भारतीय रेलवे के वर्ष 2007-08 के वित्तीय नतीजे और 2008-09 के लिए घोषित बजट दोनों ही हर पहलू पर लाजवाब हैं।
बजट से इस बात की पुष्टि होती है कि भारतीय रेल विकास की पटरी पर दौड़ती रहेगी। ऐसा कहना गलत नहीं होगा कि पिछले तीन वर्ष भारतीय रेलवे के लिए सुनहरे रहे हैं। रेलवे ने अब तक व्यापारिक संगठन और सार्वजनिक सेवा की दोहरी भूमिका को बेहतरीन ढंग से निभाई है। इसके पहले रेलवे वित्तीय संकट से जूझता रहा है। 2006-07 में जहां रेलवे का कैश सरप्लस 20,000 करोड़ रुपये था, वहीं वर्ष 2007-08 में यह बढ़कर 25,000 करोड़ रुपये का हो गया है।
रेलवे ने पिछले दो वर्षों में जो शानदार नतीजे दिए हैं उसका श्रेय काफी हद तक कीमत नीति को दिया जा सकता है। रेल मंत्री ने वर्ष भर के लिए एक समान कीमतों को तय करने के बजाय जरूरत के हिसाब से वर्ष भर कीमतों में उतार-चढ़ाव पेश किया है। इसका ही नतीजा है कि परिणाम इतने बेहतर आए हैं। मालभाड़ा और यात्री किराए को लेकर रेलवे अब प्रत्यक्ष तौर पर संसदीय नियंत्रण से निकल पाने में सफल हो पाया है। बाजार को ध्यान में रखकर बनाई गई इस नीति की वजह से यात्रियों के जरिये होने वाली कमाई में साल दर साल बढ़त देखी जा रही है। वर्ष 2007-08 में यह आंकड़ा बढ़कर 14 फीसदी तक पहुंच गया है। मालभाड़े के जरिए होने वाली कमाई भी 2007-08 में बढ़कर 14 फीसदी हो गई है।
रेलवे को अपने कर्मचारियों की ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। कर्मचारियों के वेतन और भत्ते से निपटने के लिए रेलवे को मुख्य रूप से ध्यान देना होगा। जहां इस वक्त करीब 14 लाख रेलवे कर्मचारी कार्यरत हैं, जिनके वेतनमान का भार रेलवे के ऊपर है, वहीं 12 लाख सेवानिवृत्त कर्मचारी भी हैं जिनकी पेंशन का इंतजाम भी रेलवे को ही करना है। अगर सिर्फ पेंशन का आकलन करे तो पता चलता है कि रेलवे पर इस एवज में 8,000 करोड़ रुपये का खर्च बैठता है। इसमें वर्तमान में कार्यरत कर्मचारियों के वेतन भत्ते को भी जोड़ दिया जाए तो यह रेलवे के राजस्व का करीब 40 फीसदी होता है।
एस एन माथुर
एशियन इंस्टीटयूट ऑफ ट्रांसपोर्ट डेवलपमेंट, नई दिल्ली।