आकार ही नहीं बल्कि प्रति व्यक्ति आय के मामले में भी अपने समकक्षों की बराबरी करने के लिए भारत को स्वास्थ्य और शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। बता रहे हैं जनक राज
ऐतिहासिक रूप से देखें तो अकेले आर्थिक वृद्धि या आय को ही मानव विकास का प्राथमिक मानक माना जाता था। समय बीतने के साथ-साथ आय के अलावा स्वास्थ्य और शिक्षा धीरे-धीरे मानव विकास के अहम तत्त्व बनकर उभरे।
मानव विकास की व्यापक अवधारणा को सन 1990 में उस समय गति मिली जब संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने मानव विकास सूचकांक के देशव्यापी आंकड़े जारी करने शुरू किए। ये आंकड़े आय, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे मानव विकास के तीन पहलुओं के आधार पर देश की औसत उपलब्धियों को पेश करते हैं।
यह बात महत्त्वपूर्ण है कि वैश्विक संदर्भ में शोध यह स्थापित करता है कि मानव विकास के आय और गैर आय घटक यानी शिक्षा और स्वास्थ्य आदि आपस में संबद्ध हैं और एक दूसरे को बल देते हैं। कोई भी देश लंबी अवधि में तब तक आर्थिक वृद्धि नहीं जारी रख सकता है जब तक कि उसे मानव विकास का समर्थन नहीं हासिल हो।
‘इंटर-लिंकेज बिटवीन इकनॉमिक ग्रोथ ऐंड ह्यूमन डेवलपमेंट इन इंडिया- अ स्टेट लेवल एनालिसिस’ नामक एक हालिया अध्ययन जिसे मैंने वृंदा गुप्ता और आकांक्षा श्रवण ने मिलकर लिखा है, में पाया गया है कि देश में आर्थिक वृद्धि और मानव विकास में दोतरफा संबंध है। इससे यह भी स्थापित हुआ कि मानव विकास से आर्थिक वृद्धि होती है और इसका उलटा भी उतना ही सही है।
हमने ऊपर जिस अध्ययन का जिक्र किया है उसमें यह भी पाया गया कि द्वितीयक स्तर की शिक्षा का स्तर कृषि और विनिर्माण में आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाने वाला है जबकि उच्च शिक्षा सेवा क्षेत्र में आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देती है।
उच्च शिक्षा में नामांकन का सेवा क्षेत्र पर प्रभाव द्वितीयक शिक्षा के कृषि और विनिर्माण पर प्रभाव का चार गुना है। प्राथमिक शिक्षा का आर्थिक गतिविधियों पर कोई असर नहीं दिखा। इससे संकेत मिलता है कि कम से कम द्वितीयक स्तर पर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की आवश्यकता है ताकि संज्ञानात्मक कौशल विकसित किए जा सकें। ऐसे कौशल आर्थिक वृद्धि से सीधी तौर पर जुड़ा हुआ है।
हाल ही में हुए देशव्यापी अध्ययन बताते हैं कि द्वितीयक शिक्षा में निवेश से अहम आर्थिक वृद्धि हासिल होती है जो प्राथमिक शिक्षा से हासिल होने वाले प्रभाव से बहुत अधिक है।
दूसरे शब्दों में प्राथमिक शिक्षा को आर्थिक वृद्धि में योगदान देना है तो यह अहम है कि द्वितीयक शिक्षा के व्यापक प्रावधान किए जाएं। ध्यान देने वाली बात यह है कि संयुक्त राष्ट्र सतत विकास लक्ष्यों में अब प्राथमिक और द्वितीयक शिक्षा के चुनिंदा लक्ष्य भी शामिल हैं। यह सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों के उलट है जो केवल सबके लिए प्राथमिक शिक्षा पर जोर देता है।
इन्हीं लेखकों के ‘इकनॉमिक ग्रोथ ऐंड ह्यूमन डेवलपमेंट इन इंडिया- आर स्टेट्स कन्वर्जिंग?’ नामक एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि देश के आर्थिक रूप से कमजोर और कम मानव विकास वाले राज्य आर्थिक रूप से सशक्त राज्यों के करीब नहीं आ पा रहे हैं।
हालांकि जब विभिन्न राज्यों को आर्थिक विकास और मानव विकास के आधार पर अलग-अलग श्रेणियों में बांटा जाता है तो आर्थिक रूप से कमजोर प्रांत समान मानव विकास वाले आर्थिक रूप से बेहतर राज्यों की ओर बढ़ते नजर आते हैं।
दोनों अध्ययनों से एक संदेश साफ निकलता है कि आर्थिक रूप से कमजोर राज्यों को अगर अधिक समृद्ध राज्यों की बराबरी करनी है और भारत को प्रति व्यक्ति आय तथा आकार के मामले में विकसित देशों की बराबरी करनी है तो मानव विकास को आर्थिक नीति निर्माण के केंद्र में रखना होगा।
ऐतिहासिक रूप से देखें तो देश में नीति निर्माताओं ने आर्थिक वृद्धि को प्राथमिकता देते हुए स्वास्थ्य और शिक्षा की अनदेखी सी कर दी है। स्वास्थ्य पर सार्वजनिक व्यय हमारे सकल घरेलू उत्पाद के एक फीसदी से भी कम है। यह स्थिति पिछले तीन दशकों से बनी हुई है। 2017 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में इसके लिए 2.5 फीसदी का लक्ष्य तय किया गया था लेकिन हम उसके आसपास भी नहीं हैं।
सार्वजनिक स्वास्थ्य पर हमारा व्यय रूस के 5.3 फीसदी, ब्राजील के 4.5 फीसदी, थाईलैंड के 3.6 फीसदी और चीन के 2.9 फीसदी से काफी कम है। इसी तरह शिक्षा पर भारत का सरकारी व्यय सकल घरेलू उत्पाद के 4.6 फीसदी के बराबर है जो 6 फीसदी के वांछित स्तर से काफी कम है।
इसे 6 फीसदी करने का लक्ष्य सबसे पहले 1968 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में प्रकट किया गया था और 2020 समेत बाद की सभी शिक्षा नीतियों में दोहराया गया। यह भी ध्यान रहे कि 6 फीसदी का यह लक्ष्य तीन दशक पहले यानी 1986 में हासिल होना था।
जन स्वास्थ्य के लिए कम आवंटन के चलते आम परिवारों को स्वास्थ्य और शिक्षा पर अपनी जेब से खर्च करना पड़ रहा है। एक अध्ययन बताता है कि स्वास्थ्य पर खर्च के चलते 2011-12 में 5.5 करोड़ लोग गरीबी में चले गए।
स्वास्थ्य पर होने वाले कुल व्यय में 50 फीसदी से अधिक इसी प्रकृति का होता है जो दुनिया में सर्वाधिक स्तरों में शामिल है। इसके चलते लोगों को कर्ज लेना पड़ता है और कई बार संपत्ति बेचनी पड़ती है।
शिक्षा पर कम सरकारी व्यय के कारण बड़ी तादाद में बच्चे आज भी बुनियादी स्तर से आगे की स्कूली शिक्षा नहीं हासिल कर पा रहे हैं। भारत को स्वास्थ्य और शिक्षा पर सरकारी व्यय बढ़ाना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि लोगों को अनावश्यक व्यय न करना पड़े।
इसमें दो राय नहीं कि आर्थिक वृद्धि अप्रत्यक्ष रूप से मानव विकास में योगदान के रूप में सरकार और व्यक्तियों को अधिक संसाधन मुहैया कराती है ताकि वे स्वास्थ्य और शिक्षा पर खर्च कर सकें।
बहरहाल ऐसे योगदान की गति बहुत धीमी है। बीते तीन दशक में हमारे मानव विकास सूचकांक में केवल 0.20 का सुधार हुआ है। सबसे तेज विकसित होती अर्थव्यवस्थाओं में से एक होने के बावजूद भारत अहम स्वास्थ्य एवं शिक्षा मानकों पर समकक्ष देशों से पीछे है।
मानव विकास के मामले में हम इस भरोसे नहीं रह सकते कि ऊपर से आने वाली बेहतरी नीचे हालात को ठीक करेगी। हमें मानव विकास को प्राथमिकता देनी होगी और इसके लिए विशिष्ट कदम उठाने होंगे। ऐसा करके ही हम पूर्ण आर्थिक वृद्धि हासिल कर सकेंगे।
(लेखक सीएसईपी में फेलो और आरबीआई के पूर्व कार्यकारी निदेशक हैं। लेख में व्यक्तिगत विचार हैं)