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Editorial: सामाजिक सुरक्षा की कीमत

भारत में फ्रीबी राजनीति

Last Updated- June 16, 2023 | 11:11 PM IST
Startup valuation cut by foreign investors

आधे-अधूरे आर्थिक सुधारों के कारण पूर्वी एशियाई देशों की तरह वृद्धि हासिल न होने और विनिर्माण, वाणिज्यिक निर्यात तथा रोजगार आदि क्षेत्रों में सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद पिछड़े होने के बीच अब राजनेताओं के मन में बड़ा विचार यह आया है कि मूल्य सब्सिडी और नकद भुगतान के जरिये वित्तीय हस्तांतरण की पुरानी परखी हुई तरकीब को पुन: अपनाया जाए। वे इसे लेकर इसलिए उत्साहित हैं कि बार-बार चुनावों के समय ऐसा करना कारगर सिद्ध हुआ है।

यह तरीका अपनाकर पहली जीत शायद द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम (द्रमुक) ने सन 1967 में तत्कालीन मद्रास राज्य में हुए चुनावों में हासिल की थी। उस वक्त उसने एक रुपये की दर पर एक निश्चित मात्रा में चावल देने का वादा किया था। यह वादा राजधानी के बाहर पूरा नहीं हो सका क्योंकि यह आर्थिक दृष्टि से व्यावहारिक नहीं था।

द्रमुक से अलग होकर अपनी पार्टी बनाने के बाद एमजी रामचंद्रन ने विद्यालयों में नि:शुल्क मध्याह्न भोजन के सीमित कार्यक्रम को बहुत व्यापक पैमाने पर लागू किया। इससे जुड़े कई लाभ थे: पोषण स्तर में सुधार, विद्यालयों में उपस्थिति में सुधार और इस तरह साक्षरता में सुधार तथा जन्म दर में कमी। अब यह एक देशव्यापी कार्यक्रम बन चुका है। सन 1983 में आंध्र प्रदेश में एन टी रामा राव ने द्रमुक से सीख लेते हुए दो रुपये प्रति किलो चावल देने की घोषणा करते हुए विधानसभा चुनावों में बेहतरीन जीत दर्ज की।

हाल के वर्षों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) बड़े वादों को पूरा कर पाने में नाकाम रही है- उदाहरण के लिए किसानों की आय दोगुनी करना या अर्थव्यवस्था को पांच लाख करोड़ डॉलर का बनाना। यही वजह है कि उसने कल्याणकारी पैकेज पर ध्यान केंद्रित किया: किसानों को नकद भुगतान, नि:शुल्क खाद्यान्न, नि:शुल्क शौचालय, आवास के लिए सब्सिडी, नि:शुल्क चिकित्सा बीमा आदि।

परंतु अन्य दलों द्वारा ऐसे कदमों को वह ‘रेवड़ी’ करार देती है। ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना पेश करने वाली कांग्रेस भी घरेलू उपभोक्ताओं के एक खास हिस्से को नि:शुल्क बिजली देने के मामले में आम आदमी पार्टी का अनुसरण कर रही है।

कर्नाटक में हाल में संपन्न विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने हर बेरोजगार डिप्लोमाधारक/स्नातक को 1,500/3,000 रुपये और हर परिवार की महिला मुखिया को 2,000 रुपये प्रतिमाह तथा नि:शुल्क बिजली और अनाज देने का वादा किया। अन्य स्थानों पर पार्टियां मुफ्त टीवी, स्मार्ट फोन और लैपटॉप, सोना, पालतू पशु, पंखे और साइकिलें आदि दे रही हैं।

राज्य दर राज्य तथा लोकसभा के स्तर पर भी जब चुनावी नतीजों को देखते हैं तो पता चलता है कि जनता इन पर मुहर लगाती है। अगले दौर के विधानसभा चुनावों में हमें और अधिक कल्याणकारी वादे और नि:शुल्क उपहार देखने को मिलेंगे।

व्यापक रुख ऐसा प्रतीत होता है मानो अगर अर्थव्यवस्था पर्याप्त रोजगार नहीं तैयार कर पा रही है और अगर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा क्षेत्र कहीं पीछे छूट जा रहा है तो चुनाव जीतने की राह मुफ्त उपहारों और नकदी स्थानांतरण से ही निकलती है। इसके प्रतिवाद में यही कहा जा सकता है कि ये रोजगार, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और अच्छी स्वास्थ्य सेवाओं का बहुत खराब स्थानापन्न हैं।

परंतु अगर राज्य ये सेवाएं नहीं दे पा रहा है तो कल्याण योजनाएं अवश्यंभावी हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था आर्थिक मुश्किलों और सामाजिक अशांति को इसी तरह ढकती है। यह दलील भी दी जा सकती है कि नि:शुल्क अनाज और चिकित्सा बीमा, रोजगार तैयार करने के लिए सार्वजनिक कामों, बुजुर्गों-बेरोजगारों आदि को नकदी हस्तांतरण, बिजली-घरेलू गैस तथा घर जैसी जरूरी वस्तुओं को रियायती दर पर उपलब्ध कराने जैसे कदमों के साथ अनियोजित तरीके से एक सामाजिक सुरक्षा ढांचा तैयार करने की दिशा में बढ़ रहा है।

इसकी शिकायत भी कौन कर सकता है? एक ऐसी अर्थव्यवस्था में जहां अभी भी गरीबी मौजूद है और असमानता बढ़ी है और (जैसा कि अमेरिकी दार्शनिक थॉरो ने 19वीं सदी के मध्य कहा था) ‘अधिकांश लोग खासी निराशा का जीवन जीते हैं, वहां जाहिर तौर पर एयर इंडिया, सरकारी दूरसंचार कंपनियों और सरकारी बैंकों के घाटे की भरपाई पर हजारों करोड़ रुपये व्यय करने के बजाय ऐसी कल्याणकारी व्यवस्था पर खर्च को प्राथमिकता भी मिलनी चाहिए।

मुश्किल केवल धन की है। अमीर देश भी अब कल्याण योजनाओं पर व्यय में आर्थिक दिक्कत महसूस कर रहे हैं। अमीर दिल्ली मुफ्त बिजली का बोझ सह सकती है लेकिन क्या कर्ज ग्रस्त पंजाब ऐसा कर सकता है? प्रधानमंत्री ने ‘रेवड़ियों’ पर सवाल उठाते हुए जो सवाल उठाया था वह वाजिब है।

उन्होंने पूछा था कि क्या ये सभी मुफ्त तोहफे एक आधुनिक अर्थव्यवस्था के लिए जरूरी अधोसंरचना निवेश की कीमत पर दिए जा रहे हैं? दूसरी तरह से देखें तो क्या भारत पर्याप्त उत्पादक अर्थव्यवस्था तैयार कर रहा है जो इतने कर जुटा सके कि उनसे इन कल्याण योजनाओं की भरपाई हो सके? जवाब यह है कि बीते तीन दशक में प्रति व्यक्ति आय चार गुना होने के बाद भी कर-जीडीपी अनुपात में खास सुधार नहीं हुआ है। क्या हम बस सरकारी कर्ज बढ़ा रहे हैं, जिसकी भरपाई हमारे कर राजस्व का 40 फीसदी हिस्सा निगल लेती है? आज केंद्रीय राजनीतिक-अर्थव्यवस्था के प्रश्न का निराकरण करना जरूरी है। नीति आयोग या किसी निजी थिंक टैंक को इस दिशा में पहल करनी चाहिए।

First Published - June 16, 2023 | 11:11 PM IST

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