संसद में जन विश्वास (प्रावधानों में संशोधन) विधेयक पारित हो गया है। पत्र सूचना कार्यालय की विज्ञप्ति के अनुसार विधेयक का उद्देश्य 19 मंत्रालयों द्वारा प्रशासित 42 केंद्रीय अधिनियमों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के लिए 183 प्रावधानों में संशोधन का प्रस्ताव कर जीवन और व्यापार को सुगम बनाने को बढ़ावा देना है।
जब यह विधेयक कानून बन जाएगा तब यह कई कारोबार से जुड़े उद्यमियों के जीवन को आसान बना देगा और दवा उद्योग भी इनमें से एक है। जन विश्वास कानून के कारण औषधि एवं प्रसाधन सामग्री (डीऐंडसी) अधिनियम में कुछ बदलावों का दवा निर्माता स्वागत करेंगे लेकिन भारत के दवा उपभोक्ताओं के पास खुश होने की कोई बड़ी वजह नहीं है।
लोकसभा में इस विधेयक को मतदान के लिए पेश किए जाने से पहले, भारतीय दवा उद्योग की दवा तैयार करने और गुणवत्ता से जुड़ी नियंत्रण कार्यप्रणाली कड़ी जांच के दायरे में आई। इस साल अप्रैल के अंत में, केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन के निरीक्षण के ताजा चरण में ऐंटासिड, ऐंटीबायोटिक्स और रक्तचाप कम करने वाली दवाओं सहित 48 आमतौर पर इस्तेमाल किए जाने वाले और मशहूर ब्रांडों की दवाएं घटिया पाई गईं।
अमेरिका के यूएस फूंड ऐंड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) ने भारत के कई प्रमुख दवा निर्माताओं की भी खिंचाई की थी जो अमेरिका को जेनेरिक दवाओं का निर्यात कर रहे थे। उसने इन जेनेरिक दवाओं को बनाने वाले कारखानों में कई समस्याओं की ओर ध्यान दिलाने की कोशिश की गई जिनमें अस्वच्छ माहौल में दवा निर्माण, दूषित दवाओं से लेकर अलग-अलग कागजी कार्रवाई शामिल है।
इसके अलावा, गाम्बिया और उज्बेकिस्तान में भारत के एक दवा निर्माता द्वारा बनाए गए कफ सिरप के सेवन से बच्चों की मौत होने की खबरें भी आईं। गाम्बिया के राष्ट्रपति अदामा बैरो द्वारा गठित एक टास्कफोर्स ने न केवल, दूषित कफ सिरप बनाने वाली कंपनी, मेडन फार्मा के खिलाफ मुकदमा चलाने की सिफारिश की बल्कि भारत सरकार पर भी मुकदमा चलाने की सिफारिश की है।
इस बीच, श्रीलंका ने घोषणा की है कि वह गुजरात में एक भारतीय कंपनी द्वारा बनाए गए आई ड्रॉप नहीं खरीदेगा क्योंकि उससे आंखों की रोशनी पर खत्म हो जा रही थी। इससे पहले नेपाल ने भी 16 भारतीय दवा कंपनियों को उनकी दवाओं की खराब गुणवत्ता के लिए काली सूची में डाल दिया था। इन मुद्दों को देखते हुए, गुणवत्ता नियंत्रण मानकों को दोबारा सुनिश्चित करने और भारतीय नियमों की फिर से जांच करने के साथ-साथ यह देखने की आवश्यकता थी कि क्या उन्हें बेहतर बनाया जा सकता है।
कानून को मजबूत करने और गलत काम करने वाली कंपनियों के लिए चीजों को और अधिक कठिन बनाने के लिए कई कदम उठाए गए हैं। मजबूत कानूनों का मामला दो कारणों से महत्वपूर्ण है। सबसे पहले, भारतीय नागरिकों के स्वास्थ्य अधिकारों को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए। दवाओं के लिए भुगतान करने वाले लोगों को आश्वासन चाहिए होता है कि दवाएं उम्मीद के मुताबिक काम करेंगी और उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाएंगी।
दूसरी बात यह है कि भारत, 2005 में पेटेंट व्यवस्था में बदलाव के बाद वैश्विक स्तर पर उच्च गुणवत्ता वाली जेनेरिक दवाओं की आपूर्ति करने में सक्षम होने वाले देश के रूप में दुनिया की फार्मेसी के तौर पर जाना जाता है। भारत की सरकार अपनी उस प्रतिष्ठा को खोने का जोखिम नहीं उठा सकती।
वहीं यूएस एफडीए सख्त गुणवत्ता जांच पर अमल करता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि भारतीय कंपनियों द्वारा अमेरिका को आपूर्ति की जाने वाली दवाएं अच्छी गुणवत्ता की हैं वहीं, गाम्बिया, उज्बेकिस्तान और श्रीलंका जैसे अन्य देशों के लिए अच्छी गुणवत्ता वाली जेनेरिक दवाओं के विनिर्माण केंद्र के रूप में भारत की प्रतिष्ठा अब तक ठीक रही है।
दुर्भाग्य से, जन विश्वास विधेयक के जरिये भारतीय दवाओं की गुणवत्ता को नियंत्रित करने वाले औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम से जुड़ा संशोधन दवा विनिर्माताओं के पक्ष में चल गया है जबकि इसमें उपभोक्ताओं के नजरिये से इसके निहितार्थ पर विचार किया जा सकता है।
डीऐंडसी अधिनियम गैर-मानक गुणवत्ता (एनएसक्यू) वाली दवाओं, मिलावटी दवाओं और नकली दवाओं के लिए अलग-अलग सजा निर्धारित करता है जिनमें से मिलावटी और नकली दवाओं को बेहद खराब श्रेणी में रखा जाता है। एनएसक्यू दवाओं को मामूली अपराध की श्रेणी में रखा जाता है लेकिन यह समस्या बढ़ाने वाला है। दवा उद्योग के सक्रिय कार्यकर्ताओं, दिनेश ठाकुर, वकील टी प्रशांत रेड्डी, फार्मा क्षेत्र की अनुभवी पत्रकार प्रियंका पुल्ला ने समय-समय पर इस पर आवाज उठाई है।
एनएसक्यू दवाएं फार्माकोपोइया में निर्धारित कानूनी रूप से अनिवार्य मानकों को पूरा करने में विफल रहती हैं। उनमें पर्याप्त सक्रिय तत्त्व नहीं हो सकते हैं और ये अन्य मापदंडों पर विफल हो सकते हैं। ऐसे में किसी भी दर पर यह, दवा काम नहीं करेगी जैसा करने के लिए यह बनी है।
नियामक धारणा यह है कि एनएसक्यू दवाएं बहुत कम नुकसान करती हैं। यह मरीज को ठीक नहीं कर सकता है, लेकिन इसकी वजह से उनकी मौत नहीं हो सकती है। लेकिन यह एक गलत धारणा है क्योंकि एक एनएसक्यू ऐंटीबायोटिक किसी गंभीर संक्रमण से पीड़ित मरीज को नुकसान पहुंचा सकता है और एनएसक्यू रक्तचाप की दवा, उच्च रक्तचाप से पीड़ित मरीज को लंबी अवधि में नुकसान पहुंचा सकती है जो इसे नियमित रूप से लेता है।
डीऐंडसी अधिनियम की धारा 27 डी ने पहले एनएसक्यू दवाएं बनाने वालों पर 20,000 रुपये के जुर्माने के साथ अधिकतम दो साल और न्यूनतम एक वर्ष (विशेष परिस्थितियों के लिए कुछ अपवादों के साथ) की सजा निर्धारित की थी। यह शायद ही एक पर्याप्त सजा थी। जन विश्वास विधेयक सजा को और भी जटिल बनाता है, जिससे दवा कंपनी के अधिकारियों को 5 लाख रुपये का जुर्माना देकर जेल से बचने की अनुमति मिलती है जो दोषी कंपनियों और उसके अधिकारियों के लिए महज एक तमाचा भर है।
भारत में कारोबार सुगमता में सुधार की आवश्यकता है और यह कई तरीके से किया जा सकता है जिसमें इनपुट आयात शुल्क सहित नीतियों और करों की स्थिरता सुनिश्चित करने से लेकर बेहतर मशीनरी में निवेश करने के लिए प्रोत्साहन देना शामिल है। यह मरीजों के अधिकारों और उनकी सुरक्षा की कीमत पर नहीं होनी चाहिए।
(लेखक बिजनेस टुडे और बिजनेसवर्ल्ड के पूर्व संपादक हैं और संपादकीय सलाहकार कंपनी प्रोजैक व्यू के संस्थापक हैं)