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ऋण घटाने की दिशा में अस्पष्ट नीति आर्थिक प्रगति पर पड़ सकती है भारी

वर्ष 2018 में राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन (FRBM) अधिनियम में संशोधन कर इसमें ऋण और घाटे दोनों के लक्ष्य शामिल किए गए, बता रहे हैं राजेश कुमार

Last Updated- November 05, 2025 | 10:54 PM IST
Fiscal Deficit

वस्तु एवं सेवा कर दरों में कमी और उन्हें युक्तिसंगत बनाने का आर्थिक वृद्धि और कर संग्रह पर जो प्रभाव पड़ेगा उसका वित्त मंत्रालय को सावधानीपूर्वक अध्ययन करना होगा। खासतौर पर इसलिए क्योंकि वित्त मंत्रालय ने आगामी आम बजट की तैयारियां भी शुरू कर दी होंगी। हालांकि, वित्तीय बाजार और अन्य अंशधारक केवल इसी पहलू पर ध्यान नहीं दे रहे होंगे। अगले वित्त वर्ष से सरकार अलग राजकोषीय आधार अपनाने जा रही है। चूंकि इसके लिए वित्तीय बाजार की अपेक्षाओं को समायोजित करने की जरूरत है इसलिए आने वाले महीनों में कुछ व्यापक मुद्दों पर चर्चा करना आवश्यक है।

वर्ष 2024-25 के बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने यह घोषणा की थी कि 2026-27 से केंद्र सरकार का लक्ष्य वार्षिक राजकोषीय घाटा इस तरह रखने पर होगा कि सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की तुलना में सरकार के ऋण में गिरावट आए। गौरतलब है कि राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) अधिनियम में वर्ष 2018 में संशोधन कर इसमें ऋण और घाटे दोनों के लक्ष्य शामिल किए गए।

इसके तहत राजकोषीय घाटे को वर्ष2020–21 तक जीडीपी के 3 फीसदी तक लाने का लक्ष्य रखा गया था, जबकि केंद्र सरकार के ऋण को 2024–25 तक जीडीपी के 40 फीसदी तक सीमित करने का लक्ष्य था। हालांकि, यह लक्ष्य कोविड-19 महामारी के कारण बुरी तरह बाधित हुआ, जिससे राजकोषीय घाटा और सार्वजनिक ऋण दोनों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। फिर भी, इसके बाद सरकार ने इस दिशा में प्रशंसनीय सुधार किया है।

वर्ष2021-22 के बजट भाषण में वित्त मंत्री ने घोषणा की थी कि सरकार का इरादा 2025-26 तक राजकोषीय घाटे को कम करके जीडीपी के 4.5 फीसदी से नीचे लाने का है। सरकार इस वर्ष इस लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में बढ़ रही है। यह आसान नहीं था क्योंकि राजकोषीय घाटा 2020-21 में बढ़कर जीडीपी के 9.2 फीसदी तक जा पहुंचा था। इस दौरान आर्थिक परिदृश्य भी अनिश्चित था। यह बात भी ध्यान देने लायक है कि सुदृढ़ीकरण पूंजीगत व्यय के बढ़े हुए स्तर के साथ हासिल हुआ है। केंद्र सरकार का पूंजीगत व्यय 2019-20 के जीडीपी के 1.67 फीसदी से बढ़कर 2025-26 में जीडीपी के 3.14 फीसदी तक पहुंच गया। ऐसे में सरकार ने अपने वित्त का कारगार तरीके से प्रबंधन किया है।

बहरहाल, अगले वित्त वर्ष से होने वाले बदलाव को लेकर और अधिक स्पष्टता की आवश्यकता है। राजकोषीय आधार के प्रभावी होने के लिए उसे सरल तरीके से संप्रे​षित करने वाला यानी ल​क्षित जगहों तक असरकारी होना चाहिए। यद्यपि ऋण को राजकोषीय कानून में शामिल किया गया था लेकिन वार्षिक संचालन लक्ष्य राजकोषीय घाटा था जिसे एक निश्चित स्तर तक व्यवस्थित रूप से कम किया जाना था। वित्तीय बाजार और अन्य हितधारकों ने इस बात को अच्छी तरह समझा।

हालांकि ऋण को कम बनाए रखने का संप्रेषण उतना आसान नहीं है और इसका असर सरकारी बॉन्ड की कीमतों पर पड़ सकता है। फरवरी में बजट के साथ प्रस्तुत राजकोषीय नीति वक्तव्य में उल्लेख किया गया कि राजकोषीय घाटा इस तरह रखा जाएगा कि कुल ऋण घटते मार्ग पर रहे और मार्च 2031 तक जीडीपी के 50 फीसदी (1 फीसदी ऊपर या नीचे) के स्तर तक पहुंच सके। दस्तावेज में विभिन्न स्तरों की नॉमिनल जीडीपी वृद्धि और राजकोषीय समेकन की विभिन्न डिग्रियों के साथ संभावित परिदृश्यों को भी प्रस्तुत किया गया है।

उदाहरण के लिए, यदि नॉमिनल वृद्धि 11 फीसदी हो और राजकोषीय मजबूती हल्की हो, तो केंद्र सरकार का ऋण वर्तमान वर्ष के अनुमानित 56.1 फीसदी से घटकर मार्च 2031 तक जीडीपी का 50.1 फीसदी हो सकता है। हालांकि यदि नामिनल वृद्धि 10 फीसदी हो और समेकन कम ही रहे, तो ऋण घटकर जीडीपी का 52 फीसदी ही रहेगा।

स्पष्ट है कि यदि नॉमिनल वृद्धि और कम हो, तो स्थिति और जटिल हो जाएगी। वर्तमान वर्ष की पहली तिमाही में अर्थव्यवस्था की नॉमिनल वृद्धि केवल 8.8 फीसदी रही, और पूरे वर्ष की वृद्धि भी इसी स्तर के आसपास रहने की संभावना है। यदि ऐसी वृद्धि कुछ वर्षों तक जारी रहती है, तो 50 फीसदी ऋण लक्ष्य प्राप्त करने के लिए काफी सख्त राजकोषीय अनुशासन अपनाना पड़ सकता है।

इसका अर्थ यह है कि कई पहलू होंगे, जो संप्रेषण को कठिन बना सकते हैं। इसके अलावा, कई अन्य मुद्दों पर स्पष्टता और बहस की आवश्यकता है। पहले केंद्र सरकार के ऋण को घटाकर जीडीपी के 40 फीसदी तक लाने का लक्ष्य था, जबकि अब इसे मार्च 2031 तक लगभग 50 फीसदी तक रखने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। क्या अधिक ऋण स्तर सरकार की किसी संभावित आर्थिक झटके पर प्रतिक्रिया देने की क्षमता को सीमित कर देगा? या फिर मौजूदा राह पर चलते हुए राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 3 फीसदी या उससे कम तक करना, नीति निर्माण के लिए अधिक गुंजाइश उपलब्ध कराने में मददगार नहीं होगा?

इसके अलावा, वित्तीय बाजार सामान्य सरकारी ऋण को देखते हैं। ऐसे में इस संदर्भ में यह सवाल उठता है कि क्या राज्यों से भी इसी तरह की रूपरेखा अपनाने की अपेक्षा की जाएगी, जिसमें मध्यम अवधि में ऋण स्तर को लक्षित किया जाए? ऐसा करने के लिए विभिन्न राज्यों के लिए अलग-अलग लक्ष्य निर्धारित करने की आवश्यकता हो सकती है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सामान्य सरकारी ऋण घटता रहे।

आखिर में मध्यम अवधि में राजकोषीय घाटा किस स्तर पर स्थिर होने की उम्मीद है, इस पर स्पष्टता जरूरी है। यह विशेष रूप से अर्थव्यवस्था की वित्तीय क्षमता के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण है। पिछले कुछ वर्षों में विशुद्ध घरेलू वित्तीय बचत में गिरावट आई है। यदि अधिकांश बचत का उपयोग सामान्य सरकारी घाटे की भरपाई करने में होता है, तो इससे पूंजी की लागत प्रभावित हो सकती है और विदेशी बचत पर निर्भरता बढ़ सकती है।

विशेषकर तब जब निजी निवेश में दीर्घकालिक रूप से उभार होता है, जो उच्च दर से वृद्धि के लिए आवश्यक शर्त है। इस प्रकार, कई ऐसे मुद्दे हैं जिन पर नीति-निर्माताओं का ध्यान आवश्यक है। सरकार ने पिछले कई वर्षों में राजकोषीय मोर्चे पर सराहनीय कार्य किया है, और भविष्य की दिशा को लेकर कोई भी अस्पष्टता इन कठिनाई से अर्जित उपलब्धियों को जोखिम में डाल सकती है।

First Published - November 5, 2025 | 10:54 PM IST

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