मौजूदा वैश्विक वित्तीय संकट ने अमेरिका और यूरोप के कई हिस्सों की समूची बैंकिंग व्यवस्था को बुरी तरह हिला दिया है।
जाहिर तौर पर कहा जा सकता है कि भारत के आर्थिक विकास पर भी इसका असर पड़ने की आशंका है। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि लेकिन भारत के आर्थिक विकास पर इसका कितना असर पड़ेगा, यह बता पाना अभी संभव नहीं है।
विकसित देशों में केंद्रीय बैंक और नीति-निर्माता अपनी असली अर्थव्यवस्था को अमेरिका में जारी इस वित्तीय तूफान से बचाने के लिए उपाय तलाश रहे हैं। वे उधारी दरों में कटौती कर रहे हैं और ऋण बाजार के लिए अतिरिक्त नकदी मुहैया करा रहे हैं ताकि बैंकों को उधार देने में उन्हें किसी तरह की परेशानी न हो।
इंडियल काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनोमिक रिलेशंस (आईसीआरआईईआर) में मानद प्रोफेसर शंकर आचार्य ने कहा, ‘वैसे, असली अर्थव्यवस्था पर असर पड़ना शुरू हो गया है। लेकिन इसने अभी हमारी अर्थव्यवस्था को प्रभावित नहीं किया है, क्योंकि इस वित्तीय संकट का अमेरिका और यूरोप की असली अर्थव्यवस्था पर भी अभी असर नहीं पड़ा है।’ जो कुछ असर दिख रहा है, वह वित्तीय क्षेत्र पर है। अलबत्ता अन्य क्षेत्र अभी इसकी चपेट में नहीं आए हैं।
असली अर्थव्यवस्था पर वित्तीय संकट का पहला संकेत भारतीय कंपनियों, खासकर सरकारी तेल कंपनियों, पर पहले ही दिख चुका है। इन तेल कंपनियों का कहना है कि उन्हें बैंकों से रकम उधार लेने में मुश्किलें आ रही हैं।
जब कंपनियां अपने विस्तार या रोजमर्रा के संचालन के लिए कोष जुटाने में विफल रहेंगी तो इसका रोजगार के नए अवसरों और विस्तार योजनाओं पर भी बुरा असर पड़ेगा। यही नहीं, इससे उनके उत्पादन में भी कमी आएगी।
लेकिन प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (ईएसी) के चेयरमैन सुरेश तेंदुलकर का मानना है कि मौजूदा वित्तीय संकट का भारत के विकास परिदृश्य पर ज्यादा असर नहीं पड़ेगा। उन्होंने कहा, ‘हम शायद 9 फीसदी की विकास दर हासिल करने में सक्षम नहीं हो सकेंगे, लेकिन यह विकास दर 6 फीसदी से नीचे भी नहीं जाएगी।’
आर्थिक सलाहकार परिषद की रिपोर्ट में कहा गया है, ‘वैश्विक हालात में गिरावट से 2008-09 में हमारी विकास संभावनाओं को खतरा पहुंचेगा, चाहे वह तेल कीमतों को लेकर हो या फिर पूंजी बाजारों से जुड़ा हो।’
मध्य जुलाई में कच्चे तेल की कीमतें 147 डॉलर प्रति बैरल की रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गई थीं। पिछले दो महीनों में कच्चे तेल की कीमतों में 40 फीसदी की गिरावट आई, लेकिन पिछले साल की तुलना में मौजूदा वर्ष में तेल की औसतन कीमत तकरीबन 80 फीसदी अधिक बनी हुई है।
वित्तीय संकट ने भारतीय बाजारों को काफी अधिक प्रभावित किया है। विदेशी निवेशकों ने मौजूदा वर्ष में भारतीय शेयर बाजार से 9 अरब डॉलर से भी अधिक की राशि निकाली है जिससे शेयर बाजार पर दबाव बढ़ा है।
रेटिंग एवं सलाहकार फर्म क्रिसिल के अर्थशास्त्री धर्मकीर्ति जोशी ने कहा, ‘वैश्विक वित्तीय संकट के कारण शेयर बाजार पहले ही संकट में फंस चुका है, लेकिन इसका अगले 6 महीनों में असली अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाला असर मामूली होगा।’
उन्होंने कहा कि अगले वित्तीय वर्ष (2009-10) के लिए विकास दर प्रभावित होगी। उन्होंने इस दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 7.5 फीसदी रहने का अनुमान लगाया है। लेकिन मौजूदा वित्तीय संकट से कुछ लाभ भी हो सकते हैं।
जैसे, कच्चे तेल और मेटल्स जैसी कमोडिटी की कीमतों में गिरावट आना आदि। भारत अपनी घरेलू तेल जरूरतों का 70 फीसदी से अधिक हिस्सा आयात करता है। तेल की कीमतें गिरने से उसका आयात बिल कम हो जाएगा।
तेंदुलकर ने इससे पहले दिए एक साक्षात्कार में कहा था, ‘कमोडिटी की कीमतों में कमी आने से हमारा करंट अकाउंट और बजट घाटा भी संभवत: कम हो सकता है।’ तेंदुलकर राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के चेयरमैन भी हैं।
केंद्र सरकार उत्पादन लागत से कम कीमत (123 डॉलर प्रति बैरल) पर पेट्रोलियम उत्पादों की बिक्री करती है जिससे उसे सब्सिडी के रूप में अनुमानित रूप से 94,600 करोड़ रुपये का बोझ उठाना पड़ा है। इसके अलावा उर्वरक कंपनियों को भी किसानों को अपने उत्पाद बेचने के लिए इसकी पूर्ति करनी होती है।
केंद्र सरकार के साथ-साथ रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) और भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) मौजूदा वैश्विक संकट के असर को कम करने के लिए पहले ही कदम उठा चुके हैं। आरबीआई नकद सुरक्षित अनुपात (सीआरआर) आधा फीसदी कम कर चुका है जिससे बाजार में 20,000 करोड़ रुपये की अतिरिक्त नकदी और आ जाएगी। इसी तरह सेबी ने भारतीय बाजारों में विदेशी निवेशकों की भागीदारी को लेकर मानकों में कुछ ढील दी है।