facebookmetapixel
48,000 करोड़ का राजस्व घाटा संभव, लेकिन उपभोग और GDP को मिल सकती है रफ्तारहाइब्रिड निवेश में Edelweiss की एंट्री, लॉन्च होगा पहला SIFएफपीआई ने किया आईटी और वित्त सेक्टर से पलायन, ऑटो सेक्टर में बढ़ी रौनकजिम में वर्कआउट के दौरान चोट, जानें हेल्थ पॉलिसी क्या कवर करती है और क्या नहींGST कटौती, दमदार GDP ग्रोथ के बावजूद क्यों नहीं दौड़ रहा बाजार? हाई वैल्यूएशन या कोई और है टेंशनउच्च विनिर्माण लागत सुधारों और व्यापार समझौतों से भारत के लाभ को कम कर सकती हैEditorial: बारिश से संकट — शहरों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के लिए तत्काल योजनाओं की आवश्यकताGST 2.0 उपभोग को बढ़ावा दे सकता है, लेकिन गहरी कमजोरियों को दूर करने में कोई मदद नहीं करेगागुरु बढ़े, शिष्य घटे: शिक्षा व्यवस्था में बदला परिदृश्य, शिक्षक 1 करोड़ पार, मगर छात्रों की संख्या 2 करोड़ घटीचीन से सीमा विवाद देश की सबसे बड़ी चुनौती, पाकिस्तान का छद्म युद्ध दूसरा खतरा: CDS अनिल चौहान

शोध और विकास में क्यों पिछड़ जाता है निजी क्षेत्र

ताइवान (3.6%), दक्षिण कोरिया (4.8 %), चीन (2.4 %) और यहां तक कि ब्राजील (1.2 %) की तुलना में भारत अपने जीडीपी का केवल 0.65 फीसदी शोध एवं विकास पर खर्च करता है।

Last Updated- September 10, 2024 | 10:02 PM IST
भारत का शोध एवं विकास पर खर्च चीन, अमेरिका की तुलना में बहुत कम, Economic Survey 2024: India's expenditure on research and development is much less than China, America

संरक्षित बाजार और मजबूत वृद्धि के अनुमानों की वजह से शोध एवं विकास में इजाफा करने को समुचित प्रोत्साहन नहीं मिल पाता। बता रहे हैं लवीश भंडारी

भारत में इस बात पर लगभग आम सहमति है कि देश को शोध एवं विकास के क्षेत्र में बहुत अधिक काम करने की आवश्यकता है ताकि हम तेज और प्रभावी ढंग से विकास हासिल कर सकें। इस लक्ष्य के बावजूद अधिकांश लोग इस बात पर भी सहमत हैं कि शोध एवं विकास पर हम बहुत कम राशि खर्च करते हैं।

बार-बार दोहराए जाने वाले आंकड़े बताते हैं कि ताइवान (3.6 फीसदी), दक्षिण कोरिया (4.8 फीसदी), चीन (2.4 फीसदी) और यहां तक कि ब्राजील (1.2 फीसदी) की तुलना में भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का केवल 0.65 फीसदी शोध एवं विकास पर खर्च करता है।

यकीनन यह सही है कि उच्च प्रति व्यक्ति आय वाले देश शोध एवं विकास पर अधिक खर्च करते हैं। भारत की प्रति व्यक्ति आय इन सभी देशों से कम है इसलिए अगर हम भारत के शोध एवं विकास संबंधी प्रदर्शन का आकलन उसकी आय के हिसाब से करें तो शायद प्रदर्शन उतना बुरा नहीं। कम आय वर्ग को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि शायद शोध एवं विकास पर हमारा वर्तमान व्यय इस आय वर्ग वाले देशों के वैश्विक औसत के आसपास है।

परंतु यह पर्याप्त नहीं है। भारत को शोध एवं विकास में और प्रयास करने होंगे और इसका आकलन इस बात से करना होगा कि हम कहां पहुंचना चाहते हैं। अगर अगले दो-तीन दशकों में आय चार गुना हो जाती है और साथ ही हम समावेशन और टिकाऊपन की चुनौतियों को भी हल कर पाते हैं तो नवाचार की भूमिका अहम होगी।

इस बात को ध्यान में रखते हुए सरकार शोध एवं विकास पर व्यय बढ़ाने का प्रयास कर रही है। 2010 के दशक से ही इस क्षेत्र में किए जाने वाले व्यय में सरकार की हिस्सेदारी लगातार बढ़ रही है। फिलहाल देश के कुल शोध एवं विकास व्यय में सरकार की हिस्सेदारी 60 फीसदी है। परंतु शोध एवं विकास से जुड़ी अधिकांश सरकारी एजेंसियां अभी रक्षा, अंतरिक्ष, कृषि और परमाणु शोध पर केंद्रित हैं।

इस क्षेत्र में होने वाली फंडिंग का अहम हिस्सा अकादमिक संस्थानों को जाता है। दूसरे शब्दों में सुरक्षा और संबंधित क्षेत्र (खाद्य सुरक्षा समेत) सरकार के शोध एवं विकास में अहम हिस्सेदार हैं। निजी क्षेत्र के दबदबे वाली अर्थव्यवस्था में शोध एवं विकास के नवाचार और विकास घटक में निजी क्षेत्र की अहम हिस्सेदारी होनी चाहिए।

देश के कुल शोध एवं विकास में कारोबारी क्षेत्र की हिस्सेदारी 2012-13 के 45 फीसदी से कम होकर 2020-21 में 40 फीसदी रह गया था। इससे ताजा आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। देश के कारोबार शोध एवं विकास में अधिक व्यय क्यों नहीं करते? इसके बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है और तर्को में समुचित प्रोत्साहनों की कमी, सरकारी लाभों तक पहुंचने में कठिनाइयां और देश में अनुसंधान और विकास संस्कृति का अभाव शामिल हैं।

प्रोत्साहन की कमी को लेकर यकीनन तर्क दिए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए चुनिंदा सूक्ष्म, लघु और मझोले यानी एमएसएमई उपक्रमों में अपने बौद्धिक संपदा अधिकारों के बचाव की भावना होती है क्योंकि देश की अदालतों में अक्सर देरी होती है और शोध एवं विकास में मौजूदा 100 फीसदी की कर कटौती से अहम लाभ नहीं हासिल होते। कागजी कार्रवाई और प्रमाणन लागत सहित कई दिक्कतों की वजह से दिए जाने वाले प्रोत्साहन तक पहुंच बना पाना मुश्किल होता है।

परंतु ये मुद्दे अपेक्षाकृत छोटे हैं। कंपनियों द्वारा शोध एवं विकास का काम नहीं करने की वजह सरकारी प्रोत्साहन की कमी नहीं बल्कि प्रतिस्पर्धी ताकतों की अनुपस्थिति हो सकती है। शोध एवं विकास व्यय बढ़ाने के हिमायती आमतौर पर भारत की तुलना विकसित देशों से करते हैं।

या उन देशों से जिनका वैश्विक प्रतिस्पर्धा में बेहतर प्रदर्शन हो मसलन ताइवान, दक्षिण कोरिया, चीन आदि। परंतु इंडोनेशिया (0.28 फीसदी), मेक्सिको (0.3 फीसदी), दक्षिण अफ्रीका (0.6 फीसदी) जैसे देश शोध एवं विकास पर जीडीपी का बहुत कम हिस्सा व्यय करते हैं। ये सभी देश संसाधन संपन्न हैं। यानी केवल प्रतिव्यक्ति आय नहीं बल्कि आर्थिक ढांचे और प्रतिस्पर्धी हालात का सामना भी शोध एवं विकास व्यय को प्रभावित करता है।

जब घरेलू बाजार वैश्विक कंपनियों के लिए खुले हों तब प्रतिस्पर्धा के लिए बेहतरीन अवसर होते हैं। उच्च टैरिफ और गैर टैरिफ गतिरोध जैसे संरक्षणवादी कदमों से न केवल घरेलू कीमतें बढ़ती हैं बल्कि प्रतिस्पर्धा को भी क्षति पहुंचती है। साथ ही इससे घरेलू कंपनियों का शोध एवं विकास की ओर रुझान भी कम होता है। अगर इन्हीं घरेलू कंपनियों को वैश्विक बाजारों में प्रतिस्पर्धा करनी होती तो उनके पास शोध एवं विकास व्यय बढ़ाने के सिवा कोई विकल्प नहीं होता क्योंकि तब उनको वैश्विक स्तर के उत्पाद बनाने होते, लागत कम करनी होती या गुणवत्ता सुधारनी होती।

परंतु बड़ी भारतीय कंपनियां, खासकर विनिर्माण की कंपनियां वैश्विक उत्पाद बाजार में बहुत छोटी हैसियत रखती हैं। आईटी क्षेत्र में जहां भारतीय कंपनियों की बड़ी छाप है वहां भी बड़ी कंपनियां कारोबारी सेवा क्षेत्र में काम कर रही हैं जहां आंतरिक शोध एवं विकास के लाभ सीमित हैं।

सवाल यह भी है कि क्या कंपनियां नए बाजारों में जाने के लिए शोध एवं विकास तथा उससे उत्पन्न नवाचार का इस्तेमाल नहीं कर सकतीं? 1970 और 1980 के दशक में जापान ने छोटी कारों के इस्तेमाल में जो कामयाबी हासिल की वह इस बात का उदाहरण है कि कैसे घरेलू नवाचार का इस्तेमाल नए बाजारों में प्रवेश के लिए किया गया। अन्य देशों मसलन दक्षिण कोरिया आदि के प्रमाण दिखाते हैं कि उत्पाद क्षेत्र में नवाचार तभी कारगर होता है जब संबंधित कंपनी पहले से वैश्विक पहुंच रखती हो।

परंतु जब देश में अधिकांश औद्योगिक क्षेत्रों में कई कंपनियां हैं तो घरेलू प्रतिस्पर्धा के कारण शोध एवं विकास क्यों नहीं हो रहा? इसके दो जवाब हो सकते हैं। पहला यह कि घरेलू प्रतिस्पर्धा उतनी अधिक नहीं है और दूसरा समस्या सांस्कृतिक है। भारतीय उपक्रम अदूरदर्शी होते हैं और शोध एवं विकास पर ध्यान देने के बजाय मौजूदा बाजारों पर ध्यान देते हैं।

दोनों ही दलीलों को गहन विश्लेषण की जरूरत है। बड़ी कंपनियों का मुनाफा या तो स्थिर रहा है या फिर लंबे समय से बढ़ रहा है। भविष्य में मुनाफे की संभावना भी अच्छी दिखती है। ऐसे में शोध एवं विकास में अधिक निवेश के लिए कंपनियों के पास उतनी अधिक प्रोत्साहन नहीं है क्योंकि संरक्षित भारतीय घरेलू बाजारों में उच्च वृद्धि के चलते अच्छे मुनाफे का अनुमान रहता है।

इससे यह भी समझा जा सकता है कि आखिर क्यों मुनाफे में चलने वाली और नकदी संपन्न भारतीय कंपनियां अन्य देशों में बहुत कम निवेश करती हैं क्योंकि देश में मुनाफा और वृद्धि दोनों अधिक हैं।

ऐसे में कथित सांस्कृतिक दलील एक आर्थिक दलील है। बड़ी भारतीय कंपनियों के शोध एवं विकास में निवेश करने के लिए फिर भी बहुत कम प्रोत्साहन है क्योंकि वृद्धि अनुमान और संरक्षित बाजार ऐसे हालात बनाते हैं जहां शोध एवं विकास में धन लगाना समझदारी नहीं होता। दूसरे शब्दों में केवल शोध एवं विकास प्रोत्साहन से नवाचार और उत्पादकता में इजाफा नहीं होगा बल्कि अहम प्रतिस्पर्धी ताकतों की मौजूदगी और नवाचार की जरूरत भी शोध एवं विकास को गति देता है।

(लेखक सीएसईपी के अध्यक्ष हैं। लेख में निजी विचार हैं)

First Published - September 10, 2024 | 9:52 PM IST

संबंधित पोस्ट