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मौजूदा भू-राजनीतिक माहौल मंदी की भावना को मजबूत करता है लेकिन शेयर बाजार में विशुद्ध प्रवाह के शून्य होने की प्राथमिक वजह यह नहीं है। बता रहे हैं आकाश प्रकाश

Last Updated- August 31, 2025 | 10:58 PM IST
FPI
इलस्ट्रेशन- अजय मोहंती

विगत पांच वर्षों से भारत में सार्वजनिक इक्विटी यानी शेयर बाजारों में शुद्ध विदेशी निवेश शून्य रहा है। यह अवधि असाधारण रूप से लंबी है। इस वर्ष भी निवेश प्रवाह में 13 अरब डॉलर की गिरावट देखने को मिली। भारतीय शेयरों में विदेशी स्वामित्व पिछले 15 साल में सबसे निचले स्तर पर जा पहुंचा है। भारत अब एक ऐसा क्षेत्र बन गया है जहां सभी क्षेत्रीय, वैश्विक और उभरते बाजारों वाले फंड्स ने अपने निवेश को कम कर दिया है। दूसरी तरफ, पांच वर्ष की इस अवधि में घरेलू निवेश प्रवाह 185 अरब डॉलर से अधिक रहा है। जिस समय विदेशी निवेशकों की रुचि कम हो गई, उसी समय घरेलू निवेशक पहले से कहीं अधिक आशावादी और सक्रिय हो गए हैं।

विदेशी पूंजी की निवेश में रुचि घटने की क्या वजह हो सकती है? इसकी एक आंशिक वजह उभरते बाजारों की परिसंपत्तियों के प्रति घटती रुचि है। उभरते बाजारों की इक्विटी में निवेश करना पिछले कुछ वर्षों में बेहद निराशाजनक रहा है। इसने अमेरिका और वैश्विक इक्विटी की तुलना में काफी खराब प्रदर्शन किया है। यदि किसी ने 15 वर्ष पहले उभरते बाजारों की इक्विटी में 100 डॉलर का निवेश किया होता, तो आज उसकी कीमत लगभग 180 डॉलर होती, जबकि वही राशि यदि वैश्विक सूचकांकों में निवेश की जाती, तो आज लगभग 500 डॉलर होती। हालांकि, इस नज़रिये से देखें तो भारत ने शानदार प्रदर्शन किया है। पिछले पांच वर्षों में एमएससीआई इंडिया ने डॉलर में लगभग 15 फीसदी का वार्षिक रिटर्न दिया है, जबकि व्यापक ईएम सूचकांक ने मात्र 5 फीसदी का रिटर्न दिया है।

कई निवेशकों ने उभरते बाजारों की परिसंपत्ति में भरोसा गंवा दिया है और अपना निवेश कम किया है जबकि अपने बेहतरीन प्रदर्शन की बदौलत भारत फंडिंग का जरिया बना रहा। भारत की तेजी में अमेरिकी एंडोमेंट और फाउंडेशनों की अहम भूमिका रही लेकिन इस समय वे नकदी संकट से जूझ रहे हैं। निजी परिसंपत्तियों में अत्यधिक निवेश के कारण उनकी परिसंपत्ति और देनदारी में विसंगति उत्पन्न हुई और उन्हें सार्वजनिक इक्विटी बेचकर पूंजी जुटाने पर विवश होना पड़ा। भारत फंडिंग का स्वाभाविक स्रोत बना रहा क्योंकि उसका प्रदर्शन और मूल्यांकन लगातार ऊंचा रहा।

गत 12 से 18 महीनों में भारतीय अर्थव्यवस्था में धीमापन आया है। वृद्धि स्पष्ट रूप से एक चुनौती है। अर्थव्यवस्था पूरी क्षमता से काम नहीं कर रही है। हम 6 फीसदी की वृद्धि हासिल करने में भी जूझते नजर आ रहे हैं। इससे यह साफ है कि कारोबारी आय प्रभावित हुई है। प्रति शेयर कमाई में वृद्धि इस वर्ष करीब 10 फीसदी के आसपास रहेगी। 20 गुना अग्रिम आय पर कारोबार कर रहे बाजार के लिए आय संबंधी निराशा झेलना आसान नहीं। हम केवल 10 फीसदी की प्रति शेयर कमाई वृद्धि के साथ दुनिया का दूसरा सबसे महंगा बाजार नहीं रह सकते।

कई निवेशकों का मानना है कि हाल तक, आत्मसंतुष्टि की भावना थी, तथा वृद्धि को गति देने की कोई ठोस योजना नहीं थी। आर्थिक सुधारों के मामले में सरकार का तीसरा कार्यकाल पूरी तरह धीमी गति से शुरु हुआ। वृद्धि के टिकाऊपन को लेकर निश्चिंत न होने के कारण कई निवेशकों ने मुनाफा कमाया और भारत में अपने निवेश को कम किया। भारत के मूल्यांकन प्रीमियम को तब तक उचित नहीं ठहराया जा सकता है जब तक कि हमें पूरी तरह यह यकीन न हो कि यह आर्थिक वृद्धि और आय दोनों मामलों में आगे रहेगा। गत दो वर्षों में देश के दीर्घकालिक आर्थिक प्रदर्शन को लेकर सवाल उठे हैं क्योंकि सुधार नजर नहीं आ रहे हैं।

भारत आर्टिफिशल इंटेलिजेंस के मामले में भी पिछड़ा हुआ है। चैटजीपीटी के आगमन के बाद से ही एआई कंपनियों के शेयर एसऐंडपी 500 के रिटर्न में 50 फीसदी से अधिक के हिस्सेदार रहे। आज आठ शेयर जिनमें सभी एआई कंपनियों के है, अमेरिकी बाजार पूंजीकरण में 35 फीसदी से अधिक के हिस्सेदार हैं। अकेली कंपनियां शोध एवं बाजार पूंजीकरण पर 75 अरब डॉलर से अधिक खर्च कर रही हैं। अमेरिका और चीन को छोड़कर कोई देश एआई के मामले में मुकाबले में नहीं है।

भारत के समक्ष एक प्रश्न आईटी सेवा उद्योग के भविष्य का भी है। देश के आईटी क्षेत्र में 50 लाख से अधिक लोगों को रोजगार मिला हुआ है। यह क्षेत्र रोजगार निर्माण का बहुत बड़ा कारक रहा है। कुछ वर्ष पहले इस क्षेत्र में सालाना 2-2.50 लाख युवाओं को रोजगार दिया जा रहा था। अब यह घटकर 50 हजार रह गया है। कुछ लोगों को डर है कि आने वाले पांच साल में इस उद्योग में कर्मचारियों की संख्या में और कमी आएगी।

टीसीएस द्वारा की गई हालिया छंटनी की घोषणा एक बानगी है। जैसे-जैसे औद्योगिक वृद्धि में धीमापन आएगा और कर्मचारियों की संख्या बढ़ेगी, इस क्षेत्र में हजारों की संख्या में उच्च वेतन वाले मझोले प्रबंधकीय रोजगार भी छिनेंगे। सालाना 200 अरब डॉलर का निर्यात करने वाले इस क्षेत्र में वृद्धि दर के पांच फीसदी से कम होने का क्या असर होगा? भारत में कम लागत में काम करने वाले कुशल कर्मचारी बहुत हैं जो उसे प्रतिस्पर्धी बढ़त दिलाते हैं। बहरहाल, एआई कुशल कर्मचारियों की जरूरत को कम करता है। क्या यह देश की दीर्घकालिक वृद्धि पर असर डालेगा?

यह याद रखना उचित होगा कि हमें गत पांच साल में शुद्ध रूप से कोई एफपीआई नहीं मिला है। मौजूदा भू-राजनीतिक तनाव इसकी वजह है लेकिन यह इकलौती वजह नहीं है। घरेलू इक्विटी की आवक की प्रकृति अधिक ढांचागत है। आज भी यानी शून्य रिटर्न के एक साल बाद भी इसमें इजाफा हो रहा है। जब विदेशी खरीदार लौटते हैं तो इसका कीमतों पर विसंगतिपूर्ण असर हो सकता है। हम भूल गए हैं कि जब विदेशी और स्थानीय निवेशक एक दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा में खरीद करते हैं तो बाजार कैसी प्रतिक्रिया देते हैं। ऐसा पांच साल से नहीं हुआ है।

डॉलर इस साल 10 फीसदी तक गिर चुका है। गैर अमेरिकी इक्विटी में निवेश संभावना सुधर रही है। ऐसे में आने वाले समय में उभरते बाजारों की इक्विटी में निवेश बढ़ेगा। हालांकि, यदि भारत को अपने हिस्से से अधिक निवेश आकर्षित करना है, तो वैश्विक निवेशकों को यह विश्वास दिलाना होगा कि हम 7–8 फीसदी की आर्थिक वृद्धि दर लंबे समय तक टिकाऊ रूप से हासिल कर सकते हैं। आर्थिक वृद्धि के साथ-साथ कंपनियों की प्रति शेयर आय में भी वृद्धि होगी।

चूंकि घरेलू निवेश प्रवाह मजबूत है, इसलिए यह संभावना कम है कि बाजारों में मूल्य के स्तर पर कोई बड़ी गिरावट आएगी। वे पहले ही कई नकारात्मक खबरों को झेल चुके हैं। इसलिए, भारतीय इक्विटी में निवेशकों की वापसी तभी संभव होगी जब वे उच्च मूल्यांकन प्रीमियम को स्वीकार करने के लिए तैयार हों। यह भुगतान करने की इच्छा तब आएगी जब निवेशकों को यह विश्वास हो कि भारत अगले 20 वर्षों तक 7 फीसदी की आर्थिक वृद्धि बनाए रख सकता है।

ऐसे हालात में मौजूदा भू-राजनीतिक कठिनाइयों को एक चेतावनी और अवसर दोनों के रूप में देखा जाना चाहिए। जरूरी सुधारों के बारे में हम सभी जानते हैं। अब वक्त है पहल करने का। हमें इसे आर्थिक संकट मानते हुए दीर्घकालिक प्रतिस्पर्धा सुधारने के लिए काम करना चाहिए। बीते कुछ सप्ताहों ने यह भी दिखाया है कि केवल आर्थिक सहूलियत ही मायने रखती हैं। हमारे पास यह बहुत कम है। यह मायने नहीं रखता कि हम दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं। सवाल यह है कि हमारा प्रभाव क्या है? हमें कुछ विशेष उद्योगों में प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिश करनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया गया, तो हमारे पास कभी भी पर्याप्त प्रभाव नहीं होगा।

चीन का प्रभाव केवल दुर्लभ खनिज तत्वों तक सीमित नहीं है। उसका प्रभाव इस तथ्य में भी है कि वह वैश्विक विनिर्माण मूल्यवर्धन में 35 फीसदी हिस्सा रखता है। यह उसके बाद के 10 देशों के संयुक्त योगदान के बराबर है। हम उस स्तर की विशालता की आकांक्षा नहीं कर सकते, लेकिन यदि सोच-समझकर प्रयास किया जाए, तो वैश्विक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कुछ ऐसे उद्योग हैं जिनमें हमें प्रभुत्व स्थापित करने का अवसर मिल सकता है।


(लेखक अमांसा कैपिटल से जुड़े हैं)

First Published - August 31, 2025 | 10:58 PM IST

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