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Opinion: तेजी से बदलता समय और कुलीन वर्ग की भूमिका

भारत में बने यूपीआई भुगतान तंत्र ने डिजिटल भुगतान में जबरदस्त बढ़त हासिल कर ली है और वीजा तथा मास्टरकार्ड जैसे पुराने दिग्गज चुपचाप देखते रह गए।

Last Updated- October 11, 2023 | 9:24 PM IST
Japan population

हर एक दशक में परिस्थितियों में तीव्र बदलाव आ रहा है। ऐसे में किसी देश की आर्थिक और राजनीतिक दिशा के चयन में उसके कुलीन और अभिजात वर्ग की भूमिका का विश्लेषण कर रहे हैं अजित बालकृष्णन

एक समय था जब मैं अपनी किशोरावस्था के अंतिम दौर में था और केरल में अपने घर से भारतीय प्रबंध संस्थान (आईआईएम) कलकत्ता जाने के लिए ट्रेन पकड़ने की तैयारी कर रहा था, जहां मुझे दाखिला मिला था।

मेरे दिलोदिमाग में बॉब डिलन का प्रसिद्ध गीत ‘द टाइम्स दे आर अ-चेंजिंग’ लगातार गूंज रहा था। यह गाना मैंने रेडियो सिलोन सर्विस में सुना था जो दक्षिण भारत में पश्चिमी पॉप संगीत का मुख्य जरिया हुआ करता था। उस समय मैं हैरान रह जाता था कि यह गीत मेरे दिमाग में क्यों गूंजता रहा है, लेकिन अब पीछे मुड़कर देखता हूं तो मुझे इसकी वजह समझ में आती है। वह समय वाकई बदलाव का था: मैं एक नए शहर कलकत्ता जा रहा था, आईआईएम की नई दुनिया में छलांग लगा रहा था, अपनी किशोरावस्था से आगे बढ़ रहा था, उसी वर्ष हमें आजादी दिलाने वाले दल कांग्रेस में दो फाड़ हुए थे और इंदिरा गांधी उससे अलग हो गई थीं और सरकार ने अचानक 14 बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था।

उसके आधी सदी के बाद पिछले सप्ताह अचानक एक रात अपनी नींद के बीच मैंने खुद को दोबारा बॉब डिलन का वही गीत गुनगुनाते हुए पाया। मैं एक झटके में नींद से जागा और सोचने लगा कि आखिर आज मुझे इस गीत की याद क्यों आई? मैं मुंबई के कोलाबा में अपने शयनकक्ष के दरवाजे पर खड़ा चांद की रोशनी में नहाए हुए बॉम्बे हार्बर को देख रहा था जहां बड़े जहाज धीरे-धीरे आ-जा रहे थे। इसी दौरान मेरे दिमाग में ढेर सारी तस्वीरों की बाढ़ सी आ गई।
जिस समय मैंने आईआईएम में दाखिला लिया था उस समय एक डॉलर आठ रुपये का था जो अब 84 रुपये का हो चुका है।

मैं और मेरे दोस्त दोनों क्रिकेट और फुटबॉल से बहुत प्यार करते थे और उन्हें खेला भी करते थे, अब वे दोनों बॉलीवुड की तरह दर्शकों के मनोरंजन का बहुत बड़ा कारोबार बन चुके हैं। बंबई के सिनेमा हाल जिन्हें हम सब बहुत सराहना के भाव से देखते थे क्योंकि उनमें भारी भीड़ उमड़ती थी और टिकट केवल कालाबाजारी के जरिये महंगी दरों पर ही खरीदा जा सकता था और अब वे लगभग खाली पड़े रहते हैं। हमें किताबों की जिन दुकानों में जाकर किताबें उलट-पलट कर देखना पसंद था वे अब प्राय: नदारद ही हो गई हैं। यहां तक कि कोलाबा में भी समय बदल रहा है।

समय में बदलाव के और भी संकेत सामने हैं: भारत को चंद्रमा के दक्षिणी हिस्से में अपना यान उतारने में कामयाबी हासिल हुई है। भारत में बने यूपीआई भुगतान तंत्र ने डिजिटल भुगतान में जबरदस्त बढ़त हासिल कर ली है और वीजा तथा मास्टरकार्ड जैसे पुराने दिग्गज चुपचाप देखते रह गए। इन दोनों सफलताओं को सरकारी कंपनियों ने ऐसे दौर में अंजाम दिया है जब चारों ओर निजीकरण का शोर है।

मैंने अपना काफी समय यह सोचने में लगाया है कि लगभग हर एक दशक में समय इतना तेजी से क्यों बदल जाता है। इसी प्रक्रिया में मेरा ध्यान 2020 में आई अमेरिकी समाजविज्ञानी प्रोफेसर रिचर्ड लखमन की पुस्तक ‘फर्स्ट क्लास पैसेंजर्स ऑन अ सिंकिंग शिप: इलीट पॉलिटिक्स ऐंड द डिक्लाइन ऑफ ग्रेट पावर्स’ की ओर गया।

500 पन्नों की इस पुस्तक में उनकी कोशिश इस बात पर आधारित है कि कैसे आज की महाशक्ति अमेरिका का पराभव सुनिश्चित है और एक दिन वह भी 16वीं से 20वीं सदी के बीच के स्पेनी, डच और ब्रिटिश साम्राज्यों की तरह सत्ता के शिखर पर पहुंचने के बाद खत्म होने की ओर बढ़ेगा। परंतु मुझे जो बात दिलचस्प लगी वह थी उनके द्वारा इन घटनाओं का जिक्र करने की वजह। उनकी शानदार अंत:दृष्टि कहती है कि हमें इन देशों के कुलीनों के व्यवहार पर करीबी नजर रखनी होगी तभी हमें उनके उदय और पराभव की वजह का पता लग सकेगा।

अपने विश्लेषण में वह कहते हैं कि प्राचीन साम्राज्यों में कुलीन या अभिजात वर्ग जमींदारों, नागरिक-सैनिकों के साथ-साथ सैन्य अधिकारियों से बना था जो इन सैनिकों का नेतृत्व करते थे। इसमें उनके द्वारा विजित भूमि का अभिजात वर्ग भी शामिल होता था। वर्तमान दौर में वह पूंजीवादी कारोबारियों और सरकारी अधिकारियों को कुलीन मानते हैं जिनका व्यवहार आज के देशों को विभिन्न आर्थिक और राजनीतिक दिशाओं में ले जा रहा है।

अमेरिका के उदाहरण के साथ वह यकीन करते हैं कि अमेरिका में कारोबारी अभिजात वर्ग के लोग विदेश नीति को इस कदर प्रभावित करते हैं कि उनका देश निरंतर किसी न किसी युद्ध में संलग्न रहता है और वे हथियारों की बदौलत खूब मुनाफा कमा रहे हैं। वहां के संगठन भी इस तरह की आक्रामक विदेश नीति के हिमायती हैं क्योंकि यह उन्हें देश के लगभग हर इलाके में स्थिर रोजगार मुहैया कराती है।

वह कहते हैं कि राजनीतिक कुलीनों को कारोबारी कुलीनों का साथ चाहिए होता है और उन्होंने यह सुनिश्चित किया है कि अमेरिकी संघीय सरकार को कॉरपोरेट आय कर से मिलने वाली प्राप्तियां 1967 के 23 फीसदी से कम होकर 2008 में 12 फीसदी रह गई। ऐसा मोटेतौर पर कर बचत के लिहाज से बेहतर ठिकानों यानी टैक्स हैवंस का इस्तेमाल करके किया गया। वह कहते हैं कि ऐसे में गिरावट को रोकने वाली चीजों पर खर्च करने के लिए अधिक धन नहीं बचता और अमेरिका में यह सिलसिला शुरू हो चुका है।

जैसा कि आप देख भी सकते हैं अगर किसी देश के उदय और पराभव में उसके कुलीनों की भूमिका के प्रोफेसर लखमन के मॉडल को भारत पर लागू किया जाए तो शायद हम कुछ गहन निष्कर्षों तक पहुंच सकें। आज के भारतीय कुलीन संभवत: पारिवारिक कारोबारी घरानों और परिवारों के दबदबे वाले राजनीतिक दलों, अफसरशाहों, आईआईटी और आईआईएम के पढ़े लोगों आदि से बनता है। क्या उनके निहित हित भारत के आर्थिक और राजनीतिक चयन को आकार दे रहे हैं और अगर हां तो कैसे? क्या यही अंत: संबद्धता हमें आईटी सेवा क्षेत्र में विश्व शक्ति बनाती है लेकिन आईटी उत्पादों के क्षेत्र में नहीं?

क्या यह अंत: संबद्धता हमें समझा सकती है कि क्यों विंध्य के दक्षिण के राज्य तेजी से विकास कर रहे हैं जबकि विंध्य के उत्तर के राज्य पीछे छूट रहे हैं?
या फिर हमें डिलन को सुनना चाहिए और वह करना चाहिए जो वह अपने गीत के अंत में कहते हैं, ‘तुम्हारा पुराना मार्ग तेजी से पुराना पड़ रहा है। अगर आप अपना हाथ नहीं दे सकते तो कृपया नए मार्ग से बाहर निकलें… क्योंकि समय तेजी से बदल रहा है।’

(लेखक इंटरनेट उद्यमी हैं)

First Published - October 11, 2023 | 9:24 PM IST

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