मेरे जीवन में निरंतर चले आ रहे रहस्यों में से एक यह समझने की कोशिश भी रही है कि आखिर इंगलैंड में 18वीं सदी के मध्य में आरंभ हुई औद्योगिक क्रांति, जिसने कताई और बुनाई की मशीनों की शुरुआत की, वह पहले भारत में क्यों नहीं घटित हुई। आखिर भारत उस समय दुनिया में सबसे अधिक कपास के धागे और कपड़े तैयार कर रहा था। मैं जब भी यह सवाल करता हूं तो मुझे उत्तर मिलता है, ‘भारत में श्रम की लागत इतनी कम थी कि किसी ने कताई या बुनाई के लिए मशीनों का अविष्कार करने के बारे में सोचा ही नहीं।’
औद्योगिक क्रांति शब्द को ब्रिटिश आर्थिक इतिहासकार अर्नाेल्ड टॉयनबी ने 1882 में ऑक्सफर्ड विश्वविद्यालय में एक व्याख्यान में इस्तेमाल किया था और यह बताया था कि कैसे कताई और बुनाई की मशीनों ने इंगलैंड को पूरी तरह से बदल दिया। उनकी बदौलत घरेलू स्तर पर होने वाले उत्पादन में भारी बदलाव आया। घरों और छोटी वर्कशॉप में होने वाला काम अब कारखानों में होने लगा जहां मशीनों के जरिये व्यवस्थित ढंग से बहुत बड़े पैमाने पर उत्पादन होता था।
उन्होंने ‘क्रांति’ शब्द का इस्तेमाल किया क्योंकि उन्होंने देखा कि इससे बहुत तेज और भारी बदलाव आया था जिसने समाज को उसी तरह बदल दिया जैसे कि कोई महत्त्वपूर्ण राजनीतिक क्रांति करती है। दूसरे शब्दों में उन्होंने कहा कि केवल मशीनों के इस्तेमाल ने ही नहीं बल्कि आर्थिक, सामाजिक और मानवीय रिश्तों के बुनियादी पुनर्गठन ने इसे एक ‘क्रांति’ में बदल दिया।
काश मैं उस समय श्रोताओं के बीच होता तो खड़ा होकर कहता, ‘आप ब्रिटेन की बहुत अच्छी मार्केटिंग कर रहे हैं श्रीमान टॉयनबी।’ प्रिय पाठको, इससे पहले कि आप सोचें कि मैं इतना बगावती क्यों हूं, कुछ तथ्यों पर ध्यान दीजिए।
यह एक व्यापक मान्यता है कि ब्रिटेन के सूती कपड़ा विनिर्माता इन मशीनों का इस्तेमाल किए जाने से इतना किफायती कपड़ा तैयार करने लगे जिसके चलते न केवल वे भारत से सूती वस्त्र का आयात पूरी तरह रोक सके बल्कि वे भारत के कताई-बुनाई उद्योग को पूरी तरह नष्ट करने में भी कामयाब रहे।
बहरहाल एक सच जिसका जिक्र इस कहानी में नहीं किया जाता वह यह है कि मैनचेस्टर के कताई-बुनाई कारोबार को फलने-फूलने के लिए ब्रिटिश सरकार ने सन 1700 में कानून पारित किए और आयात शुल्क को बेतहाशा बढ़ा दिया। भारत से आने वाले सूती वस्त्र पर उनके प्रकार के हिसाब से 15 से लेकर 75 फीसदी तक आयात कर लगाया गया। इस कपड़े को वहां कैलिको कहा जाता था क्योंकि उसे केरल के कालीकट बंदरगाह से ब्रिटेन भेजा जाता था। चूंकि इससे मांग कम करने को लेकर वांछित असर नहीं पड़ा तो 1720 में दूसरा कानून पारित किया गया ताकि भारत सूती वस्त्र आयात पर पूरी तरह प्रतिबंधित किया जा सके।
इस कानून में यह प्रावधान भी था कि आयातित सूती कपड़े पहनने वाले लोगों पर 15 पाउंड तक का जुर्माना लगाया जा सकता है और ऐसे कपड़े रखने अथवा बेचने वालों पर 200 पाउंड तक के जुर्माने का प्रावधान था। जब ये प्रावधान भी नाकाम रहे तब ब्रिटिश बुनकरों ने कैलिको पहनने वाली महिलाओं पर हमले करके विरोध जताया, उन्होंने उनके कपड़े फाड़े और यहां तक कि उन पर तेजाब भी फेंका गया।
शायद औद्योगिक क्रांति की कहानी के पीछे का सबसे सावधानी से छिपाया गया तथ्य यह है कि आखिर किस बात ने ब्रिटिश सूती वस्त्र निर्माताओं को भारतीय हथकरघा बुनकरों पर अंतिम बढ़त प्रदान की। सन 1800 के आसपास ब्रिटेन अपना अधिकांश कपास अमेरिका के दक्षिण से आयात करता था जिसे हजारों दास अफ्रीकियों की बदौलत एक विशाल बंधुआ मजदूर शिविर में बदल दिया गया था। ये दास अकल्पनीय रूप से कम कीमत पर कच्चा कपास बहुत भारी मात्रा में उपलब्ध कराते थे।
एक बार जब मुझे ये तथ्य पता चल गए तो मैं गहरे अवसाद का शिकार हो गया: क्या यह संभव है कि मानवता ऐसे तथ्यों की अनदेखी करती रहे और पिछले 200 से अधिक वर्षों से यह मानती आ रही हो कि ‘औद्योगिक क्रांति’ जैसे जुमले का इस्तेमाल उन कार्यों को उचित ठहराने के लिए किया जा सकता है जो वास्तव में ‘औपनिवेशिक शोषण’ था? ‘तकनीक आधारित विकास’ या ‘तकनीकी क्रांति’ जैसे जुमले तो और भी चिंतित करने वाले हैं। इनका इस्तेमाल उन कदमों के लिए किया गया जो वास्तव में विभिन्न पहलों का मिश्रण थे और जिनमें तकनीक की हिस्सेदारी बेहद कम थी।
दूसरे शब्दों में कहें तो क्या हमें उन कई ‘तकनीकी क्रांतियों’ के पुनर्परीक्षण की जरूरत है जिन्हें हम अब तक राजनीतिक अर्थव्यवस्था के नज़रिये से देखते आए थे? कहने का तात्पर्य यह है कि हमें केवल इंजीनियरिंग के लिहाज से ही नहीं, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र और समाजशास्त्र के नज़रिये से अलग साधनों और तरीकों का इस्तेमाल कर उन तमाम तकनीकी क्रांतियों का पुनर्परीक्षण करना होगा, जिनके बारे में हम सभी मानते हैं कि वे घटित हुई हैं।
पहली औद्योगिक क्रांति (18वीं-19वीं सदी) ने भाप से चलने वाली मशीनें दीं जिन्होंने हाथ से होने वाले उत्पादन की जगह ली। दूसरी औद्योगिक क्रांति (19वीं सदी का अंत और 20वीं सदी) ने बिजली और व्यापक उत्पादन की तकनीक मसलन असेंबली लाइन आदि तैयार कीं। तीसरी औद्योगिक क्रांति जिसे डिजिटल क्रांति कहा जाता है उसने कारखानों में स्वचालन और एकीकृत व्यवस्था के लिए उन्हें कंप्यूटरों और इंटरनेट से जोड़ा। चौथी औद्योगिक क्रांति (उद्योग 4.0) का संबंध आर्टिफिशल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स से है। ये एक साथ मिलकर साझा संपर्क और मेधा के क्षेत्र में काम करते हैं। अब पांचवीं औद्योगिक क्रांति उभर रही है।
शायद अब वक्त आ गया है कि महात्मा गांधी की ओर लौटें और उस बात पर ध्यान दें जो उन्होंने स्वराज आंदोलन के समय कही थी, ‘उनका जोर श्रम की बचत करने वाली मशीनरी पर है। लोग तब तक श्रम की बचत करेंगे जब तक कि हजारों लोग बेकार नहीं हो जाते और सड़कों पर भूख से मरने के लिए नहीं फेंक दिए जाते। मैं समय और श्रम बचाना चाहता हूं, मानव जाति के कुछ हिस्से के लिए नहीं बल्कि सभी के लिए। मैं चाहता हूं कि धन का केंद्रीकरण कुछ लोगों के हाथ में न हो बल्कि सभी के पास धन हो।
आज मशीनरी केवल कुछ लोगों की सहायता करती है ताकि वे लाखों लोगों पर शासन कर सकें लेकिन इसके पीछे की प्रेरणा परोपकार नहीं बल्कि लालच है। ऐसा नहीं है कि हमें मशीनरी नहीं चाहिए, लेकिन हम इसे इसके उचित स्थान पर चाहते हैं। जब तक इसे सरल नहीं बनाया जाता है और सभी के लिए उपलब्ध नहीं कराया जाता, तब तक यह हमारे पास नहीं होगी।’
क्या यही वह अगला आंदोलन है जिसे हमें अपनाना चाहिए और जो शायद आज के दिनों में उतना ही अहम हो सकता है जितना कि गांधी के दौर में स्वराज आंदोलन था।
(लेखक तकनीक और समाज के बीच संपर्कों के बारे में अध्ययन को समर्पित हैं)