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जिंदगीनामा: सीईओ तैयार करने में क्यों पिछड़ रहा है भारत?

परिवार फोकस्ड मैनेजमेंट और पेशेवर सोच की कमी के कारण भारतीय कंपनियां वैश्विक स्तर पर पीछे, जबकि स्टार्टअप्स में नई सोच को मिल रहा है बढ़ावा।

Last Updated- January 15, 2025 | 11:36 PM IST
Google CEO Sundar Pichai

दिग्गज कंपनियों जैसे गूगल (अल्फाबेट) और माइक्रोसॉफ्ट के भारतीय मूल के मुख्य कार्याधिकारी (सीईओ) सुंदर पिचाई और सत्य नडेला अक्सर यहां आते रहते हैं। उनकी भारत यात्रा से साथ कई बातें जुड़ी रहती हैं मगर उनमें एक खास बात यह है कि वे देश के मध्यम वर्ग के लोगों को गौरवान्वित महसूस करने का मौका देते हैं। अल्फाबेट के पिचाई और माइक्रोसॉफ्ट के नडेला दोनों ही भारत में संसाधन के रूप में मानव पूंजी की बेहद कमी का विनम्रता से जिक्र करते हैं। नडेला ने हाल में अपने भारत दौरे पर कहा, ‘इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जो भारत की मानव पूंजी का लाभ नहीं उठा रहे वे होड़ ही नहीं करना चाहते।’

नडेला के इस कथन को कुछ ही दिनों में अमेरिका की सत्ता संभालने जा रहे डॉनल्ड ट्रंप के लिए बेहद जरूरी संदेश माना जा सकता है। नडेला कहना चाह रहे होंगे कि नई सरकार को एच-1बी वीजा नियमों के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए क्योंकि सिलिकन वैली पिछले कई दशकों से भारतीय प्रतिभाओं को दम पर फलता-फूलता रहा है। नडेला के बयान की व्याख्या भारत में तेजी से उभरते वैश्विक क्षमता केंद्रों की बढ़ती अहमियत के रूप में भी की जा सकती है। इन केंद्रों के जरिये अमेरिकी कंपनियां सूचना-प्रौद्योगिकी (आईटी) क्षेत्र के होनहार एवं शिक्षित भारतीयों का भरपूर फायदा उठाती हैं और वह भी बेहद कम वेतन पर।

ऐसे सराहना करने वाले बयानों की व्याख्या आम तौर पर इसी तरह होती है। भारतीय मूल के कुछ सफल सीईओ दरअसल इस विषय पर ध्यान खींचना चाहते हैं कि भारतीय कंपनी जगत में नडेला, पिचाई या अन्य सफल पेशेवर एवं प्रबंधक तैयार क्यों नहीं हो पा रहे हैं। आखिर भारतीय कंपनियों में देश के शीर्ष इंजीनियरिंग एवं प्रबंधन संस्थानों ने निकले मेधावी लोगों की कमी तो नहीं है।

पिछले कुछ दशकों के दौरान भारतीय आर्थिक नीति की ढांचागत बंदिशों और अधिकारियों की लालफीताशाही जैसी समस्याओं पर काफी कुछ लिखा और कहा जा चुका है। ये तर्क एक सीमा तक ठीक भी लगते हैं। मगर बंदिशों में बांधने वाले उस प्रबंधन तंत्र के बारे में खुलकर नहीं बता पा रहे, जो भारतीय कंपनियों ने शायद खुद ही चुना है। जिस बात की बहुत कम चर्चा होती है वह है भारतीय कंपनियों में वाजिब मेधा-आधारित व्यवस्था नहीं होना।

भारत के सबसे बड़े कारोबारी प्रतिष्ठान परिवार नियंत्रित हैं और नीतियां तैयार करने वाला उनका प्रबंध तंत्र संस्थापक परिवार के भीतर ही रहता है। ऐसा नहीं है कि हमारे पास ऊर्जावान और शीर्ष स्तर के प्रबंधकों की कमी है। मगर संगठन के भीतर वरिष्ठों के मातहत काम करने की व्यवस्था (सीनियर रिपोर्टिंग स्ट्रक्चर) में प्रबंधन की नई सोच पनप ही नहीं पाती। इस व्यवस्था या ढांचे में कंपनी के मालिक के पुत्र, पुत्री, पति या पत्नी, भाई, भतीजे और दूसरे सगे-संबंधियों को ज्यादा अहमियत दी जाती है।

ध्यान देने वाली बात है कि जिन अमेरिकी कंपनियों की कमान इस समय भारतीय मूल के लोगों के हाथों में है, उनमें से कई कंपनियां किसी समय संस्थापकों के हाथों में ही थीं। इनमें गूगल से लेकर माइक्रोसॉफ्ट, एडोबी, पेप्सी, आईबीएम के नाम गिनाए जा सकते हैं। मगर कोई भी उन्हें भारत की सबसे बड़ी कंपनियों की तरह परिवार के हाथों चलने वाली कंपनी नहीं कहेगा। इनमें से ज्यादातर कंपनियों के संस्थापक एक समय के बाद बागडोर योग्य लोगों को हाथों में सौंपना शुरू कर देते हैं। इस तरह वे अपनी नई कंपनियों या स्टार्टअप को बाजार के तौर-तरीकों में ढाल देते हैं, प्रबंधन में पेशेवर मेधाओं को जगह देते हैं और प्रतिभा एवं नवाचार को बढ़ावा देने वाला माहौल तैयार करते हैं।

इससे समझ आ सकता है कि तेजी से उभरती और नई सोच वाली भारतीय कंपनियां स्टार्टअप क्षेत्र से ही क्यों आ रही हैं, जहां युवाओं को परिवार के प्रबंधन वाले घुटन भरे माहौल से बाहर आजादी से काम करने का मौका मिलता है। यह बात कंपनियों के निदेशक मंडल (बोर्ड) पर भी उतनी ही लागू होती है। पश्चिमी देशों में बोर्ड खराब प्रदर्शन करने वाले संस्थापकों या सीईओ को निकालने में (ऐपल, एचपी, याहू और उबर इसके अच्छे उदाहरण हैं) बिल्कुल हिचक नहीं दिखाते। मगर पुराने तरीके से चलने वाली किसी भी भारतीय कंपनी में प्रवर्तक या सीईओ को बाहर करने की हिम्मत आज तक कोई बोर्ड नहीं दिखा पाया है। उन लोगों के खिलाफ भी बोर्ड ने कोई कदम नहीं उठाया, जिनके कारनामे खुलकर सामने आ चुके हैं। फिर चाहे सत्यम हो या येस बैंक, जहां कंपनियों की कमान संस्थापक सीईओ के हाथों में थी और उन्हें हटाने के लिए खुद नियामकीय एजेंसियों को हरकत में आना पड़ा।

लेकिन ऐसा भी नहीं है कि भारतीय स्टार्टअप कंपनियों का प्रबंधन कौशल अनुकरणीय है। ग्लासडोर डॉट कॉम पर डाली गई टिप्पणियां और प्रतिक्रियाएं बताती हैं कि उनके भीतर कामकाजी माहौल किस कदर खराब और दमघोंटू है और अक्सर इसका कारण भी स्टार्टअप कंपनियों के संस्थापक ही होते हैं। मगर दो कारक शक्तिशाली-सीईओ को अधिकारों का दुरुपयोग करने से रोकते हैं। पहला, सह-संस्थापक आम तौर पर कुछ पेशेवर होते हैं या पुराने दोस्त होते हैं, जो नया कारोबार शुरू करने के लिए साथ आए होते हैं। उस सूरत में काम करने के लिए मेधा तो पहली शर्त होती ही है।

दूसरा, स्टार्टअप के लिए वेंचर कैपिटल (वीसी) और प्राइवेट इक्विटी (पीई) से पूंजी जुटाई जाती है, इसलिए उन पर लगातार नजर रखी जाती है। अंतर साफ नजर आता भी है। हाउसिंग डाट कॉम के निदेशक मंडल ने 2015 में संस्थापक सदस्यों में से एक राहुल यादव को उनके प्रतिकूल व्यवहार के कारण बर्खास्त कर दिया था, जबकि राहुल उस समय कंपनी के सीईओ थे। 2022 में भारतपे के सह-संस्थापक अशनीर ग्रोवर को भी कंपनी के बोर्ड ने लापरवाही और अनियमितता बरतने के आरोप में बर्खास्त कर दिया।

अब जरा एडटेक कंपनी बैजूस पर विचार कीजिए, जिसने एकाएक बड़ी ऊंचाइयां छू ली थीं। अब यह कंपनी कर्ज के बोझ में दब चुकी है और कानूनी विवादों तथा दिवालिया प्रक्रिया का सामना कर रही है। बैजूस हमेशा से परिवार के नियंत्रण वाली कंपनी ही रही, जिसे खुद संस्थापक, उनकी पत्नी और भाई चला रहे हैं। वे लोग निदेशकों की सलाह को भी ताक पर रख रहे थे और जब इस बात का अहसास स्वतंत्र निदेशकों को हुआ तो उन्होंने इस्तीफा दे दिया। मगर ज्यादातर भारतीय कंपनियों के बोर्ड में ऐसा नहीं दिखता। उनमें स्वतंत्र निदेशक प्रवर्तकों पर निर्भर होते हैं, उनके साथ अच्छे संबंध बनाकर रखते हैं और उनकी योजनाओं पर बिना किसी हिचकिचाहट के मुहर लगा देते हैं।

किसी भी देश को शिक्षित और सेहतमंद श्रमबल की जितनी जरूरत है उतनी ही जरूरत ‘मानव पूंजी’ संसाधन की भी है और रचनात्मक तथा नई सोच रखने वाला प्रबंधन इस संसाधन की कुंजी है। भारत में दोनों की ही कमी है और संभवतः यही कारण है कि वैश्विक कारोबारी पटल पर भारतीय कंपनियों का रुतबा बहुत कम है।

First Published - January 15, 2025 | 11:32 PM IST

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