रायपुर में हाल ही में संपन्न कांग्रेस पार्टी के 85वें पूर्ण अधिवेशन से ऐसे संकेत निकले कि 2024 के आम चुनाव में राहुल गांधी ही कांग्रेस पार्टी का चेहरा होंगे। इसके अलावा पार्टी ने एक ऐसा चुनावी मंच तैयार करने पर सहमति जताई जो न्यूनतम आय गारंटी कार्यक्रम (न्याय) तथा उद्योगपति गौतम अदाणी के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कथित नजदीकी पर ध्यान केंद्रित करेगा।
अदाणी के शेयर बाजार सौदों पर हाल ही में हिंडनबर्ग नामक कारोबारियों के एक समूह ने सवालिया निशान लगाए हैं। चूंकि पिछले दो लोकसभा चुनावों में राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद खराब रहा है, और इनमें से एक चुनाव में तो न्याय योजना और राफेल सौदे में मोदी की गड़बड़ियां पार्टी के प्रचार अभियान के केंद्र में भी थीं इसलिए यह समझना मुश्किल है कि आखिर कांग्रेस को क्यों लग रहा है कि वह बार-बार वही तरीका अपनाकर कुछ अलग परिणाम हासिल कर पाएगी।
यह सही है कि गांधी की भारत जोड़ो यात्रा ने कुछ हद तक कांग्रेस की ध्वस्त प्रतिष्ठा में सुधार किया है और उनकी व्यक्तिगत छवि भी एक विचारवान नेता की बनी है जो देश के लोगों की समस्याओं को समझता है। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि यह कवायद किस हद तक मतदाताओं को पार्टी के साथ जोड़ सकेगी।
अगर पार्टी 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले होने वाले विधानसभा चुनावों में अपने आपको आजमाने के बाद इस दिशा में बढ़ती तो ज्यादा बेहतर होता। इनमें से छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में तो इस वर्ष के अंत में ही चुनाव होने हैं और यहां कांग्रेस को अपनी इस रणनीति की लोकप्रियता और प्रभाव को परखने का मौका मिल जाता।
रायपुर से यह संकेत भी निकलता है कि जरूरी संगठनात्मक सुधार भी अभी दूर ही हैं। ऐसा इसलिए कि कांग्रेस कार्य समिति में चुनाव के बजाय पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के नामित लोगों को शामिल करने की बात कही गई है जिन्हें कांग्रेस पार्टी का वफादार माना जाता है।
रायपुर के पूर्ण अधिवेशन का एक परिणाम यह हुआ है कि भारतीय जनता पार्टी के समक्ष एक मजबूत और विश्वसनीय मोर्चा तैयार होने की संभावनाएं कमजोर हुई हैं। रायपुर में पारित प्रस्ताव में ‘साझा वैचारिक आधार पर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का सामना करने की तत्काल आवश्यकता’ की बात कही गई, बजाय कि विभिन्न विपक्षी दलों द्वारा अलग-अलग लड़ाई लड़कर वोटों को भाजपा के पक्ष में बंटने देने के।
प्रस्ताव में इस बात का भी उल्लेख किया गया कि ‘समान विचारों वाली धर्मनिरपेक्ष शक्तियों को पहचानने और एक साथ लाने की जरूरत है’ ताकि कांग्रेस के नेतृत्व में एक व्यापक गठबंधन बनाया जाए। निश्चित तौर पर समान विचार वाले धर्मनिरपेक्ष दलों की कोई कमी नहीं है लेकिन इनका नेतृत्व ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, शरद पवार अथवा अरविंद केजरीवाल जैसे कद्दावर नेताओं के पास है। यह देखना होगा कि क्या उल्लेखनीय चुनावी कामयाबी हासिल करने वाले ये बड़े राजनेता एक ऐसे राजनेता के कनिष्ठ साझेदार बनने को तैयार होंगे जिसका चुनावी प्रदर्शन कमजोर रहा है।
2004 की तुलना में अब भाजपा बहुत मजबूत और दबदबे वाली पार्टी है जिसके पास मजबूत जमीनी संगठन है और उसका नेतृत्व ऐसे प्रधानमंत्री के पास है जिनकी लोकप्रियता असंदिग्ध है। ऐसे में सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी एक वर्ष से भी कम समय में देश के चुनावी परिदृश्य को बदल सकेंगे?
खासकर यह देखते हुए कि उनके पास कोई औपचारिक शक्ति नहीं है क्योंकि वह 2019 में चुनावी हार के बाद पार्टी अध्यक्ष का पद छोड़ चुके हैं और उनकी उदासीनता की कीमत कुछ राज्यों में सत्ता के रूप में चुकानी पड़ी है।