उद्योग के विश्लेषकों का मानना है कि शहरी युवाओं से मांग में वृद्धि, जीवनशैली में बदलाव और लगातार तकनीकी नवाचार की मदद से भारत का ‘लेसिक’ (लेजर-असिस्टेड इन सिटू किरैटोमाइल्युसिस) सर्जरी बाजार वर्ष 2030 तक दोगुना होने की संभावना है। यह बाजार मौजूदा समय में 2,000-2,500 करोड़ रुपये का है।
उनका कहना है कि इस तरह की सर्जरी प्रक्रियाओं की संख्या सालाना 8-10 फीसदी की दर से बढ़ने से यह बाजार वर्ष 2030 तक 4,000-5,000 करोड़ रुपये पर पहुंच सकता है।
भारत मौजूदा समय में हर साल करीब 6-7 लाख लेसिक और रीफ्रेक्टिव प्रोसीजर्स पूरी करता है और इसमें लगातार तेजी आ रही है। इस ऊंची वृद्धि का श्रेय एडवांस्ड और प्रीमियम प्रौद्योगिकियों, जैसे कि स्मॉल इंसीजन लेंटीक्यूल एक्स्ट्रैक्शन (एसएमआईएलई) और फेमटोसेकंड लेसिक को दिया जाता है, जिनकी कीमतें अधिक होती हैं। ईवाई-पार्थनन में पार्टनर अक्षय रवि ने कहा, ‘हमें सालाना 15 फीसदी तक की मूल्य वृद्धि की संभावना है, क्योंकि एसएमआईएलई जैसी उन्नत प्रक्रियाओं पर ज्यादा जोर दे रहे हैं, जिनकी लागत स्टैंडर्ड फेमटो-लेसिक के लिए 40,000-50,000 रुपये के मुकाबले 1.2 लाख रुपये से ज्यादा आती है।’
इसकी तेज मांग के पीछे एक मुख्य कारण मायोपिया की बढ़ती घटनाएं हैं, खासकर शहरी युवाओं में। रवि के अनुसार, स्कूली बच्चों में मायोपिया की दर 1999 में 4.4 प्रतिशत से बढ़कर 2019 में लगभग 20 प्रतिशत हो गई।
स्क्रीन पर समय बिताने की बढ़ती अवधि, डिजिटल माध्यम से आंखों पर पड़ने वाले तनाव और जीवनशैली संबंधी आवश्यकताओं ने युवा आबादी (18-40 वर्ष) को दृष्टि संबंधित समस्याओं की चपेट में ला दिया है।
मैक्सीविजन आई हॉस्पिटल्स में मुख्य चिकित्सा निदेशक डॉ. सी शरत बाबू ने कहा कि यह श्रृंखला मासिक आधार पर 300 से अधिक लेसिक प्रक्रियाएं करती है, जिसमें फेम-लसिक, एसएमआईएलई और अन्य नई तकनीकें शामिल हैं।
तकनीकी नवाचार पहुंच और परिणाम, दोनों को बढ़ाने में केंद्रीय भूमिका निभा रहा है। पारंपरिक ब्लेड-आधारित लेसिक की जगह अब तेजी से फेमटोसेकंड लेजर को अपनाया जा रहा है, जो लगभग 90 माइक्रोन के सटीक कॉर्नियल फ्लैप बनाता है, जिससे तेजी से रिकवरी होती है और जटिलताएं भी कम देखने को मिलती हैं।