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मनमोहन सिंह के दो कार्यकालों की विरासत, पहले कार्यकाल को लेकर ज्यादा उदार रहेगा इतिहास

आर्थिक मानकों का विश्लेषण दिखाता है कि इतिहास बतौर प्रधानमंत्री उनके पहले कार्यकाल को लेकर अधिक उदार रहेगा बनिस्बत उनके दूसरे कार्यकाल के।

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इंदिवजल धस्माना   
Last Updated- December 29, 2024 | 4:27 PM IST

‘मैं ईमानदारी से यकीन करता हूं कि समकालीन मीडिया की तुलना में इतिहास मेरे प्रति अधिक दयालु रहेगा।’ साल 2014 में बतौर प्रधानमंत्री अपने आखिरी संवाददाता सम्मेलन में मनमोहन सिंह ने यह बात कही थी। अगर इतिहास आर्थिक प्रदर्शन के आंकड़ों के आधार पर आकलन करे तो वह बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल (2004-2009) को लेकर तो उदार और दयालु हो सकता है लेकिन शायद दूसरे कार्यकाल (2009-2014) के लिए नहीं।

उनकी सरकार के पहले चार साल के दौरान औसत सालाना आर्थिक वृद्धि दर 7.9 फीसदी थी। यह वैश्विक वित्तीय संकट के पहले की बात है। लेकिन 15 सितंबर 2008 को लीमन ब्रदर्स के पतन के साथ वित्तीय संकट शुरू हुआ था और इसके चलते 2008-09 में भारत की आर्थिक वृद्धि दर महज 3.1 फीसदी रह गई। इसके बावजूद सिंह के पहले कार्यकाल में औसत आर्थिक वृद्धि दर 6.9 फीसदी रही।

यह वृद्धि दर असल में उससे कम नजर आ रही है जितनी कि यह 1999-2000 और 2004-05 को आधार अंक मानकर की गई जीडीपी गणना के समय नजर आई थी। इस आधार पर देखें तो बीच के तीन साल 2005-06, 2006-07 और 2007-08 में नौ फीसदी से अधिक की वृद्धि दर देखने को मिली जबकि 2008-09 में वैश्विक वित्तीय संकट के कारण यह गिरकर 6.7 फीसदी हो गई। इस गणना के आधार पर सिंह के नेतृत्व वाली सरकार के पहले कार्यकाल में औसतन 8.5 फीसदी की आर्थिक वृद्धि दर्ज की गई।

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दूसरे कार्यकाल में उनकी सरकार पर लगातार हमले हुए और आगे चलकर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे, जिनमें 2जी घोटाला या कोयला घोटाला शामिल थे। अन्ना हजारे द्वारा जन लोकपाल विधेयक की मांग के साथ दिल्ली में अनशन करने के साथ ही यह और बढ़ गया। जन लोकपाल की मांग सरकारी अधिकारियों पर भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के लिए की जा रही थी।

इसके बीच सरकार अहम निर्णय लेने से बचती रही और इसे ‘नीतिगत पंगुता’ का नाम दिया गया। दूसरे कार्यकाल के तीसरे और चौथे साल में आर्थिक वृद्धि दर गिरकर 5.2 से 5.5 फीसदी के बीच रह गई। हालांकि आखिरी वर्ष में इसमें फिर इजाफा हुआ और यह 6.4 फीसदी हो गई। पूरे कार्यकाल में औसत वार्षिक वृद्धि दर 6.7 फीसदी रही जो पहले कार्यकाल की वृद्धि दर से कम थी।

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अर्थव्यवस्था के अन्य मानक भी नीतिगत पंगुता वाले वर्षों के बारे में काफी कुछ बताते हैं। देश का विदेशी मुद्रा भंडार वर्ष2007-08 में यानी वैश्विक वित्तीय संकट के पहले 399.7 अरब डॉलर के स्तर पर था लेकिन वह दोबारा कभी उस स्तर पर नहीं पहुंच पाया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि दूसरे कार्यकाल में चालू खाते का घाटा बढ़ा और 2012-13 में यह जीडीपी के 4.8 फीसदी तक पहुंच गया। इससे पिछले वर्ष में भी यह 4.3 फीसदी था। पहले कार्यकाल में जहां औसत वा​र्षिक चालू खाते का घाटा जीडीपी के 4.06 फीसदी था वहीं दूसरे कार्यकाल में यह बढ़कर 5.24 फीसदी हो गया।

वैश्विक वित्तीय संकट के दौरान अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए दिए गए राजकोषीय प्रोत्साहन को समय पर कम करने के क्षेत्र में पहल की कमी के कारण केंद्र सरकार का राजकोषीय घाटा दूसरे कार्यकाल में बढ़ता चला गया। ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि यूरो क्षेत्र के संकट के कारण अंतरराष्ट्रीय हालात बिगड़ गए थे।

First Published : December 27, 2024 | 11:02 PM IST