वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण मंगलवार को वित्त वर्ष 2024-25 का केंद्रीय बजट पेश करने के बाद संसद के भीतर उसकी बारीकियां समझाने में जुटी हैं। नॉर्थ ब्लॉक में अपने दफ्तर में उन्होंने रोजगार देने में निजी क्षेत्र की भूमिका से लेकर बजट बनाते समय गठबंधन की जरूरतों समेत तमाम मसलों पर श्रीमी चौधरी, रुचिका चित्रवंशी, असित रंजन मिश्र और निवेदिता मुखर्जी के साथ बात की। मुख्य अंश:
ऐसा तो नहीं कह सकती। जुलाई 2019 के बजट में मुझे तैयारी का वक्त ही नहीं मिला था क्योंकि वह महीने की शुरुआत में ही आ गया था। इस बार बजट में अंतरिम बजट को पूरी तरह समाहित करना पड़ा और कई नई बातें भी जोड़ी गईं।
इस बार अलग से कोई बोझ नहीं लगा। चुनौती तो हर बार और हर बजट में होती है। लेकिन याद रखें कि कोविड 19 के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी बजट निर्माण प्रक्रिया देखी थी। उससे मुश्किल क्या हो सकता है?… ये राज्य (गठबंधन सहयोगी) भी अपनी जनता की भलाई के लिए काम कर रहे हैं। लेकिन अगर आपके हिसाब से बजट सहयोगियों को केंद्र में रखकर बनाया गया तो मेरा जवाब है, नहीं। क्या बिहार भारत का हिस्सा नहीं है?
राष्ट्रपति जी ने सही कहा था। आर्थिक समीक्षा के दिन प्रधानमंत्री ने भी कहा था कि यह बजट विकसित भारत के लिए दृष्टि तय करने वाला होगा। इसीलिए हमने चार वर्गों – महिला, युवा, किसान और गरीब पर जोर दिया। बजट की धारा इन्हीं चार स्तंभों से होकर बहती है।
उनके लिए कोई बाध्यता नहीं है।
नहीं, अधिकारियों का हस्तक्षेप नहीं होगा। कांग्रेस कॉपी-पेस्ट योजनाएं बोल सकती है मगर हम योजनाएं दिमाग से बनाते हैं। हम इसे अधिकार का दर्जा नहीं दे रहे हैं। केंद्र सरकार के तौर पर मेरे पास लोगों को ऐसा करने (रोजगार देने, इंटर्नशिप) के लिए कहने का अधिकार है।
कंपनियां सीएसआर की अपनी रकम का भरपूर इस्तेमाल कर सकती हैं। जब वे रोजगार के लायक कौशल की बात करती हैं तो इंजीनियरिंग कॉलेज जैसी जगहों से आए लोगों को अपने यहां अप्रेंटिसशिप का मौका द सकती हैं। साल भर बाद वह कंपनी नहीं तो कोई दूसरी कंपनी उन्हें नौकरी दे सकती है। निजी क्षेत्र दबाव महसूस क्यों करे, जब मैं इसे अनिवार्य बना ही नहीं रही हूं। मैं उनसे इन लोगों को वेतन देने के लिए भी नहीं कह रही। हर महीने 5,000 रुपये सरकार दे रही है और अलग से 6,000 रुपये एकमुश्त भी दे रही है। कंपनियों को सीएसआर फंड से इनके लिए प्रशिक्षक ही तो लाने हैं।
हम आईटीआई में उपकरण लगाने के लिए भी पैसा खर्च करेंगे। इंटर्नशिप देने वाली शीर्ष 500 कंपनियों को हम समझाएंगे कि उन्हीं लोगों को रोजगार लायक हुनर सिखाया जा रहा है, जिन्हें वे या दूसरी कंपनियां नौकरी देना चाहती हैं। मुझे भरोसा ही नहीं होता कि एलऐंडटी ने कहा कि 45,000 नौकरियां इसलिए नहीं दे पा रहे क्योंकि लोगों के पास सही हुनर ही नहीं है। इसलिए जब विपक्ष जुमला उछाल देता है कि नौकरियां ही नहीं हैं तो मैं यह नहीं कह रही कि नौकरियां बरस रही हैं। नौकरियां हैं मगर हुनर की कमी पूरी करनी पड़ेगी।
हां, की थी। हमने व्यापार संगठनों सीआईआई और फिक्की समेत उद्योग से गहन चर्चा की थी और उन्होंने बताया कि रोजगार और इंटर्नशिप के बारे में ऐसा प्रस्ताव कारगर हो सकता है।
ऐसा तो नहीं है। मगर हमारी जैसी खुली अर्थव्यवस्था में नौकरियां हर जगह से आनी चाहिए। अगर हर जगह नौकरी होंगी तो लोगों को अपने घर छोड़कर दूसरी जगह नहीं जाना पड़ेगा। सही नीतियां और सहारा मिले तो हर जगह रोजगार तैयार होना चाहिए।
चुनावी मुद्दे पूरे देश में एक जैसे नहीं होते। कुछ मुद्दे दो-चार राज्यों के लिए होते हैं और कुछ बाकी राज्यों के लिए। सवाल यह है कि कौन सा राज्य सही हुनर वाले ज्यादा युवाओं को अपने यहां खींच लेता है। इसके पीछे कई वजहें होती हैं।
हम हरेक पक्ष से बात करेंगे.. 2019 से मैंने इसी मंशा के साथ जीएसटी परिषद की हरेक बैठक की अध्यक्षता की है। केंद्र और राज्यों के रिश्ते खट्टे होने की बात की जा रही है मगर जीएसटी परिषद ने दिखाया है कि अगर हम केंद्र और राज्य दोनों की भलाई के लिए काम करना चाहते हैं तो सहकारी संघवाद मुश्किल नहीं है। यह वाकई काम कर रहा है।
नियामक इस समस्या से नरमी के साथ निपट रहे हैं। मुझे नहीं लगता कि कर बढ़ाने से कोई संदेश जाता है। हमने मामूली बढ़ोतरी तो बिल्कुल की है। हम बाजार में हो रही किसी भी बात को हल्का नहीं मानना चाहते। हमें खुशी है कि लोगों को अपनी बचत से बेहतर रिटर्न पाने के रास्ते मिल रहे हैं। यह उनका हक है। सेबी ने एक तरीका तय किया है और वायदा-विकल्प (एफऐंडओ) के लिए वह कायदे का काम कर रहा है। हम ऐसा कुछ नया नहीं करना चाहते, जिससे लगे कि हम लोगों के निवेश की रफ्तार पर अंकुश लगा रहे हैं।
आयकर विभाग और सीबीडीटी यह स्पष्ट करने जा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि इंडेक्सेशन खत्म करने से लोगों को ज्यादा रकम चुकानी पड़ेगी। ऐसे लोग तो कहीं भी मिल सकते हैं, जिनका निवेश कई साल गुजरने के बाद भी अच्छा रिटर्न नहीं दे पाया हो। ऐसा करने के पीछे राजस्व बढ़ाने की मंशा बिल्कुल नहीं है। व्यवस्था को सरल बनाना ही हमारा मकसद है।
यह तो इसके लिए बनी समिति को देखना है कि वे क्या करना चाहेंगे।
किसी देश के लिए बेहतर यह होता है कि वह अपना कर्ज-जीडीपी अनुपात कम करे। इसलिए अब किसी आंकड़े के मोह में न पड़ते हुए हम यह देखेंगे कि हम इसे किस तरीके से हासिल कर सकते हैं, एक ऐसा रास्ता जो टिकाऊ और विवेकपूर्ण रूप से न्यायोचित भी हो।
मुझे पूरी उम्मीद है।
एफडीआई में कोई नया रास्ता नहीं अपनाया गया है। साल 2014 से ही हमें क्षेत्रवार एफडीआई की सीमा बढ़ाई है। वित्त वर्ष 21 के बजट ही में ही हम लगभग सभी क्षेत्रों को इसके लिए खोल चुके हैं। अब हम एफडीआई नीति को और परिष्कृत बनाने की तरफ बढ़ रहे हैं।
सरकार के कई पक्षों में इस पर चर्चा हो रही है, लेकिन मेरे सामने यह विषय नहीं आया है। वीजा मसले पर भी चर्चा हो रही है।
अभी मैं इस बारे में कुछ नहीं सोच रही।
चमड़ा, कपड़ा जैसे श्रम प्रधान क्षेत्रों की वस्तुओं के विनिर्माण में हमने कच्चे माल पर शुल्कों में कटौती की है। कीमती धातुओं पर भी शुल्क में भारी कटौती की गई है। इसके पीछे सोच यह है कि जिन क्षेत्रों में रोजगार सृजन हो रहा है या ज्यादा रोजगार सृजन की संभावना है, उनका फायदा उठाना चाहिए। पिछले वर्षों में उन क्षेत्रों में शुल्क बढ़ाए गए हैं जिनमें स्वदेशी स्तर पर ही क्षमता मौजूद है। जहां जरूरत होती है शुल्क में कमी करते हैं, लेकिन जिस उद्योग को अब संरक्षण की जरूरत नहीं है, वहां भी कुछ ठोस कदम उठाए गए हैं।
सांकेतिक आवंटन वहां किया गया है, जहां मांग थी। जब भी मेरे पास प्रस्ताव आएगा, मैं इस पर विचार करूंगी।
यह तो बैंकिंग नियामक का विषय है। बैंकों को साफ संदेश दिया गया है कि वे काफी दबाव वाले एमएसएमई की भी मदद करें। अभी एमएसएमई को बैंकों से पूरी तरह से मदद नहीं मिल पा रही। हमने इस बारे में रिजर्व बैंक और एमएसएमई से बात की है। इसीलिए युवाओं को कुशल बनाने जैसे कई कदम उठाए गए हैं। जहां तक 180 दिन करने की बात है तो यह एमएसएमई अधिनियम में बदलाव से होगा।
इस क्षेत्र के परिव्यय से दीर्घकालिक खरीद योजना का संकेत मिलता है।
हमने शिक्षा और स्वास्थ्य बजट में कभी कटौती नहीं की है। कोविड के बाद बुनियादी ढांचे पर खर्च बढ़ाने पर जोर दिया क्योंकि अर्थव्यवस्था को उबारने का यही एक ठोस रास्ता था।
साल 2019 से ही मैंने कई बड़े सुधार किए हैं, कई बार तो ये बजट में ही किए गए हैं। मुझे लगता है कि कोविड के दौरान मैंने जो बजट या कई मिनी बजट पेश किए उनमें काफी कुछ सुधार कार्यक्रम थे।
जीएसटी परिषद का लक्ष्य है कि जीएसटी व्यवस्था सरल, प्रभावी तरीके से काम करे। साथ ही यह राजस्व जुटाए, लेकिन आम लोगों, गरीबों को चोट पहुंचाकर नहीं। इस तरह से जीएसटी परिषद के सभी सदस्यों के बीच इस बारे में समझ बिल्कुल स्पष्ट है।
मेरे ख्याल से यह सही नहीं है। आप यह देखिए कि राजस्व व्यय कितने कारगर तरीके से किया गया है। यह खर्च को दबाना नहीं है बल्कि संसाधनों को अधिकतम इस्तेमाल है।