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वाइब कोडिंग का उभार- आपदा या अवसर?

क्या आज के सॉफ्टवेयर कोडर्स के समक्ष भी वैसी ही चुनौती है जैसी औद्योगिक क्रांति के दौर में भारतीय हथकरघा चलाने वालों के समक्ष उत्पन्न हुई थी? प्रश्न कर रहे हैं

Last Updated- May 07, 2025 | 10:07 PM IST
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यद्यपि यह अभी शुरुआती दौर में है लेकिन प्रोग्रामिंग का एक नया स्वरूप अपनी जड़ें जमा रहा है। इसके अंतर्गत कोडर या सॉफ्टवेयर डेवलपर को केवल सॉफ्टवेयर की समग्र ‘वाइब’ यानी उसका इरादा, रंग-रूप, अनुभव और उसके वांछित व्यवहार को साधारण भाषा में प्रकट करना होता है और कंप्यूटर अपने आप ही कोड लिख लेता है।

ओपन एआई के सह संस्थापकों में से एक आंद्रेज कारपथी उन शुरुआती लोगों में से हैं जिन्होंने गत फरवरी में एक्स पर एक पोस्ट लिखकर ‘वाइब कोडिंग’ की बात की थी। उन्होंने लिखा था, ‘एक नए तरह की कोडिंग है जिसे मैं वाइब कोडिंग कहता हूं। जहां आप पूरी तरह धारा के बहाव में होते हैं और भूल जाते हैं कि कोड जैसा कुछ होता भी है…यहां तक कि मैं शायद ही अपने की बोर्ड को हाथ भी लगाता हूं।’ जब मैंने यह पढ़ा तो मुझे कुछ ऐसा याद आया जो हम भारतीय इतिहास में घटित होते देख चुके हैं। सन 1760 के दशक में भारतीय सूत कातने वाले चरखे का इस्तेमाल करके कच्चे सूत को धागे में बदलते थे।

उसके बाद बुनकर इस सूत से कपड़े बुनते थे। इंगलैंड में स्पिनिंग जेनी का आविष्कार हो चुका था। यह नई मशीन ऐसी थी कि एक ही सूत कातने वाला ढेर सारे स्पिंडल्स को चला सकता था। इससे सीमित समय में ही चरखे की तुलना में बहुत अधिक सूत तैयार किया जा सकता था। इसने और स्वचालित बुनाई ने इंग्लैंड के सूती वस्त्र उत्पादन में भारी इजाफा किया। इसे आगे चलकर पहली औद्योगिक क्रांति कहा गया। ब्रिटेन में बनने वाले सस्ते कपड़े भारतीय बाजार में छा गए। स्थानीय कारोबारियों के लिए उनसे प्रतिस्पर्धा करना मुश्किल होने लगा। इससे सूत कातने वालों, बुनकरों और कारीगरों में बड़े पैमाने पर बेरोजगारी के हालात बनने लगे।

वाइब कोडिंग और इस उदाहरण के बीच बहुत अधिक समानता है। वाइब कोडिंग के जरिये एक कंप्यूटर प्रोग्रामर भारी मात्रा में कोड तैयार कर सकता है। यह काम किसी एक व्यक्ति द्वारा पंक्ति दर पंक्ति लिखने की तुलना में बहुत तेजी से किया जा सकता है। इससे एक व्यक्ति द्वारा किए जाने वाले काम में नाटकीय इजाफा हो सकता है। जिस तरह स्पिनिंग जेनी ने धागे के धीमे उत्पादन की समस्या को हल कर दिया था उसी तरह वाइब कोडिंग की मदद से सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट की गति को बेहद तेज किया जा सकता है। स्पिनिंग जेनी को चलाने के लिए चरखे की तुलना में बहुत कम कौशल की आवश्यकता थी। इसी प्रकार वाइब कोडिंग के लिए भी पारंपरिक कोडिंग की तुलना में बहुत कम कौशल की आवश्यकता होगी।

इस तकनीकी नवाचार को देखते हुए क्या हमें भी महात्मा गांधी की तरह सोचना चाहिए, ‘चरखा मेरे लिए जनता की उम्मीदों का प्रतिनिधित्व करता है। जनता ने अपनी आज़ादी गंवा दी ठीक इस चरखे की तरह। चरखा ग्रामीणों के लिए खेती का पूरक था और यह उन्हें गरिमा प्रदान करता था। यह विधवाओं का मित्र और सहारा था। यह ग्रामीणों के आलस्य को दूर रखता था। चरखे के साथ ढेर सारे कामकाज या उद्योग जुड़े थे जैसे ओटना, आकार देना, रंगना और बुनना आदि। ये सारी गतिविधियां गांव के बढ़ई और लुहारों आदि को व्यस्त रखती थीं। चरखे ने देश के 7 लाख गांवों को आत्मनिर्भर बनाए रखा। चरखे की विदाई के साथ अन्य ग्रामीण उद्योग मसलन कोल्हू आदि भी चले गए। इन उद्योगों की जगह कोई नया उद्योग नहीं ले सका। ऐसे में ग्रामीणों के विविध रोजगार छिन गए, उनकी रचनात्मक प्रतिभा को क्षति पहुंची और इसके जरिये आने वाली थोड़ी बहुत संपदा भी चली गई।’

क्या हमें इस बात को लेकर चिंतित होना चाहिए कि वाइब कोडिंग जैसे तकनीकी रुझान देश के 50 लाख से अधिक कंप्यूटर प्रोग्रामर्स में से बहुत बड़ी संख्या की नौकरी छीन लेंगे? उनका काम भारत के लिए विदेशी मुद्रा जुटाने का सबसे बड़ा सहारा है। यह क्षेत्र करीब 200 अरब डॉलर का राजस्व जुटाता है। कुछ लोग कहते हैं कि विदेशी पूंजी की यह भारी आवक रुपये को स्थिर बनाने में मदद करती है, आयात को मदद पहुंचाती है और विदेशी मुद्रा भंडार तैयार करती है। बेंगलुरु, हैदराबाद, पुणे, चेन्नई, मुंबई और दिल्ली-एनसीआर जैसे शहरों में ऑफिस की जगह की मांग भी मुख्य तौर पर इसी क्षेत्र की बदौलत तैयार होती है।

सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र की बड़ी कंपनियां और वैश्विक क्षमता केंद्र (जीसीसी) बहुत बड़ी जगह पर अपना कार्यालय स्थापित करते हैं, इसे विनिर्माण को गति मिलती है और वाणिज्यिक अचल संपत्ति में भारी निवेश होता है। इससे वस्तुओं और सेवाओं पर उपभोक्ता व्यय को बढ़ावा मिलता है और खुदरा, स्वचालित, इलेक्ट्रॉनिक्स और अन्य उपभोक्ता उद्योगों की मांग तेज होती है। इससे आतिथ्य उद्योग को भी खूब मदद मिलती है। कुल मिलाकर शहरी विकास को खासी गति मिली है।

आप देख सकते हैं कि वाइब कोडिंग आधारित भविष्य की ओर बढ़ते हुए काफी कुछ दांव पर है। सन 1990 के दशक के आरंभ में जब देश में कंप्यूटर का इस्तेमाल जोर पकड़ रहा था तब कई प्रकार के रोजगारों को लेकर भय और चिंता का माहौल था। इसे लेकर लंबी-लंबी बहसें हुईं। खासतौर पर बैंकिंग क्षेत्र पर नई तकनीक के प्रभाव को लेकर काफी बातें हुईं। भारत के डूबने का खतरा उत्पन्न हो ही रहा था कि वाई2के का अवसर सामने आया। अमेरिका और यूरोप को अचानक सैकड़ों की संख्या में कंप्यूटर प्रोग्रामर्स की जरूरत पड़ी ताकि कोड को बदला जा सके और तात्कालिक समस्या को हल किया जा सके।

संक्षेप में कहें तो कंप्यूटरों के शुरुआती दिनों में जब मेमरी और स्टोरेज दोनों बहुत महंगे थे तब प्रोग्रामर्स केवल अंतिम दो अंकों के सहारे वर्ष को दर्शाते थे ताकि स्टोरेज बचाई जा सके। हालांकि, जब वर्ष 2000 आया तो इस बात को लेकर चिंता जताई जाने लगी कि जब वर्ष 99 के बाद 00 आएगा तो कंप्यूटर प्रणालियां 00 को 2000 के स्थान पर 1900 समझ लेंगी। इससे गणना में भारी चूक  हो सकती थी और यह चूक बैंकिंग प्रणालियों से लेकर लॉजिस्टिक्स, पॉवर ग्रिड, सरकारी रिकॉर्ड, विनिर्माण प्रक्रिया और अन्य असंख्य प्रणालियों को प्रभावित कर सकती थीं। व्यापक व्यवस्थागत नाकामियों का डर सताने लगा और यह भी कि कहीं सामाजिक उथल-पुथल की स्थिति न बन जाए। इसका इकलौता हल यही था कि एक व्यापक वैश्विक प्रयास किया जाए और दुनिया भर में अरबों कोड्स की समीक्षा की कोशिश की जाए, तारीख वाली जगहों को चिह्नित किया जाए तथा उन्हें चार अंकों वाले वर्षों के लिहाज से दोबारा प्रोग्राम किया जाए। इसमें बहुत अधिक मेहनत लगने वाली थी लेकिन इसके लिए समय-सीमा निर्धारित थी: 31 दिसंबर 1999। अनुमान लगाया जा रहा था कि वाई2के की समस्या को हल करने के लिए करीब 300 अरब डॉलर से 600 अरब  डॉलर के बीच धनराशि व्यय होगी। इस दौरान बहुत बड़ी संख्या में यानी दुनिया भर में करीब 10 लाख कंप्यूटर प्रोग्रामर्स की जरूरत थी। इनमें से अधिकांश भारत से थे। यही वह अवसर था जब भारत में टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज और इन्फोसिस जैसी दिग्गज टेक कंपनियां तैयार हुईं।

जैसा कि आप देख सकते हैं, जिसे एक बड़ी संभावित आपदा के रूप में देखा जा रहा था वह भारत के वैश्विक रसूख के उभार की वजह बन गई। यह इसलिए संभव हो सका क्योंकि हमारे यहां बड़े पैमाने पर प्रतिभाशाली काम करने वाले मौजूद थे। क्या यह संभव है कि वाइब कोडिंग का आसन्न संकट औद्योगिक क्रांति के दौर में हथकरघों के लिए हुई तबाही के बजाय वाई2के के समान अवसर प्रदान करने की वजह बन जाए?  

 

First Published - May 7, 2025 | 10:04 PM IST

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