हमास (Hamas) द्वारा गत वर्ष 7 अक्टूबर को किए खूनी आतंकी हमले के बाद तीन बातें निश्चित थीं। पहला, यह संभावना नजर आई कि इजरायली समाज उसी तरह प्रतिक्रिया देगा जैसी प्रतिक्रिया अधिकांश समाज हिंसात्मक आतंकी हमलों के दौरान देते हैं: यानी बिना सोचे-समझे जवाब देना।
दूसरा, इजरायल को सार्वजनिक और राजनीतिक स्तर पर समर्थन मजबूत होगा, खासतौर पर पश्चिमी देशों का समर्थन। तीसरा, पश्चिम एशिया में बीते एक दशक के दौरान स्थिरता और क्षेत्रीय एकीकरण के जो प्रयास हो रहे थे उन्हें काफी नुकसान पहुंचेगा।
इन तीनों में से केवल डेढ़ बातें ही अनुमान के मुताबिक घटती होती नजर आई हैं। इजरायली समाज पहले ही कुछ दशक पूर्व की तुलना में अधिक कट्टर हो चुका है। उसने अपनी सेना के जबरदस्त क्रूर और हिंसात्मक हमले का मोटे तौर पर समर्थन ही किया।
वहां का मीडिया भी शायद ही कभी गाजा में छिड़ी लड़ाई के इंसानों पर पड़ रहे असर की बात करता है और देश का नेतृत्व इस बुनियादी सवाल से निपटने का अनिच्छुक नजर आ रहा है कि बिना गाजा को नष्ट किए हमास को कैसे खत्म किया जा सकता है और हमास के खात्मे के बाद फिलिस्तीनी स्वशासन के बारे में क्या हो सकता है।
यहां एक महत्त्वपूर्ण तथ्य को स्वीकार करना होगा कि इजरायल के अलोकप्रिय प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू शायद इस युद्ध को इसलिए लड़ रहे हों ताकि वे पद पर लंबे समय तक बने रह सकें लेकिन यह लड़ाई अकेले नेतन्याहू की नहीं है। यह दावा करना कठिन है कि नेतन्याहू के अलावा अन्य इजरायली नेता भी किसी वैकल्पिक हल के बारे में सोच भी रहे होंगे या उन्हें युद्ध को जीतने का कोई कम हिंसात्मक तरीका सूझ रहा होगा।
ऐसे में इजरायल को शांति और स्थिरता की वापसी के लिए उसके मित्र और साझेदार ही प्रेरित कर सकते हैं। यहां हम दूसरे बिंदु पर आते हैं: यूरोप और अमेरिका में इजरायल को सार्वजनिक और राजनीतिक समर्थन। ऐसा लगता है कि यह समर्थन पूरी तरह अक्षुण्ण है।
परंतु क्या वाकई ऐसा है? वास्तव में यह मुश्किल नजर आता है। अगर कोई भी अन्य लोकतांत्रिक राष्ट्रपति सत्ता में होता तो अमेरिका की प्रतिक्रिया इससे शायद बहुत अलग होती। परंतु जो बाइडन एक सांसद के रूप में भी अमेरिकी सीनेट में इजरायल के सर्वाधिक उत्साही समर्थक नजर आते हैं।
पिछली बार जब किसी अमेरिकी राष्ट्रपति ने इजरायल पर दबाव बनाने की कोशिश की थी तो वह वाकया करीब तीन दशक पहले घटित हुआ था। उस समय जॉर्ज एचडब्ल्यू बुश ने धमकी दी थी कि अगर निपटान की गतिविधि बंद न होने पर वह इजरायली ऋण पर अमेरिकी गारंटी को वापस ले लेंगे। बाइडन ने उस मसले पर बुश की खिंचाई की थी और ऐसा लगता नहीं है कि तब से अब तक उनकी सोच में बदलाव आया है।
परंतु अमेरिकी में अन्य कई लोग जिनमें यहूदी मूल के युवा अमेरिकी भी शामिल हैं, वे उस वक्त की तुलना में अब अलग तरह से सोचते हैं। अमेरिका में शुरू हुए विरोध प्रदर्शन बीते दो सप्ताह में पूरी दुनिया में फैल गए हैं और वे बदलते परिदृश्य के परिचायक हैं। ताजा सर्वेक्षण बताते हैं कि अमेरिका के 10 में से चार युवा सोचते हैं कि अमेरिका इस जंग में इजरायल की ‘कुछ ज्यादा’ ही मदद कर रहा है।
इस बीच यूरोप में फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने इजरायल को चेतावनी दी है कि वह ‘महिलाओं और बच्चों’ को नहीं मारे। उन्होंने यह भी कहा कि गाजा की आबादी को स्थानांतरित करना एक ‘युद्ध अपराध’ होगा और गाजा को ‘समतल करने’ की कोई आवश्यकता नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि फ्रांस फिलिस्तीनी राज्य को मान्यता दे सकता है। इजरायल की बमबारी की प्रकृति ने भी पश्चिम में उसे समर्थन के आधार को कमजोर किया है।
बहरहाल पश्चिम एशिया में व्यापक अस्थिरता की बात करें तो अमेरिका की प्राथमिकता स्पष्ट रूप से यही है कि युद्ध गाजा तक सीमित रहे। इसमें भी संशय नहीं कि उन्हें यह डर है कि लेबनान में ईरान समर्थित लड़ाके भी इजरायल के खिलाफ लड़ाई में शामिल होंगे। इससे जंग का दायरा फैलेगा और ईरान के शामिल होने से हालात और बिगड़ेंगे।
लेबनान में हिजबुल्ला और ईरानी नेतृत्व के प्रतिरोध ने ऐसा होने से रोक लिया, बावजूद इसके कि ईरानी दूतावास पर इजरायली हवाई हमले में 16 लोगों की जान गई। ऐसा लग रहा है कि व्यापक युद्ध की आशंका को थाम लिया गया है। अरब देशों ने बमबारी के खिलाफ बड़े पैमाने पर प्रदर्शन नहीं होने दिया।
उन्हें लगा कि इजरायल के खिलाफ होने वाला विरोध प्रदर्शन इजरायल के साथ उनके रिश्ते सामान्य करने की कोशिश के विरुद्ध जा सकता है। भारत के नजरिये से देखें तो यह अच्छी बात है क्योंकि व्यापक युद्ध की स्थिति में ईंधन कीमतें बढ़तीं और अर्थव्यवस्था पर बुरा असर होता।
एक तथ्य यह भी है कि पश्चिम एशिया का नए सिरे से एकीकरण जिसके लिए भारतीय अधिकारी पिछले कुछ वर्षों में लगातार प्रयासरत भी रहे हैं और जो देश की अर्थव्यवस्था और व्यापार के लिए मददगार साबित हो सकता है, वह प्रक्रिया गाजा पर हमले के कारण रुक गई है। आखिर में, एक स्पष्ट तस्वीर उभरती नजर आती है। इजरायल के पड़ोसी, मित्र और शत्रु सभी पीछे हटे हैं। देश खुद प्रतिशोध की भावना में अपना नुकसान करता जा रहा है।
एशिया के हम जैसे बाकी देश केवल उम्मीद ही कर सकते हैं कि पश्चिम में सुसंगतता जल्दी पूरी हो और एक नई सहमति बने जो इजरायल को अधिक स्थायी शांति की दिशा में ले जाए।