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जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में वित्तीय संसाधन का ढांचा

जलवायु परिवर्तन संकट ने हमें विकास के वैकल्पिक मार्गों पर विचार करने के लिए विवश कर दिया है।

Last Updated- November 23, 2023 | 9:26 PM IST
India faces the highest risk from climate change's impact, says IPCC

जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए आर्थिक संसाधनों पर दुनिया के देशों के समक्ष नया नजरिया रखने की दिशा में भारत को प्रयास करने चाहिए। बता रहे हैं किरीट पारिख और ज्योति पारिख

जलवायु परिवर्तन पर निर्णय लेने वाली सर्वोच्च संस्था कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (कॉप 28) के अध्यक्ष ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए धन (जलवायु वित्त) के बंदोबस्त के वास्ते नया तरीका खोजने का आह्वान किया है। जलवायु परिवर्तन संकट ने हमें विकास के वैकल्पिक मार्गों पर विचार करने के लिए विवश कर दिया है। ऊर्जा विशेषज्ञ एक बार फिर नए सिरे से रणनीति तैयार करने में जुट गए हैं।

उनका मानना है कि सौर, पवन, जल विद्युत और अन्य स्रोतों के साथ अक्षय ऊर्जा के उपयोग पर अधिक से अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। इसके साथ बैटरी, हाइड्रोजन सहित अक्षय ऊर्जा के अन्य स्रोतों के संरक्षण के उपायों की भी जरूरत है। जलवायु परिवर्तन के खतरों को भांपते हुए लोग भी अब इलेक्ट्रिक वाहनों के इस्तेमाल सहित जीवन शैली में बदलाव की तरफ कदम बढ़ा रहे हैं।

हालांकि, यह भी सत्य है कि ये उपाय अंततः किफायती साबित होंगे, मगर उससे पहले इनकी तरफ कदम बढ़ाने के लिए दशकों तक बड़ी मात्रा में भारी निवेश की जरूरत होगी। यह कारण है कि जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने से जुड़े विषयों पर चर्चा के लिए आयोजित इस सालाना सम्मेलन में विकासशील देश जलवायु वित्त का मुद्दा जरूर उठाते हैं।

इसका कारण भी स्पष्ट है क्योंकि ये देश विकसित अर्थव्यवस्थाओं की तरह हानिकारक गैसों के उत्सर्जन के लिए उत्तरदायी नहीं रहे हैं। 2009 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा और अन्य नेताओं ने 2020 से ग्रीन क्लाइमेट फंड (जीसीएफ) के लिए सालाना 100 अरब डॉलर देने का वादा किया था। यह एक महत्त्वाकांक्षी एवं अति महत्त्वपूर्ण घोषणा थी, जो 2023 में भी पूरी नहीं हो पाई है। अप्रैल 2023 तक जीसीएफ में लगभग कुल 20 अरब डॉलर रकम ही आई थी।

तब से जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए आवश्यक आर्थिक संसाधन का विषय हरेक वर्ष विवादास्पद रहा है। भारत कुछ एक ऐसे वैकल्पिक समाधान सुझा सकता है जो सभी देशों के सहयोग से पारदर्शी एवं उचित तरीके से आवश्यक रकम का प्रबंध कर सकते हैं।

यह अफसोस की बात है कि कार्बन टैक्स जैसे सुझाव विकासशील देशों के हितों के लिए प्रतिकूल रहे हैं क्योंकि पूर्व में हुए कार्बन उत्सर्जन में इन देशों की काफी कम भागीदारी रही है। ‘कार्बन टैक्स’ या ‘कैप ऐंड ट्रेड’ में प्रत्येक देश के लिए उसके मौजूदा उत्सर्जन के आधार पर कोटा तय किया जाता है।

दूसरी तरफ, विकसित देशों का मानना है कि विकासशील देशों में हानिकारक गैसों का उत्सर्जन लगातार बढ़ रहा है और इससे पहले से ही वायुमंडल में मौजूद हानिकारक गैसों की मात्रा और बढ़ जाएगी।

भारत सालाना उत्सर्जन के बजाय संचयी उत्सर्जन पर ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास कर सकता है। 1990 से 2021 के बीच लगभग 862 गीगाटन (जीटी) कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन हुआ है। वर्ष 1990 को संदर्भ वर्ष के रूप में माना जाता है क्योंकि सभी देश रियो सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन के खतरे के प्रति सचेत हुए थे। सालाना उत्सर्जन पर ध्यान हमें बिना वजह खुशफहमी में रखता है।

उदाहरण के लिए अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) के टिकाऊ विकास परिदृश्य के अनुमान के अनुसार 2050 में वैश्विक उत्सर्जन सालाना 10 जीटी रह सकता है और 2021 में 33 जीटी के स्तर से कमी एक उपलब्धि जान पड़ती है। मगर इसमें कमी आने के बावजूद 1990 से 2050 तक संचयी उत्सर्जन 1,400 जीटी रह सकता है। यह 2017 के स्तर का लगभग दोगुना होगा।

यह दर्शाता है कि हमें कितनी तेज गति के साथ कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन कम करने की आवश्यकता है। चूंकि, वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी का कारण वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों की मौजूदगी है इसलिए वित्त पोषण से जुड़ी जिम्मेदारी भी इससे जुड़ी होनी चाहिए।

वैश्विक वायुमंडल इन गैसों के जमा होने का स्थान है इसलिए इसके लिए उत्सर्जन करने वाले देशों के लिए शुल्क (पार्किंग फीस) का प्रावधान होना चाहिए। शुल्क या रेंट स्व-निर्धारित ढांचा होता है जिन्हें ज्यादातर अर्थशास्त्री तवज्जो देते हैं। 1990 से विभिन्न देशों द्वारा उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड गैस की प्रति टन मौजूदगी पर शुल्क या रेंट लेने के कई लाभ हो सकते हैं।

सभी देशों को इस पार्किंग फीस का भुगतान करना चाहिए और अनुसूची 1 (विकसित देश) और अनुसूची 2 (विकासशील) देशों के बीच कोई अंतर नहीं किया जाना चाहिए। इस समय उत्सर्जन कम करने या पूरी तरह रोकने के लिए किसी तरह के प्रोत्साहन की व्यवस्था नहीं है। मगर इस पर आने वाले व्यय के एवज में कुछ रियायत तो अवश्य दी जा सकती है।

इस रियायत की गणना कैसे की जाए इसके लिए दुनिया के देशों के बीच आपसी सहमति होनी चाहिए और विश्वसनीय ऑडिट होना चाहिए। अगर प्रति टन कार्बन डाइऑक्साइड के लिए 1.0 डॉलर पार्किंग फीस ली जाए तो दुनिया भर में सालाना 900 अरब डॉलर जुटाए जा सकते हैं। इसका यह भी मतलब होगा कि चीन 189 अरब डॉलर, अमेरिका 166 अरब डॉलर और भारत 42 अरब डॉलर रकम का सालाना भुगतान करेंगे।

मगर ऐसे किसी प्रस्ताव पर वैश्विक सहमति इस बात पर निर्भर करेगी कि संग्रहित किए गए इस शुल्क का इस्तेमाल किस तरह होगा। इनका वितरण तीन वृहद लक्ष्यों के लिए किया जा सकता है। इन लक्ष्यों पर जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक सम्मेलनों और अन्य मंचों पर चर्चा की जा सकती हैः

1. इस रकम का एक हिस्सा, मान लें 80 से 90 प्रतिशत तक, प्रत्येक देश को स्थानीय स्तर पर उत्सर्जन में कमी, जलवायु अनुकूलन और बदलती परिस्थितियों में आवश्यक उपाय करने जैसी महत्त्वाकांक्षी गतिविधियों पर आए खर्च की भरपाई के लिए लौटाया जा सकता है। मगर इसके लिए सर्वसम्मति से एक ठोस आकलन विधि की आवश्यकता होगी।

2. एक निश्चित हिस्सा जीसीएफ में जाना चाहिए। इस रकम का इस्तेमाल उन गरीब देशों की मदद में किया जाना चाहिए जो जलवायु परिवर्तन से अधिक प्रभावित होंगे।

3. एक छोटा हिस्सा नवाचार को सहयोग देने के लिए दिया जा सकता है। आपदा से संयुक्त रूप से निपटने, वैश्विक स्तर पर चुनौतियों से लड़ने की क्षमता विकसित करने और शहरी, कृषि एवं खाद्य क्षेत्रों में क्षमता में इजाफा किया जा सकता है। इसके बाद करीब 100 अरब डॉलर रकम बच जाएगी जो बहुपक्षीय वित्तीय संस्थानों को दी जा सकती है। ये संस्थान इस रकम की मदद से जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपायों के लिए ब्याज दरों में रियायत एवं सस्ती दरों पर आर्थिक संसाधन मुहैया करा पाएंगे।

चार प्रतिशत की रियायती दर पर प्रति टन कार्बन डाइऑक्साइ के लिए 1 डॉलर की सालाना पार्किंग फीस प्रति टन कार्बन डाइऑक्साइड के लिए 25 डॉलर कार्बन टैक्स के बराबर है। इस समय विभिन्न शोधकर्ताओं ने 75 से 150 डॉलर कार्बन टैक्स का सुझाव दिया है।

4. पार्किंग फीस के जरिये जुटाई गई रकम बड़ी लग सकती है। मगर जब अक्षय ऊर्जा की तरफ उठाए जाने वाले कदमों, जलवायु अनुकूलन और प्रतिकूल प्रभावों से निपटने के लिए किए गए उपायों पर किए जाने वाले खर्च की तुलना करें तो यह (पार्किंग फीस) अधिक नहीं हैं। विकसित एवं विकासशील देशों ने 2022 में सौर एवं पवन ऊर्जा में लगभग 340 अरब डॉलर निवेश किए हैं।

5. ग्रिड, नाभिकीय, परमाणु, भंडारण आदि पर 2023 में 1.7 लाख करोड़ डॉलर का अनुमानित निवेश हो सकता है। इसके अलावा जलवायु परिवर्तन के कारण हानि एवं क्षति अरबों डॉलर रकम गटक सकती है। लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स के अनुमान के अनुसार हानि एवं क्षति से 2030 में विकासशील देशों को 290-580 अरब डॉलर का नुकसान पहुंचा सकती है। वास्तव में हमें काफी अधिक पार्किंग फीस की जरूरत है मगर पहले कम फीस के साथ शुरुआत करते हैं और इसी दौरान जलवायु वित्त के लिए लेखा प्रणाली भी विकसित करने की दिशा में काम किया जा सकता है।

अगर दुनिया जलवायु परिवर्तन के खतरे से निपटने के लिए वाकई गंभीर है तो औद्योगिक देशों को अपने यहां उत्सर्जन कम करने, जलवायु अनुकूलन एवं प्रतिकूल प्रभाव खत्म करने के लिए आवश्यक रकम जुटाने का प्रयास तेज करना चाहिए और विकासशील देशों को भी वित्त मुहैया करना चाहिए। जैसा कि कॉप28 के नामित अध्यक्ष ने 12 नवंबर को कहा कि इसके लिए जलवायु वित्त के लिए एक नए ढांचे की आवश्यकता होगी।

नोटः इस स्तंभ में केवल कार्बन डाइऑक्साइड गैस पर विचार किया गया है, न कि सभी ग्रीन हाउस गैसों पर। इसका कारण यह है कि कार्बन डाइऑक्साइड के आंकड़े अधिक विश्वसनीय होते हैं और वायुमंडल में इनकी अवधि लगभग 100 वर्षों की होती है जबकि मीथेन की अवधि लगभग 12 वर्ष होती है।

*(लेखक इंटीग्रेटेड रिसर्च ऐंड ऐक्शन फॉर डेवलपमेंट, नई दिल्ली में क्रमशः चेयरमैन और कार्यकारी निदेशक हैं)

First Published - November 23, 2023 | 9:13 PM IST

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