पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च ने राज्य सरकारों की वित्तीय हालत को लेकर एक व्यापक रिपोर्ट पेश की है। सच तो यह है कि राज्य सरकारें कुल सरकारी व्यय के दो-तिहाई हिस्से के लिए जिम्मेदार होती हैं लेकिन उनकी वित्तीय सेहत पर सार्वजनिक बहस में पर्याप्त चर्चा नहीं होती। ऐसे में इस प्रकार की रिपोर्ट राज्य सरकारों की वित्तीय हालत से संबंधित आम समझ को बेहतर बनाने में मदद करती हैं।
उम्मीद के मुताबिक ही रिपोर्ट राज्यों की वित्तीय स्थिति को लेकर कुछ कमियों को रेखांकित करती है जिन पर यहां चर्चा करना उपयोगी होगा। उदाहरण के लिए यह स्पष्ट होता है कि वर्ष 2023-24 में राज्यों ने अपनी राजस्व प्राप्तियों का 60 फीसदी से अधिक वेतन, पेंशन, सब्सिडी और ब्याज भुगतान जैसे मदों पर खर्च किया। समग्र स्तर पर राज्यों ने सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) का 0.4 फीसदी राजस्व घाटा भी दर्ज किया, जिसका अर्थ है कि वे बार-बार होने वाले खर्चों को पूरा करने के लिए उधार ले रहे हैं। प्रतिबद्ध व्यय का उच्च स्तर विकासात्मक कार्यों को करने की राज्य सरकारों की क्षमता को सीमित करता है।
राज्यों के पूंजीगत व्यय को केंद्र सरकार की विशेष सहायता योजना से मदद मिल रही है। इस योजना के तहत राज्यों को 50 वर्ष का ब्याज रहित ऋण दिया जा रहा है। वर्ष 2020-21 से 2025-26 (11 अगस्त 2025 तक) तक राज्यों को इस योजना के तहत 4 लाख करोड़ रुपये से अधिक का ऋण दिया गया। विश्लेषण बताता है कि अपने स्रोतों से राज्यों का पूंजीगत व्यय सपाट बना रहा और बढ़ोतरी को केंद्र सरकार से सहायता मिली।
यह एक आदर्श स्थिति नहीं है, क्योंकि यदि केंद्र सरकार द्वारा दी जा रही सहायता को बंद कर दिया गया ( जिसे जारी रखना उसकी बाध्यता नहीं है) तो इससे राज्य सरकारों के पूंजीगत व्यय में तेज गिरावट आ सकती है, जिसका कुल आर्थिक वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। रिपोर्ट में उजागर किया गया एक और महत्त्वपूर्ण पहलू है राज्यों के बीच बढ़ती असमानता।
जिन राज्यों की प्रति व्यक्ति आय अधिक है, वे अधिक राजस्व जुटा पाते हैं और इस कारण उनके पास विकास पर खर्च करने की क्षमता भी अधिक होती है। यह प्रवृत्ति समृद्ध और गरीब राज्यों के बीच की खाई को और चौड़ा करती रहेगी, जिसके आर्थिक ही नहीं बल्कि सामाजिक प्रभाव भी हो सकते हैं। इस बढ़ती असमानता को दूर करना नीति-निर्माताओं के लिए एक गंभीर चुनौती होगा।
एक अन्य पहलू जिस पर उचित नीतिगत ध्यान दिया गया है वह है महिलाओं को बिना शर्त नकदी हस्तांतरण। पीआरएस द्वारा जुटाए गए आंकड़े बताते हैं कि ऐसी सहायता देने वाले राज्यों की तादाद वर्ष2022-23 के 2 से बढ़कर 2025-26 में 12 हो गई। वर्ष 2025-26 में राज्यों ने कुल मिलाकर 1.68 लाख करोड़ रुपये की राशि या जीएसडीपी का करीब 0.5 फीसदी इस मद में यानी महिलाओं को देने में खर्च किया। ऐसी सहायता देने वाले करीब आधे राज्यों को इस वर्ष राजस्व घाटा होने की उम्मीद है। वास्तव में वे ऋण लेकर पैसे बांट रहे हैं। ऐसी योजनाओं की राजनीतिक सफलता को देखते हुए यह मानना उचित होगा कि आने वाले समय में और भी राज्य इसे अपनाएंगे। प्रतिस्पर्धी राजनीति के कारण समय के साथ आवंटित होने वाली राशि भी बढ़ती जाएगी।
बिना शर्त हस्तांतरण अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग अर्थ भले समेटे हो लेकिन राजनीतिक दलों के लिए लाभ स्पष्ट है। कहा जाता है कि इससे सामाजिक आर्थिक हालात में सुधार हो रहा है। परंतु यह बात बहस तलब है कि क्या बजट की बाधाओं से जूझ रहे देश में सामाजिक आर्थिक हालात सुधारने का यही श्रेष्ठ तरीका है। स्पष्ट समझ की मदद से बजटीय संसाधनों का आवंटन सुधारा जा सकता है। मार्च 2025 तक राज्यों पर कुल मिलाकर जीएसडीपी का 27.5 फीसदी कर्ज था।
एफआरबीएम समीक्षा समिति ने 2017 में अनुशंसा की थी कि राज्यों का कर्ज 20 फीसदी तक रहना चाहिए। इसके अलावा राज्य सरकारें सरकारी उपक्रमों द्वारा लिए गए ऋण की भी गारंटी देती हैं जो 2023-24 में जीएसडीपी का 4.2 फीसदी था। यह राज्यों की वित्तीय हालत के लिए एक जोखिम है। उल्लेखनीय है कि हिमाचल प्रदेश और पंजाब जैसे कुछ राज्य कुल आंकड़ों से कहीं अधिक गंभीर वित्तीय संकट में हैं और इन्हें अलग नीतिगत हस्तक्षेप की आवश्यकता हो सकती है।