कांशीराम अत्यधिक बुद्धिमान और राजनीतिक रूप से दृष्टा व्यक्ति थे। उनके विचारों ने भारत को पिछड़ा वर्ग का प्रधानमंत्री दिया। परंतु बिहार की शैली में जाति जनगणना शेष भारत के लिए बहुत बुरा विचार होगी।
नरेंद्र मोदी को चुनौती देने वाले चाहे बंटे हुए हों, एकजुट हों, मजबूत हों या अत्यधिक मजबूत हों, वे अगले चुनाव में उन्हें हराने का स्वप्न तब तक नहीं देख सकते जब तक कि उनके पास एक बड़ा विचार न हो।
यदि इंडिया गठबंधन सोचता है कि राष्ट्रीय स्तर पर बिहार की शैली में जाति जनगणना ही वह बड़ा विचार है तो मैं इसे परखना चाहूंगा: बिहार आज जो सोचता है, वह बीते कल के एक दिन पहले भी वही सोचा करता था।
बिहार के सामाजिक न्याय आंदोलन ने सन 1990 तक राजनीतिक सत्ता को पिछड़े वर्गों तक ला पहुंचा दिया था। बिहार न तो वहां से आगे बढ़ा और न ही उसने व्यापक आर्थिक सशक्तीकरण, बढ़ते अवसरों और आम लोगों के जीवन में सुधार लाने का कोई प्रयास किया।
यह बिहार मॉडल भारत के लिए बहुत दुखद साबित हुआ। बिहार में यह कारगर रहा और यह देखते हुए कि सभी पिछड़ी शक्तियां भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के खिलाफ एकजुट हैं, यह मोदी की संभावनाओं को नुकसान पहुंचा सकता है लेकिन केवल बिहार में जहां भाजपा को 2019 में केवल 17 सीट मिली थीं। इनमें भला और कितनी कमी आ सकती है?
साफ कहें तो इस रणनीति के सहारे मोदी को हराने के लिए आपको पूरे देश को बिहार के रंग में रंगने की आवश्यकता नहीं है। केवल उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र और शायद हरियाणा में ऐसा करना पड़ सकता है।
इनमें से किसी भी राज्य में जातीय विभाजन और पारंपरिक वफादारियों पर नजर डालें तो पता चलता है कि अगर यह जनगणना ही वह क्रांति है जिसकी आपको प्रतीक्षा थी तो, यह कभी उस प्रदेश की सीमा नहीं लांघ सकेगी जहां 1967 में इसकी शुरुआत हुई थी।
अगर समझदार लोग पहले ही इसे क्रांति कह रहे हैं और राहुल गांधी ने स्वर्गीय कांशीराम के मूल विचार: जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी को अपना समर्थन दे ही दिया है तो आपको मेरे नजरिये और मेरी दलीलों पर यकीन क्यों करना चाहिए? आइए अब 2019 के लोकसभा चुनाव के कुछ तथ्यों पर नजर डालते हैं और देखते हैं कि आगे की राह क्या है।
2019 में मोदी-शाह के नेतृत्व वाली भाजपा ने 224 लोकसभा सीट में 50 फीसदी से अधिक वोट हासिल किए थे। यानी वे स्पष्ट बहुमत से केवल 49 सीट दूर रह गए थे।
आप चाहे जिस पक्ष में हों, आपको उस लहर को पलटने में कितनी मशक्कत लगेगी। 224 सीटों को राज्यवार बांटकर देखें तो चुनौती और भी मुश्किल नजर आती है। भाजपा को उत्तर प्रदेश की आधी सीटों पर यानी 80 में से 40 सीट पर 50 प्रतिशत से अधिक मत मिले। ध्यान रहे वहां का जातीय गणित, अवसर और मुस्लिम आबादी बिहार के सबसे अधिक करीब हैं।
राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात और कर्नाटक आदि अन्य प्रमुख राज्यों में जिन पर मोदी को भरोसा है वहां क्रमश: 23, 25, 26 और 22 सीट पर पार्टी को 50 फीसदी से अधिक मत मिले। यनी 188 में से 136 सीट पर। क्या जाति जनगणना के कारण ये करोड़ों लोग मोदी का साथ छोड़ देंगे?
मोदी को चुनौती देने वालों की कठिनाई तीन तथ्यों में निहित है: पहला, वह इन राज्यों में सीट और मत प्रतिशत के मामले में इतनी अच्छी जीत दर्ज करते हैं कि उन्हें पराजित करना लगभग असंभव है। यह स्टीव वॉ के नेतृत्व वाली ऑस्ट्रेलियाई टीम की तरह है जो पहली पारी में ही इतने रन बना देती थी कि उन्हें हराना लगभग नामुमकिन हो जाता था।
दूसरा, सन 1989 के बाद की कांग्रेस के उलट पिछड़ा वर्ग या जातीय कार्ड खेलने के मामले में वह भी मासूम नहीं हैं। वह खुद को पिछड़ा वर्ग के एक व्यक्ति के रूप में पेश करते हैं।
तीसरा पिछड़ी जातियों और मुस्लिमों वाली राजनीति केवल तभी कारगर होती है जब तक कि आप 30 फीसदी से अधिक मतों के साथ जीत रहे हों। हिंदी प्रदेशों में एक समय ऐसा हुआ करता था। अगर दूसरा पक्ष 50 फीसदी मतों के साथ शुरुआत कर रहा है तो इसका अर्थ यह है कि आपको एक पहाड़ चढ़ना है। ऐसे में जाति जनगणना से बेहतर उपायों की आवश्यकता होगी।
कांशीराम की बुद्धिमता और उनके राजनीतिक दृष्टा होने से कोई इनकार नहीं कर सकता। वह अपने समय के दिग्गज थे। पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और अल्पसंख्यकों का बेसब्री से राजनीतिक सशक्तीकरण चाह रहे थे।
इसका जबरदस्त और दूरगामी असर हुआ। इसने हमारी राजनीति को बदल दिया और हम कह सकते हैं कि हम कुछ लक्ष्यों को पहले ही हासिल कर चुके हैं। भारत में पिछड़ा वर्ग का प्रधानमंत्री और एक आदिवासी राष्ट्रपति है। कांग्रेस के चार मुख्यमंत्रियों में से तीन पिछड़ा वर्ग के हैं।
आप इस लहर की काट करके वापसी की संभावनाओं का आकलन तब तक नहीं कर सकते हैं जब तक कि आप यह परीक्षण नहीं करें कि इतनी बड़ी तादाद में अन्य जातियों ने मोदी की भाजपा की ओर रुख क्यों किया।
यह व्यापक मान्यता है (तमाम मतदाता सर्वेक्षणों में पुष्टि के बाद मैं भी इस पर यकीन करता हूं) कि इस समय भारत में
अगड़ी जातियां सबसे सुरक्षित वोट बैंक हैं और वह भाजपा के पास है। बिहार में हुई जाति जनगणना से एक अच्छी बात यह हुई कि लोगों को पता चल गया कि यह वोट बैंक कितना छोटा है। अगर बिहार की सभी अगड़ी जातियों को मिला दिया जाए तो भी आबादी में उनकी हिस्सेदारी 12 फीसदी है। इस दलील को आगे बढ़ाते हैं और मान लेते हैं कि अगड़ी जातियां 15 फीसदी हैं। 2019 के चुनाव में भाजपा की मत हिस्सेदारी 37 फीसदी से कुछ अधिक थी। तो शेष 22 फीसदी मतदाता कौन थे? या फिर 224 सीट पर 50 फीसदी से अधिक वोट देने वाले कौन थे?
ये आंकड़े इसलिए हासिल हुए कि मध्यवर्ती और निचली हिंदू जातियों ने मंडल-कांशीराम के दायरे से बाहर जाकर मोदी को वोट दिया। क्या विपक्ष उन्हें जाति जनगणना के आश्वासन के साथ वापस ला सकता है?
यदि ऐसा हो भी गया तो हिस्सेदारी कैसे तय होगी? बिहार इस विचार के केंद्र में है लेकिन वह अपने मतदाताओं को क्या दे रहा है? भले ही वे किसी भी जाति के हों। वहां कोई सरकारी नौकरी नहीं है, नई योजनाएं शुरू करने के लिए धन नहीं है, उद्योग नहीं हैं, सेवा क्षेत्र नहीं है।
सरकारी फंडिंग वाला शिक्षा क्षेत्र भी नहीं है जहां रोजगार मिल सके। राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव निजी क्षेत्र में आरक्षण का वादा करते हैं। यह अच्छा विचार है लेकिन बिहार में निजी क्षेत्र है कहां? हां शराब के अवैध धंधे की बात अलग है।
जाति जनगणना महत्त्वपूर्ण, उपयोगी और जरूरी विचार है। मेरी दलील केवल यह है कि यह उतना भी मारक राजनीतिक विचार नहीं है जितना बताया जा रहा है। यह उन मतदाताओं को अपनी ओर वापस लाने के लायक आकर्षक नहीं है जिन्हें जाति आधारित दल भाजपा के हाथों गंवा चुके हैं। बल्कि इससे भाजपा के अगड़े मतदाता और एकजुट होंगे।
मंडी और कांशीराम के उभार को करीब चार दशक हो चुके हैं। तब से अब तक भारत काफी बदल चुका है और ज्यादातर बदलाव बेहतरी के लिए ही आया है। देश की प्रतिभाओं को बढ़ाने में उन विचारों की भूमिका हर जगह नजर आती है। इस सफलता ने उन्हीं सामाजिक तबकों की नई पीढ़ियों को भी सशक्त बनाया है और वे अब बेहतर नौकरियों की आकांक्षा कर रहे हैं। जाति जनगणना सरकार को बेहतर डिजाइन तैयार करने में मदद कर सकती है और वह बेहतर नीतियां बना सकती है। परंतु आकांक्षाओं के इस दौर में इसका आकर्षण पहले से कम हुआ है।
क्या इसका अर्थ यह है कि विपक्ष के पास मोदी की कोई काट नहीं। मेरा मानना है कि उसे किसी बड़ा, विशिष्ट, सकारात्मक और आशावादी नजरिया अपनाने की आवश्यकता है।
मार्केटिंग की भाषा में कहें तो कुछ ऐसा जो उसे एक ब्रांड के रूप में अलग पहचान दे। राहुल गांधी ने मोहब्बत की दुकान और भारत जोड़ो के रूप में जो पहल की वह कुछ हद तक उस दिशा में है। अब वह एक पुराने विचार पर क्यों लौट रहे हैं यह समझना कठिन है। अगर आप दिलचस्प नए विचारों की मदद से सत्ताधारी वर्ग को स्पष्ट वैचारिक और राजनीतिक चुनौती दे सकते हैं तो फिर पुराने राजनीतिक विचारों की ओर क्यों लौटना?