिकों की आकांक्षाओं को स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा जो केवल रोजी-रोटी के लिए बाहर जाते हैं।
प्रस्तावित सर्वेक्षण कुछ नीतिगत कमियों को दूर करना चाहता है और इसके लिए अल्पकालिक प्रवासन की परिभाषा को बदला जाना है। 15 दिन से लेकर छह माह से कम अवधि के प्रवासन को इसमें शामिल किया जाएगा। इसमें परिवारों को इस आधार पर वर्गीकृत किया गया है कि उन्हें धन प्राप्त होता है या नहीं और अगर हां तो कितना। शायद प्रश्नावली के मसौदे में सबसे महत्त्वपूर्ण नवाचार यह मान्यता है कि प्रवास केवल एक यात्रा नहीं है, बल्कि एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके कई परिणाम होते हैं।
प्रवासियों से पूछा जाएगा कि क्या प्रवास से उनकी आय, शिक्षा, आवास, स्वास्थ्य सेवा या बुनियादी सुविधाओं तक पहुंच में सुधार हुआ है, और क्या उन्हें अपने गंतव्य पर समस्याओं का सामना करना पड़ा है। इससे ध्यान प्रवासियों की गणना से हटकर उनकी भलाई को समझने पर केंद्रित हो जाता है। यह शहरी बुनियादी ढांचे, श्रम सुरक्षा आदि के मूल्यांकन का आधार भी प्रदान करेगा। प्रवासन के बेहतर आंकड़े, बेहतर नीतिगत निर्णय लेने में मदद करेंगे।