हाल में दिल्ली में आयोजित कौटिल्य इकनॉमिक कॉन्क्लेव में शामिल हुए विश्व बैंक के पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री और पेइचिंग विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर जस्टिन यिफु लिन ने भारत व चीन के संबंधों पर असित रंजन मिश्र से बात की। उन्होंने कहा कि रोजगार सृजन के लिए भारत को श्रम आधारित विनिर्माण पर जोर देने की जरूरत है। पेश है संपादित अंश…
हम एक दूसरे से बहुत कुछ सीख सकते हैं। हम भारत से भी सीख सकते हैं। चीन तेजी से बढ़ रहा है। चीन गरीबी उन्मूलन में सफल रहा है। यह चीन व भारत की साझा आकांक्षा है। 1978 में चीन में बाजार अर्थव्यवस्था में बदलाव के पहले वृद्धि धीमी थी। उस समय भारत का प्रति व्यक्ति जीडीपी चीन से करीब 30 प्रतिशत अधिक था। और अब चीन में प्रति व्यक्ति जीडीपी भारत से करीब 5 गुना अधिक है। इसका मतलब चीन बहुत तेजी से बढ़ा है। परंपरागत नीतियों में बदलाव के बाद चीन तेजी से बढ़ा है।
इस समय भारत में पर्याप्त युवा कामगार हैं। भारत में उच्च और मध्य आय वाले देशों की तुलना में वेतन कम है। इससे भारत को लाभ हो सकता है। अगर आप औपचारिक क्षेत्र में श्रम आधारित विनिर्माण को बढ़ाते हैं तो उत्पादकता अधिक होगी। अनौपचारिक क्षेत्रों की तुलना में उनकी मजदूरी अधिक हो सकती है, यह गरीबी घटाने का बेहतर तरीका होगा।
यह ऐसी आकांक्षा है, जिसे आप किसी दिन हासिल करना चाहते हैं। इसमें बहुत पूंजी लगती है और कुल मिलाकर भारत में सीमित पूंजी है। अगर आप उन क्षेत्रों में ज्यादा पूंजी लगाते हैं तो श्रम केंद्रित क्षेत्रों में लगाने के लिए आपके पास कम पूंजी होगी।
दूसरे, उन क्षेत्रों में रोजगार सृजन नहीं होता है और आपको ज्यादा से ज्यादा रोजगार के सृजन की अभी जरूरत है, जिससे खाली पड़ा श्रम, बोझ बनने के बजाय संपत्ति बन सके। अगर आप युवाओं को रोजगार नहीं देंगे तो उसेस मुश्किलें बढ़ सकती हैं और वे अनौपचारिक क्षेत्रों में जाएंगे, जहां उत्पादकता कम है। वहां वेतन कम है और वृद्धि में उनका सीमित योगदान है।
हम पड़ोसी हैं और हमेशा रहेंगे। चाहे हम इसे पसंद करें या नहीं। ऐसे में यह बेहतर होगा कि अच्छे पड़ोसी बनें। विवादों के समाधान के लिए बेहतर होगा कि साथ बैठकर राह निकाली जाए।
मुझे नहीं लगता कि कोई सीधा टकराव है। हम विकासशील देख हैं और हम सबकी अपेक्षा है कि अपने लोगों के लाभ के लिए विकास हो। हम दोनों में कई पूरक गुण हैं ऐसे में बेहतर यही होगा कि हम साथ बढ़ने के लिए हाथ मिलाएं।
यह अनुचित है। उदाहरण के लिए कार निर्यात। उनका कहना है कि हमारी क्षमता अधिक है और क्षमता से ज्यादा उत्पादित वस्तुओं पर सब्सिडी देकर निर्यात किया जाता है। चीन 3 करोड़ कार उत्पादन करता है, जबकि केवल 50 लाख कारों का निर्यात हुआ, जो कुल उत्पादन का 16 प्रतिशत है। जर्मनी 50 लाख कार का उत्पादन करता है और 40 लाख निर्यात करता है।
दूसरे चीन इतना अमीर नहीं है कि वह आयात करने वाले देश को सब्सिडी दे। हमारी कोई ऐसी मंशा नहीं ज्यादा आमदनी वाले देशों को सब्सिडी पर कार मुहैया कराई जाए।