यह दलील बहुत कमजोर है कि भारत की राजनीति दो हिस्सों में बंट गई है। एक भाजपा को पसंद करने वाला उत्तर भारत और दूसरा उसे खारिज करने वाला दक्षिण भारत।
गत सप्ताह चार राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद हमारी राजनीतिक बहस में उत्तर-दक्षिण की एक दिलचस्प नई बहस शामिल हो गई है। इस दलील में दम नजर आ सकता है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को उत्तर भारत में बढ़त हासिल है जबकि दक्षिण उसे नकारता है। इस विभाजन को विंध्य की पर्वत श्रृंखला के आर-पार वाले इलाके से जोड़ा जा रहा है। मैंने इसे दिलचस्प इसलिए कहा कि यह अति साधारण बात है जिसे कुछ और मजबूत बनाकर पेश करने की जरूरत है।
पहली बात तो यह कि भाजपा की सर्वोच्चता को चुनौती केवल दक्षिण तक सीमित नहीं है। देश के राजनीतिक नक्शे पर नजर डालें तो पता चलेगा कि भाजपा केवल उत्तर भारत में केंद्रित पार्टी नहीं बल्कि खास गढ़ों वाली पार्टी है। अगर भाजपा पूरे दक्षिण भारत में सत्ता से बाहर है तो वह पूर्वी तटवर्ती इलाकों पश्चिम बंगाल, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में भी सीमित पहुंच रखती है।
पश्चिमी तट की बात करें तो पार्टी गुजरात और गोवा में सत्ता में है। महाराष्ट्र में वह गठबंधन सरकार में है जहां मुख्यमंत्री का पद साझेदार दल के पास है। कर्नाटक और केरल विपक्ष के पास हैं।
क्या आप इसे अभी भी उत्तर-दक्षिण विभाजन कहेंगे? या फिर यह भाजपा की सीमा है कि वह तटीय राज्यों तथा बाहरी इलाकों तक पहुंच नहीं बना सकी जबकि अपने राजनीतिक गढ़ में उसे पर्याप्त लोक सभा सीट मिलती रहीं। एक बार फिर अगर हम अपनी दलील को उत्तर-दक्षिण के सरलीकरण में रखें तो पूर्वोत्तर का भविष्य क्या होगा?
अहम बात यह है कि भाजपा अपनी शक्तिशाली और सर्वविजेता छवि के बावजूद अभी कांग्रेस की उस अखिल भारतीय छवि के आसपास भी नहीं है जो पार्टी को इंदिरा गांधी के दौर में हासिल थी। हम 1984 में राजीव गांधी की 414 लोकसभा सीट की जीत को अपवाद मानकर चल रहे हैं।
सन 1971 के बाद के इंदिरा गांधी के ‘सामान्य’ दौर के बाद कांग्रेस को पूरे देश में सीट मिलीं और यह आंकड़ा औसतन 350 सीट के करीब रहा। मोदी-शाह की भाजपा ने 2019 के लोकसभा चुनाव में कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुजरात के अलावा हिंदी प्रदेश में विपक्ष को पूरी तरह नष्ट कर दिया और पार्टी ने 303 लोक सभा सीट का अपना उच्चतम आंकड़ा हासिल किया।
चुनाव अभियान चलाने वालों की तारीफों को छोड़ दिया जाए तो देश के राजनीतिक मानचित्र पर एक नजर डालने पर पता चलता है कि भाजपा को 350 सीट हासिल करने के मार्ग में कई चुनौतियों का सामना करना होगा।
क्या अब हम कहेंगे कि उत्तर-दक्षिण विभाजन के अलावा एक उत्तर-पूर्व विभाजन भी है? या क्या हम यह कह सकते हैं कि हर वह राज्य जहां हिंदी प्रमुख भाषा है और भाजपा प्रमुख दल है वह उत्तर भारत का राज्य है? क्या मध्य प्रदेश उत्तर का राज्य है? बिहार को कुछ हद तक उत्तरी राज्य कहा जा सकता है क्योंकि उसकी उत्तरी सीमाएं नेपाल से मिलती हैं लेकिन छत्तीसगढ़ और झारखंड का क्या? वे मध्य भारत या पूर्व-मध्य में स्थित राज्य हैं। कहने का अर्थ है कि भारतीय राजनीति को क्षेत्रीय या भौगोलिक विभाजन के आधार पर बांटकर देखना मुश्किल है।
एक ओर जहां हम तथ्यों के आधार पर उत्तर-दक्षिण विभाजन पर सवाल कर रहे हैं तो हमें इस दलील के अंतर्निहित सिद्धांत को भी परख सकते हैं। फिलहाल तो यही नजर आता है कम विकसित, कम शिक्षित, कम प्रगतिशील और धर्मांध उत्तर भारतीय नरेंद्र मोदी की भाजपा के लिए मतदान करते हैं। जबकि दक्षिण भारत कहीं अधिक विवेक का परिचय देता है। दक्षिण भारत में हालात एकदम विपरीत हैं।
बात बस यह है कि दक्षिण के पास इतनी सीट नहीं हैं कि वह भारत को मोदी से बचा सके। जब भी नया परिसीमन होगा जो शायद जनगणना के बाद होगा तो ‘सभ्य’ दक्षिण भारत और अधिक हाशिये पर चला जाएगा।
ऐसा सामान्यीकरण खतरनाक है। भौगोलिक दृष्टि से देखें तो हम पहले ही यह दर्शा चुके हैं कि भाजपा की चुनौती उत्तर बनाम दक्षिण की नहीं बल्कि उसके गढ़ बनाम अन्य क्षेत्रों की है। पार्टी अब केंद्र से बाहर का सफर तय कर रही है। मध्य प्रदेश उसका गढ़ रहा है लेकिन दक्षिण, पूर्व और पश्चिम के तटवर्ती इलाकों में वह कुछ खास कामयाबी नहीं पा सकी है।
इसके अलावा अगर आप गुणात्मक दलील दें तो सन 1977 के चुनावी नतीजों को कैसे समझाएंगे? आज जिसे उत्तर कहा जा रहा है वह मुख्य रूप से हिंदीभाषी प्रदेश हैं। इन राज्यों ने आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी की कांग्रेस को नकार दिया था। जबकि दक्षिण भारत के नतीजे एकदम विपरीत थे।
कांग्रेस को 154 लोकसभा सीट पर जीत मिली थी जिनमें से अधिकांश दक्षिण भारत से थीं। आज भाजपा जिन राज्यों में प्रभावी प्रदर्शन कर रही है उनमें से उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान तथा हरियाणा में कांग्रेस को दो सीट पर जीत मिली थी। इंदिरा गांधी और संजय गांधी को क्रमश: रायबरेली और अमेठी में अपनी-अपनी सीट पर हार का सामना करना पड़ा था।
वह नतीजा 2019 के नतीजों से कोई खास अलग नहीं था। क्या हम यह नतीजा निकाल सकते हैं कि सन 1977 में उत्तर भारत राजनीतिक रूप से अधिक सचेत था जबकि दक्षिण भारत इंदिरा गांधी का अंधानुकरण कर रहा था? उस लिहाज से उत्तर भारत स्वतंत्रता के पक्ष में था और उसने आपातकाल को खारिज किया जबकि दक्षिण भारत का मामला इसके उलट था। क्या यह निष्कर्ष मान्य है? मुझे पता है कि इसे इस तरह प्रस्तुत करने पर यह भद्दा नजर आता है, ठीक वैसे ही जैसे यह कहना कि दक्षिण भारत समझदार है क्योंकि वह भाजपा को वोट नहीं देता।
कठोर राजनीतिक तथ्य यह है कि भाजपा के आलोचक उत्तर-दक्षिण विभाजन की बात करके खुद को ही नीचा दिखाते हैं। जैसा कि हमने कहा भी कि भारत का मौजूदा राजनीतिक भूगोल भाजपा की ताकत और उसकी कमियां दोनों दर्शाता है।
एक बार जब उसे चुनौती देने वाले इस तरह देखेंगे तो तस्वीर इतनी नाउम्मीदी भरी नहीं नजर आएगी। इस बात को भाजपा से बेहतर भला कौन समझेगा। अति आत्मविश्वास के बजाय पार्टी कठोर यथार्थवाद के कारण जीतती रही है। यह सही है कि भाजपा सभी प्रतिद्वंद्वियों को बहुत बड़े अंतर से पराजित करती हुई नजर आती है लेकिन उसकी भौगोलिक सीमाएं एकदम स्पष्ट हैं। पार्टी पहले ही प्रमुख राज्यों में अपना सर्वोत्कृष्ट प्रदर्शन कर चुकी है।
वर्ष 2019 में पार्टी 224 लोकसभा सीट पर 50 फीसदी से अधिक मत पाने में कामयाब रही थी जो बेहतरीन प्रदर्शन है। इनमें से अधिकांश सीट भाजपा के प्रभाव वाले राज्यों में थीं। इनमें कर्नाटक की 22 सीट शामिल थीं। अपराजेयता की तमाम बातों के बीच शेष भारत में यानी 319 सीट में से उसके केवल 79 में जीत मिली और उसने कुल 303 सीट पर जीत हासिल की। यानी 272 के बहुमत से 31 सीट अधिक।
भाजपा के थिंक टैंक को यह बात समझ में आती है और वह इसे लेकर चिंतित है। पार्टी को जिन सीट पर 50 फीसदी से अधिक मत मिले थे वहां अगर वह 60, 70 या 100 फीसदी अधिक मिल जाते हैं तो भी उसकी कुल सीट बढ़कर केवल 224 हो सकेंगी। यानी भाजपा को महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और तेलंगाना में जीती सभी सीट पर जीत चाहिए। ये वही राज्य हैं जिनकी बदौलत पार्टी 79 सीट जीतकर 303 के आंकड़े तक पहुंची थी।
ये वही राज्य हैं जहां इंडिया गठबंधन का प्रदर्शन अच्छा रह सकता है, बशर्ते कि उसके नेता मतों का स्थानांतरण सुनिश्चित कर सकें। यही वजह है कि भाजपा इंडिया पर इस कदर हमलावर है।
2024 की चुनावी लड़ाई कुछ इस हिसाब से लड़ी जाएगी। इन चुनावों में मुकाबला भाजपा के गढ़ों तथा अन्य के बीच होगा। यह मुकाबला उत्तर बनाम दक्षिण के बीच तो कतई नहीं होगा जबकि भाजपा के हताश आलोचक कुछ ऐसा ही कह रहे हैं।