देश की राजधानी नई दिल्ली, मिलेनियम सिटी गुरुग्राम, वित्तीय राजधानी मुंबई, सिलिकन सिटी बेंगलूरु और उभरते औद्योगिक केंद्र चेन्नई में एक बात साझा है। बीते दशक में हर मॉनसून में देश के ये महानगर जो अहम औद्योगिक गतिविधियों के केंद्र भी हैं, पूरी तरह ठप हो जाते हैं। हाल में आई बाढ़ में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और मुंबई के अनेक हिस्सों में बाढ़ और लोगों के विस्थापन के जो दृश्य नजर आए वे इसी प्रक्रिया का हिस्सा हैं। नगर निगम के अधिकारीगण मौसम की इन अतियों के कारण बड़े पैमाने पर हो रही इस आपदा, लोगों की मौतों और आर्थिक क्षति, सभी से अवगत हैं। परंतु इसका हल उनके पास भी नहीं नजर आ रहा है।
पहली नजर में बढ़ता शहरीकरण इसके लिए दोषी नजर आता है। सच तो यह है कि यह शहरीकरण दुनिया भर में आर्थिक वृद्धि और विकास का अपरिहार्य परिणाम है। भारत भी अलग नहीं है। असली चुनौती है यह सुनिश्चित करना कि बढ़ते शहरी केंद्रों का सही ढंग से नियोजन किया जाए और उनके रखरखाव तथा उन्हें टिकाऊ बनाने के लिए सही वित्तीय मॉडल के साथ-साथ उचित संतुलन कायम किया जाए। भारत के अधिकांश हिस्सों में ऐसा नहीं हो पाया है। खासतौर पर जहां निर्माण लॉबी का प्रभाव नगरीय निकायों पर लगातार बढ़ता जा रहा है। वह भी तब जब ये संस्थाएं वित्तीय संकट से जूझ रही हैं। इसका परिणाम यह है कि पेड़ों को मनमाने ढंग से काटा जा रहा है, या उनकी जड़ों को दमघोंटू कंक्रीट संरचनाओं में बंद कर दिया जाता है। हरियाली लगातार नष्ट हो रही है, और जलाशयों को बिना स्थानीय जल-प्रणाली की समझ के कंक्रीट से ढक दिया जाता है, जबकि मूलभूत जल निकासी प्रणाली और बाढ़ नियंत्रण ढांचे की कमी साफ तौर पर दिखाई देती है। यहां तक कि मानसून से पहले नालियों की सफाई जैसे सरल कदम भी नगर प्रशासन की समझ से बाहर प्रतीत होते हैं।
जलवायु परिवर्तन और अत्यधिक गर्मी के कारण ये समस्याएं हर साल और गंभीर हो रही हैं तथा इनका तत्काल हल तलाश करना जरूरी है। अध्ययन दिखाते हैं कि खासकर उत्तर-मध्य भारत में मॉनसून का असर हालिया दशकों में काफी अधिक रहा है। मॉनसून बहुत असंयमित भी हुआ है। उदाहरण के लिए इस वर्ष मॉनसून जल्दी आ गया। कुछ राज्यों में यह दो सप्ताह से लेकर 18 दिन तक पहले आ गया।
इसके अलावा इसने कई पश्चिमी विक्षोभों को और मजबूत किया जिससे भारी बारिश हुई। जम्मू-कश्मीर से लेकर हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड तक भारी बारिश के कारण क्षति के शिकार हुए। डाउन टु अर्थ पत्रिका के मुताबिक इस वर्ष अगस्त के अंत तक मॉनसून ने 15 पश्चिमी विक्षोभ झेले। इससे हिमालय के निचले इलाके में, जहां अनियोजित निर्माण कार्य हुए हैं, वहां पहाड़ धसकने और वृक्षों के गिरने की तमाम घटनाओं से भारी नुकसान हुआ। इस वर्ष हरसिल घाटी के पास भूस्खलन से हुई मृत्यु और विनाश की श्रृंखला का मुख्य कारण यह था कि वहां के नाजुक भू-भाग पर आवासीय भवनों और होटलों आदि का निर्माण किया गया। यह निर्माण ऐसी जगह हुआ जहां कायदे से नहीं होना चाहिए था।
भविष्य की बात करें तो भारतीय शहरों को मॉनसून की दृष्टि से बेहतर तैयारी की जरूरत है। पहली बात तो ये कि हमारे शहर मौसमी बारिश के लिए भी तैयार नहीं हैं। शहरी जल निकासी व्यवस्था मॉनसून की विस्तारित अवधि से निपटने के लिए तैयार नहीं है। इसके अलावा अब कम समय में भी तेज बारिश की घटनाएं हो रही हैं जिनसे निपटना मुश्किल है। अगस्त में सामान्य से 5 फीसदी अधिक बारिश के बाद भारत के मौसम विभाग ने अनुमान जताया है कि सितंबर में भी औसत से अधिक बारिश होगी। सितंबर के पहले हफ्ते में ही दिल्ली और गुरुग्राम पानी में डूब गए। यह विकसित भारत के लिए अच्छा उदाहरण नहीं है।