किसी ने एक बार कहा था, ‘धूम्रपान छोड़ना आसान है। मैंने कई बार ऐसा किया है।’ कंपाउंड डयूटी के बारे में भी अगर ऐसा ही कहें तो गलत नहीं होगा, ‘कंपाउंड डयूटी को पेश करना काफी आसान है। इसको कई दफा फिर से पेश किया जा चुका है।’
सरकार ने पान मसाला पर शुल्क वसूलने की एक नई प्रणाली पेश की है जिसे कंपाउंड डयूटी कहा जाता है। अगर इस नई व्यवस्था का उद्देश्य यह है कि डयूटी चुकाने में जो आनाकानी की जाती है उसे नियमित किया जाए तो ऐसा नहीं लगता कि इस नई व्यवस्था से कोई फायदा पहुंचेगा।
इसकी वजह है कि सामान्य व्यवस्था भी शुल्क वसूलने में इससे अधिक कारगर ही हो सकती है। कई बार दूसरी कमोडिटीज पर भी इस व्यवस्था को लागू कर देखा जा चुका है पर इससे फायदा नहीं के बराबर हुआ है।
सामान्य प्रक्रिया के तहत जितना उत्पादन हो रहा है उसके आधार पर डयूटी अदा की जानी चाहिए। अब यह जानने की कोशिश करते हैं कि आखिर ये कंपाउंड डयूटी व्यवस्था क्या है?
इस व्यवस्था के तहत असल उत्पादन के आधार पर शुल्क नहीं वसूला जाता है, बल्कि यह मान लिया जाता है कि पान मसाला या फिर कोई दूसरी कमोडिटी बनाने वाली किसी मशीन से एक महीने में कोई तय मात्रा में उत्पादन किया जा सकता है।
अब इस आधार पर यह देखा जाता है कि उत्पादक ने ऐसी कितनी मशीनें लगाई हैं। इन मशीनों के हिसाब से यह तय किया जाता है कि कितनी डयूटी चुकाई जानी है। पान मसाला पर 1 जुलाई 2008 से डयूटी वसूलने के लिए इसी कंपाउंड डयूटी प्रणाली का इस्तेमाल किया जा रहा है। ऐसे पान मसाले जिनमें तंबाकू होता है जिसे आमतौर पर गुटखा के नाम से जानते हैं उन पर अनुमानित आकलन के आधार पर कंपाउंड डयूटी लगाई गई है।
इस डयूटी के लिए अलग से नियम तैयार किए गए हैं जिनकी चर्चा पान मसाला पैकिंग मशीन्स रूल्स, 2008 में की गई है। इन नियमों के अनुसार डयूटी वसूलने के लिए यह देखा जाता है कि किसी उत्पादक की फैक्ट्री में कितनी पैकिंग मशीने हैं।
एक चालू पैकिंग मशीन से हर महीने कितना पान मसाला तैयार किया जाता है उसका एक अनुमान लगा लिया जाता है।
अगर कोई उत्पादक यह जानकारी देता है कि किसी महीने में उसकी फैक्ट्री में 10 मशीनें लगाई गई हैं और आगे जाकर अगर उनमें से दो मशीनें खराब हो जाती हैं तो भी उस महीने के लिए उत्पादक से जो शुल्क वसूला जाता है वह 10 मशीनों से होने वाले उत्पादन का अनुमान लगाकर वसूला जाता है।
इस व्यवस्था को लागू करने के पीछे उद्देश्य यही है कि कोई उत्पादक अचानक से महीने के बीच में यह न कह दे कि उसकी कुछ मशीनें खराब हो गई थीं इस वजह से उन पर शुल्क नहीं वसूला जाना चाहिए। हालांकि इस नियम के बावजूद अगर उत्पाद शुल्क न चुकाने के लिए राह निकालना चाहें तो वे बड़ी आसानी से ऐसा कर सकते हैं।
दरअसल नियम संख्या 13 में यह प्रावधान है कि अगर कोई उत्पादक यह चाहता है कि वह किसी मशीन से आगे काम नहीं लेगा तो उसे 7 दिन पहले इसकी जानकारी देनी होगी। ऐसी स्थिति में संबंधित अधिकारी की मौजूदगी में उस मशीन को सील
किया जाएगा।
हालांकि अगर उस मशीन को फैक्ट्री से बाहर ले जाना संभव नहीं हो तो उसे परिसर में ही रखने की छूट दी जाती है। नई व्यवस्था में यही एक कमजोर कड़ी बन कर उभरती है जिसका फायदा उत्पादक उठा सकते हैं।
महीने की शुरुआत में एक बार अगर मशीन को सील कर दिया जाता है और उसमें बिजली की आपूर्ति को खत्म कर दिया जाता है और चाहे उस मशीन को फैक्ट्री से बाहर ही क्यों ने रख दिया जाए तो भी उत्पादक के लिए उस मशीन को वापस से फैक्ट्री में लाकर उससे उत्पादन शुरू करना कोई मुश्किल काम नहीं होता है।
मशीन को सील करने के लिए आए अधिकारी के जाने के बाद उत्पादक के लिए ऐसा करना बहुत आसान होता है। मशीन को सील किए जाने से कोई खास फर्क इसलिए नहीं पड़ता है क्योंकि उत्पाद को सील तोड़ने की जरूरत ही नहीं होती वह किसी दूसरे स्थान से तार को निकाल मशीन का इस्तेमाल कर सकता है।
मैं खुद खंडसारी चीनी का उत्पादन करने वाले अपकेन्द्री विभाग में कनिष्ठ अधिकारी रह चुका हूं और इस अनुभव के आधार पर मैं यह कह सकता हूं कि किसी मशीन को सील करने भर से यह समझना कि अब उससे उत्पादन नहीं किया जाएगा,
गलत है।
हालांकि उत्पादक को इस तरह की धोखाधड़ी में सहयोग करने में कई बार अनुशासनहीन अधिकारियों का भी बहुत बड़ा हाथ होता है। लौह और स्टील सेक्टर में री-रोलर, इंडक्शन फर्नेस, टेक्सटाइल प्रोसेसर और स्टील और अल्यूमीनियम के बरतनों के लिए इस तरह की व्यवस्था लागू की जा चुकी है, पर कहीं भी यह ज्यादा दिन तक टिक नहीं पाई क्योंकि ऐसा देखा गया कि शुल्क चुकाने में धोखाधड़ी के ज्यादा मामले इस नई व्यवस्था के दौरान ही पाए गए।
सामान्य व्यवस्था में इससे कम धोखाधड़ी देखने को मिली थी। पान मसाला पर पहले 14 फीसदी की दर से शुल्क वसूला जाता था और शायद यही सबसे उपयुक्त था। शुल्क को घटाकर 8 फीसदी करना और कंपाउंड डयूटी की व्यवस्था कारगर कदम नहीं लगता है।
