भारत ने विश्व व्यापार संगठन के विवादित मामलों का वर्गीकरण करने के विकसित देशों के प्रयासों का विरोध किया है। भारत के अलावा चार अन्य विकासशील देशों मिस्र, इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका और बांग्लादेश ने भी इसका विरोध किया है। विवाद निपटारा तंत्र में सुधार के लिए चल रहे अनौपचारिक चर्चाओं के तहत विकसित देशों ने विवादों को मानक, जटिल व असाधारण जटिल जैसे तीन वर्गों में विभाजित करने का प्रस्ताव रखा।
डब्ल्यूटीओ को दिए आवेदन में भारत सहित पांचों देशों ने कहा है कि इस तरह के वर्गीकरण से विवाद निपटारा प्रक्रिया में सदस्यों के लिए कठिनाई बढ़ेगी। पांचों देशों का तर्क है कि, ‘समिति सदस्यों को मामले की प्रकृति (मानक, जटिल, असाधारण जटिल) तय करने और हितधारकों को अपने दावे सीमित करने के आमंत्रण के लिए जो अधिकार दिया गया है उससे समिति की प्रक्रिया में नियंत्रण का केंद्र विवाद के पक्षों से हटकर समिति के सदस्यों के पास चला जाएगा।’
डब्ल्यूटीओ के सदस्य अप्रैल 2022 से ही अनौपचारिक तौर पर प्रतिनिधिस्तरीय बातचीत में लगे हैं, जिसकी पहल अमेरिका ने की थी। इसका उद्देश्य यह है कि विवाद निपटान प्रणाली में सुधार के लिए इस महीने अबू धाबी में होने जा रही डब्ल्यूटीओ के 13वें मंत्रिस्तरीय सम्मेलन के दौरान आम सहमति बन जाए। परामर्श और अधिनिर्णय की दोस्तरीय विवाद निपटान प्रणाली दिसंबर 2019 से ही निष्क्रिय है क्योंकि अमेरिका ने सर्वोच्च अधिनिर्णय प्राधिकरण की सात सदस्यीय अपील निकाय में नए सदस्यों की नियुक्ति से इनकार किया है।
अमेरिका का दावा है कि मौजूदा जो व्यवस्था है उसने अक्सर अपने ध्येय का उल्लंघन किया है और उसने यह संकेत दिया है कि वह एक स्तरीय प्रणाली तथा द्विपक्षीय विवाद समाधान की ज्यादा गुंजाइश को तरजीह देगा।
पांचों देशों के संयुक्त बयान में कहा गया है, ‘ विवाद समाधान सुधार के कार्य से सकारात्मक नतीजे लाने के साझे प्रयासों को हम अपना समर्थन दोहराते हैं, लेकिन जिस तरीके से मौजूदा बातचीत में दूरगामी बदलाव के प्रस्ताव रखे गए हैं, उससे हम चिंतित हैं क्योंकि इनसे डब्ल्यूटीओ के विवाद प्रणाली तंत्र की प्रकृति में ही बुनियादी बदलाव आ सकता है, जिसकी परिकल्पना मराकेश समझौते से की गई थी। ये बदलाव इन हितों को कमजोर करते हैं कि हम विकासशील देशों को, एलडीसी सहित, डब्ल्यूटीओ विवाद समाधान प्रणाली में सुधार का अहम हिस्सा माना गया है।’
प्रस्तावित मसौदे को अभी सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध नहीं किया गया है। इसमें प्रस्ताव यह है कि पहले प्रासंगिक डीएसबी (विवाद समाधान निकाय) बैठक में समिति का गठन हो, अनिवार्य विवाद समाधान (एडीआर) हो और कुछ मामलों में फैसले के बाद उसे लागू करने की वाजिब समय अवधि (आरपीटी) घटाकर 6 महीने की जाए।
खासकर समय अवधि को घटाने को लेकर काफी चिंता है, क्योंकि पहले विकासशील देशों, खासकर एलडीसी को कम से कम 15 महीने की आरपीटी मिलती रही है। सदस्यों ने कहा, ‘अनुपालन में कोई भी सुधार करते समय यह सुनिश्चित करना चाहिए कि एलडीसी सहित विकासशील देशों को अतिरिक्त लचीलापन मिले ताकि वे विकसित देशों के खिलाफ अधिनिर्णायक निकायों के फैसलों को लागू कराने में सक्षम हों।’
पांचों देशों ने कहा कि मौजूदा बातचीत में उनकी आपत्तियों और चिंताओं को दर्ज नहीं किया गया है। उन्होंने कहा, ‘समेकित प्रारूप का पाठ जो अब आकार लेता दिख रहा है, उससे गुमराह करने वाला नजरिया सामने आता है और यह पता चलता है कि पाठ में ज्यादातर मसलों पर एक ओर झुकाव है।’
पांचों सदस्य देशों ने कहा कि जो बातचीत चल रही हैं उनमें केंद्रीय हितों का समाधान नहीं हुआ है कि जिससे सदस्य देश औपचारिक कवायद में शामिल हों, यानी अपीली निकाय की बहाली के लिए।