पिछले तीन सालों के दरम्यान अगर कोई बैंकों के नेट एनपीए के उतार-चढ़ाव की बात करे तो सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के नेट एनपीए में कुल 24 फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज हुई है।
मालूम हो कि कोई कर्ज परिसंपत्ति एनपीए में तब्दील हो जाती है अगर ब्याज 90 दिनों तक चुकाया नहीं जाता है। नेट एनपीए में 24 फीसदी का इजाफा कुल 25 बैंकों में देखा गया है जो 2006 तक कुल 17,015 करोड़ रुपये से बढ़कर 17,015.04 करोड़ रुपये की हो गई है। पिछले साल भी इसमें कुल 17 फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई थी।
साल 2007-08 की बात करें तो ग्रॉस एनपीए में कुल 5 फीसदी का इजाफा देखने को मिला है। खासकर मौजूदा साल के पहले उत्तरार्ध में उधारी दरों में इजाफे के चलते इन बैंकों के एसेट क्वालिटी चरम पर रहे। मतलब यह कि जितनी मात्रा में लिखित कर्ज थे और जितनी मात्रा में कर्ज की रिकवरी हुई, वह मौजूदा एनपीए के मकाबले कम है। हालांकि एब्सॉल्यूट टर्म में एनपीए की प्रतिशतता लोन के पोर्टफोलियो पर निर्भर करती है, लिहाजा लोन एसेट् अगर बड़ा है तो एनपीए कितना भी बड़ा क्यों न हो वह सापेक्षिक नजर से कम ही दिखता है।
फिर भी आंकड़े कहते हैं कि ये बैंक नेट प्रोविजन्स और आगामी कर्जों की निगरानी के जरिए नेट एनपीए को कम कर सक ते हैं। लेकिन एसेट् क्वालिटी पब्लिक सेक्टर बैंकों के लिए मसला बन सकता है क्योंकि नेट एनपीए के 1 फीसदी से कम रहने के चलते एसेट् क्वालिटी में खासा इजाफा देखने को मिल रहा है और बैंकों के स्वास्थय के लिए यह बेहतर संकेत नहीं है।