भारत में उद्योग-प्रतिष्ठान अधिकांश परिवार नियंत्रित एवं प्रबंधित हैं। स्टार्टअप इकाइयों (Startup Companies) के साथ भी यह बात लागू होती है जहां मित्रों एवं परिवारों द्वारा कारोबार का प्रबंधन इनकी विशिष्ट पहचान होती है। इसके बावजूद दोनों को संचालित करने वाले निवेशकों की धारणा बहुत अलग है।
परिवार-प्रबंधित इकाइयों के कुछ प्रवर्तक-प्रबंधक कुप्रबंधन के आरोप में अपनी कंपनियों से निदेशक मंडल (बोर्ड) या शेयरधारकों के जरिये बाहर निकाले जा चुके हैं। मगर ऐसे कई उदाहरण हैं (जैसे येस बैंक) जिनमें फर्जीवाड़े या अनुचित व्यवहार में सीधे दोषी नहीं पाए जाने तक प्रवर्तक कंपनी में बने रहते हैं।
इसकी तुलना जरा स्टार्टअप इकाइयों से करें जहां प्राइवेट इक्विटी एवं वेंचर कैपिटल प्रदर्शन की समीक्षा ‘मूल्यांकन’ के माध्यम से करते हैं। विश्लेषक इस अपारदर्शी मानक एवं व्यवहार के लिए इन इकाइयों पर तीखी टिप्पणी करते हैं।
विश्लेषकों की ये टिप्पणियां आधारहीन नहीं हैं। मगर मूल्यांकन आधारित व्यवहार का एक परिणाम यह होता है कि यह संस्थापक के पक्ष को स्वतः ही अत्यधिक कमजोर कर देता है।
उदाहरण के लिए बैजूस के संस्थापक बैजू रवींद्रन को हटाने की मांग पर विचार किया जा सकता है। रवींद्रन ने 2011 में बैजूस की स्थापना की थी। बैजूस पर कई रणनीतिक निर्णयों एवं अधिकारों के हनन को लेकर दबाव बढ़ रहा है।
रवींद्रन की जगह कोई दूसरा पेशेवर सीईओ होता तो उसकी नौकरी काफी पहले चली गई होती। इस यूनिकॉर्न कंपनी के बोर्ड में रवींद्रन, उनके भाई और उनकी पत्नी हैं। इनके अलावा स्वतंत्र सदस्य हैं। सरकारी एजेंसियां कंपनी के खातों की जांच-पड़ताल कर रही हैं।
रवींद्रन कंपनी के भड़के शेयरधारकों को यह आश्वासन दे रहे हैं कि शिक्षा-तकनीक क्षेत्र की उनकी कंपनी न केवल उनके द्वारा शुरू किया गया संस्थान है बल्कि उनकी जिंदगी है। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि रवींद्रन का यह भावनात्मक संदेश निवेशकों की चिंताएं किस हद तक दूर कर पाता है। मगर इतना तो स्पष्ट है कि वह अत्यधिक दबाव से गुजर रहे हैं।
अगर उन्हें इस्तीफा देने के लिए विवश होना पड़ा तो वह भारत में स्टार्टअप जगत में ऐसा करने वाले पहले व्यक्ति नहीं होंगे। 2015 में एक ऑनलाइन रियल एस्टेट सर्च पोर्टल के संस्थापक एवं सीईओ को बोर्ड सदस्यों ने निवेशकों और मीडिया के साथ अनुचित व्यवहार के लिए बर्खास्त कर दिया। पिछले साल वित्त-तकनीक क्षेत्र की भारतपे के बोर्ड ने इसके सह-संस्थापक अशनीर ग्रोवर एवं उनकी पत्नी को अनुचित तरीके से रकम एकत्र करने के आरोप में हटा दिया।
हाल की घटनाएं उद्योग जगत में कुछ पुराने घटनाक्रम से अलग कर देखी जा सकती हैं। सत्यम कंप्यूटर का धराशायी होना इसका एक उदाहरण है। 2009 में रामलिंग राजू ने 7,000 करोड़ रुपये से अधिक फर्जीवाड़े की बात कबूल कर ली। इनमें 5,000 करोड़ रुपये नकद रकम थी और कुछ रकम बैंकों में जमा थी। उस समय सत्यम के बोर्ड में कई दिग्गज शामिल थे। मगर ऐसा लगता है कि राजू ने उन सभी की आंखों में धूल झोंक दी।
एक वर्ष पहले सत्यम के बोर्ड ने आधारभूत क्षेत्र की सहायक कंपनी मायटास के 1.6 अरब डॉलर में अधिग्रहण पर बिना कोई सवाल किए मुहर लगा कर अपनी कमजोरी का परिचय दे दिया था। बाद में शेयरधारकों ने यह कहते हुए इस सौदे का विरोध किया कि यह सत्यम को कर्ज में डुबो देगा।
सत्यम उस समय देश की चौथी सबसे बड़ी सूचना-प्रौद्योगिकी (आईटी) कंपनी हुआ करती थी। बाद में राजू ने अपने कबूलनामे में कहा कि सत्यम-मायटास सौदा फर्जी परिसंपत्तियों को वास्तविक परिसंपत्तियों में बदलने का एक प्रयास था। यहां ध्यान देने योग्य बात है कि न ही बोर्ड और न ही सक्रिय शेयरधारकों ने राजू को सीईओ की भूमिका से हटाने की मांग की। राजू ने सार्वजनिक रूप से घपले की बात स्वीकार कर स्वयं ही अपने निकलने का रास्ता साफ कर लिया।
सत्यम एक सूचीबद्ध कंपनी थी, इसलिए तत्कालीन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार शेयरधारकों एवं कर्मचारियों के हितों की रक्षा के लिए तेजी से नए मालिक की तलाश में जुट गई। अंततः महिंद्रा समूह सत्यम कंप्यूटर खरीदने के लिए तैयार हो गया। मगर सोचने वाली बात यह है कि अगर सत्यम पर प्राइवेट इक्विटी या वेंचर कैपिटल का नियंत्रण होता तो क्या हालात कुछ और होते। प्राइवेट इक्विटी या वेंचर कैपिटल के रहने से कठोर सवालों की झड़ी कंपनी के धराशायी होने से काफी पहले ही शुरू हो जाती।
देश के शीर्ष उद्योगपतियों में शामिल दिवंगत धीरूभाई अंबानी के छोटे पुत्र अनिल अंबानी को विरासत में बिजली, दूरसंचार, बुनियादी ढांचा, वित्तीय सेवाओं एवं मनोरंजन क्षेत्र में कई सफल कंपनियां मिली थीं। मगर उनकी सभी कंपनियां धीरे-धीरे नुकसान में चलने लगीं। ऐसा प्रतीत हुआ कि उनकी कंपनियों के रसातल में पहुंचने से रोकने के लिए बोर्ड या शेयरधारकों दोनों में किसी ने कुछ नहीं किया।
वर्ष 2019 में उनकी कंपनियों का सालाना आम बैठक हुई। हालत यह थी कि इन बैठकों के दौरान बाउंसर तक तैनात करने पड़े। कुछ शेयरधारकों ने शेयरधारकों को नुकसान पहुंचाने के लिए अंबानी के खिलाफ सामूहिक मुकदमा तक करने की धमकी दे डाली। मगर हैरान करने वाली बात यह रही कि कुछ शेयरधारकों ने अंबानी के सम्मान में कोई कमी नहीं की और उनके दोनों पुत्रों को कंपनियों के बोर्ड में शामिल होने का न्योता दे डाला। अंबानी अपनी सूचीबद्ध कंपनियों के बोर्ड में जमे रहे और बाजार नियामक भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) के हस्तक्षेप के बाद ही उन्होंने इस्तीफा दिया। सेबी ने रकम की हेराफेरी के आरोप में किसी भी सूचीबद्ध कंपनी के साथ जुड़ने से उन पर प्रतिबंध लगा दिया।
भ्रष्टाचार या अनुचित आचरण अलग चीज है। निर्णय लेने एवं सतर्कता बरतने में प्रबंधन स्तर पर गलती कभी-कभी ही बोर्ड एवं शेयरधारकों को कसरत कराते हैं। विजय माल्या ऋण भुगतान में चूक करने पर लंदन चला गया। माल्या या उसके पुत्र को एक के बाद एक गलतियों के लिए जिम्मेदार ठहराने के बजाय किंगफिशर एयरलाइंस के निदेशक मंडल के सदस्य विमानन कंपनी के बंद होने से पहले ही निकल गए।
अगर दिवंगत साइरस मिस्त्री की बात मानें तो उन्हें देश के सबसे बड़े उद्योग समूह को प्रबंधित करने में आई कठिनाई समूह के पूर्व चेयरमैन रतन टाटा की गलत रणनीतिक निर्णयों का नतीजा थी। इतिहास इसे स्पष्ट करता है। कोरस का अधिग्रहण करने के बाद कोरस के लिए मुश्किलें शुरू हो गई थीं। समूह का दूरसंचार कारोबार भी कौड़ी के भाव बिक गया। टाटा मोटर्स को नैनो परियोजना बंद करने पर करोड़ों रुपये का नुकसान हुआ। मिस्त्री ने की अन्य दूसरे खराब निर्णयों का भी हवाला दिया।
इन बातों का नतीजा क्या निकला? टाटा समूह के बोर्ड ने मिस्त्री को चेयरमैन पद से बर्खास्त कर दिया। दूसरी तरफ रतन टाटा अब भी समूह को नियंत्रित करने वाले दो प्रमुख न्यासों की कमान संभाल रहे हैं। मुद्दा यह नहीं है कि स्टार्टअप इकाइयां शेयरधारक संचालित एवं बोर्ड प्रबंधित कंपनियों की तुलना में बेहतर प्रबंधित होती हैं। मगर इसे लेकर कोई संदेह नहीं कि भारत में स्टार्टअप समूह में प्रवर्तक कम सुरक्षित हैं।