अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने 2 अप्रैल को ‘लिबरेशन डे’ घोषित किया जिसके बाद से ही हमें बताया जा रहा है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था एक बड़े झटके की स्थिति की ओर बढ़ रही है और बाजारों में भारी गिरावट आने वाली है।
ट्रंप ने लगभग 180 देशों और क्षेत्रों में एकतरफा टैरिफ (सीमा शुल्क) लगाने की घोषणा की। हालांकि, 9 अप्रैल को उन्होंने चीन को छोड़कर सभी देशों के लिए इन टैरिफ पर 90 दिनों के लिए रोक लगा दी। इसके बाद, अमेरिका ने चीन के आयात पर टैरिफ को बढ़ाकर 145 फीसदी कर दिया। चीन ने भी अमेरिकी आयात पर 125 फीसदी का टैरिफ लगाकर जवाबी कार्रवाई की।
ट्रंप को इस बात का भरोसा है कि चीन सहित सभी देशों के साथ टैरिफ पर उचित स्तर की बातचीत हो जाएगी। अप्रैल की शुरुआत में, विशेषज्ञों ने चेतावनी दी थी कि ट्रंप के टैरिफ युद्ध के कारण लंबे समय तक बनी अनिश्चितता की स्थिति के कारण आर्थिक अराजकता की स्थिति पैदा होगी।
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एक महीना बीत जाने के बाद, स्थिति उतनी भयावह नहीं है जितनी विशेषज्ञों ने बताई थी। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) का अनुमान है कि वैश्विक आर्थिक वृद्धि पिछले वर्ष के 3.3 फीसदी से घटकर इस वर्ष 2.8 फीसदी हो जाएगी यानी इसमें 0.5 फीसदी की कमी आएगी।
अमेरिकी अर्थव्यवस्था में वृद्धि वर्ष 2024 के 2.8 फीसदी से घटकर 2025 में 1.8 फीसदी रहने की उम्मीद है। यह गिरावट तेज लगती है लेकिन इस बात पर भी गौर करना होगा कि हाल के वर्षों में अमेरिकी वृद्धि को भारी सरकारी उधारियों के कारण बल मिला है। अमेरिका के लिए दीर्घकालिक वृद्धि दर 2 फीसदी है जो 1.8 फीसदी के इस रुझान से बहुत ज्यादा नहीं है।
चीन की वृद्धि दर, 5 फीसदी से घटकर 4 फीसदी रहने का अनुमान है जो ट्रंप के टैरिफ के बिना ही कई विश्लेषकों के द्वारा लगाए गए 3 फीसदी के अनुमान से बेहतर है। भारतीय अर्थव्यवस्था में 6.5 फीसदी के बजाय 6.2 फीसदी की वृद्धि होगी। यानी यह तय है कि ट्रंप के टैरिफ का दुनिया भर की वृद्धि में नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। लेकिन आईएमएफ के अनुमान शायद ही किसी बड़े आर्थिक झटके की ओर इशारा करते हैं।
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टैरिफ से होने वाले नुकसान का जायजा लेने से पहले दो बड़े वैश्विक घटनाक्रमों, 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट और 2020 के कोविड संकट के प्रभाव पर नजर डालते हैं। वैश्विक वित्तीय संकट के कारण वैश्विक आर्थिक वृद्धि 2008 में 2.7 फीसदी से कम होकर वर्ष 2009 में -0.4 फीसदी हो गई, जो 3.1 फीसदी की गिरावट थी। कोविड संकट के कारण वैश्विक वृद्धि 2019 के 2.9 फीसदी से घटकर 2020 में -2.7 फीसदी हो गई जो 5.6 फीसदी की गिरावट थी। टैरिफ झटके के कारण वैश्विक वृद्धि में अनुमानित 0.5 फीसदी की गिरावट पहले के हालात की तुलना में बहुत मामूली लगती है।
कुछ विश्लेषकों का मानना है कि आर्थिक संकट असल अर्थव्यवस्था से नहीं, बल्कि वित्तीय क्षेत्र से आएगा। अमेरिका के 10 वर्षीय सरकारी बॉन्ड की यील्ड 2 अप्रैल को 4.19 फीसदी थी जो 9 अप्रैल को बढ़कर 4.39 फीसदी हो गई। 9 अप्रैल को ट्रंप ने जवाबी शुल्क पर 90 दिन की रोक लगाने की घोषणा की थी, जिसे बॉन्ड बाजार को स्थिर करने की कोशिश के तौर पर देखा गया। एसऐंडपी 500, 2 अप्रैल से 8 अप्रैल के बीच 12 फीसदी गिर गया। अमेरिकी डॉलर सूचकांक जो छह मुद्राओं के मुकाबले डॉलर के मूल्य को मापता है, उसमें 2 अप्रैल के स्तर से 6 मई तक लगभग 4 फीसदी की गिरावट देखी गई।
कई विश्लेषकों ने 2 अप्रैल और 9 अप्रैल के बीच की घटनाओं को ट्रंप प्रशासन और अमेरिकी अर्थव्यवस्था में निवेशकों के अविश्वास के रूप में देखा। उन्होंने कहा कि निवेशक कम वृद्धि, बढ़ती महंगाई और अमेरिका में कानून के शासन के कमजोर होने की आशंकाओं पर प्रतिक्रिया दे रहे थे और अमेरिकी बॉन्ड और शेयर बाजार से निकल रहे थे।
अमेरिका के वित्त मंत्री स्कॉट बेसंट ने तुरंत ही इस तरह के कयासों को खारिज कर दिया। बेसंट के मुताबिक उन्होंने पहले भी कई दफा अप्रैल के पहले सप्ताह में अमेरिकी बॉन्ड की बिक्री देखी है। बेसंट ने कहा, ‘बाजारों में अभी एक तरह से ऋण परिसंपत्ति कम करने का दौर चल रहा है। यह रुझान निश्चित आय वाले बाजार में है। कुछ बहुत बड़े खिलाड़ी हैं जिन्हें नुकसान हो रहा है और उन्हें ऋण कम करना पड़ रहा है।’ बेसंट एक मशहूर हेज फंड मैनेजर और वित्तीय बाजारों के बारे में अच्छी जानकारी रखने वालों में शामिल हैं।
हेज फंड, विभिन्न ट्रेड का इस्तेमाल करके अमेरिकी सरकारी बॉन्ड पर दांव लगाने के लिए रीपो बाजार में उधार लेते हैं। वे अपने कर्ज के लिए सरकारी बॉन्ड को जमानत के तौर पर रखते हैं। जब सरकारी बॉन्ड का मूल्य कम होता है तब उन्हें ऋणदाताओं से ‘मार्जिन कॉल’ मिलता है यानी उन्हें मार्जिन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अधिक नकदी देने के लिए कहा जाता है।
हेज फंड अधिक मार्जिन भुगतान के मकसद से नकदी का इंतजाम करने के लिए अपने पास मौजूद सरकारी बॉन्ड बेच सकते हैं। या फिर वे अपनी ट्रेडिंग पोजिशन में बदलाव कर सकते हैं यानी बॉन्ड बेच सकते हैं और इससे हुई आमदनी का इस्तेमाल कर्जदाताओं को भुगतान करने या फिर ऋण खत्म करने के लिए कर सकते हैं। दोनों ही स्थितियों में बॉन्ड यील्ड बढ़ती है। वे नकदी जुटाने के लिए इक्विटी भी बेच सकते हैं जिससे यह बात समझी जा सकती है कि ऐसे प्रकरणों में बॉन्ड और शेयरों की कीमतें एक साथ क्यों कम होती हैं।
अगर बैंकों का निवेश, हेज फंडों में बहुत अधिक है तब इस तरह की घटनाएं संकट का कारण बन सकती हैं। अगर बैंक खुद हेज फंडों के समान ही बड़े ट्रेडिंग पोजीशन पर दांव लगा रहे हैं तो बॉन्ड यील्ड में विपरीत बदलाव पर उन्हें बॉन्ड बेचने और मार्क-टु-मार्केट नुकसान उठाना पड़ सकता है। आज दोनों संभावनाएं बहुत कम हैं।
वर्ष 1998 में हेज फंड लॉन्ग टर्म कैपिटल मैनेजमेंट (एलटीसीएम) के खत्म होने के बाद बड़े वित्तीय संस्थानों में भी बैंकों के निवेश की निगरानी की जाने लगी। अमेरिका में वोल्कर नियम के जरिये हेज फंडों के बैंक स्वामित्व पर सख्ती से अंकुश लगाया गया। अधिक पूंजी आवश्यकताओं के कारण बैंकों द्वारा प्रॉपराइटरी ट्रेडिंग को हतोत्साहित किया गया। वर्ष 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट की तुलना में आज बैंक पूंजी के लिहाज से काफी बेहतर स्थिति में हैं। हेज फंडों द्वारा बैंकिंग प्रणाली को जोखिम में डालने और वित्तीय मंदी का कारण बनने के आसार आज बहुत कम हैं।
अमेरिका में 2 अप्रैल के ‘लिबरेशन डे’ के बाद अमेरिकी बॉन्ड बाजार में उथल-पुथल के बारे में बेसंट की व्याख्या सही साबित हुई है। अमेरिकी सरकारी बॉन्ड पर यील्ड 11 अप्रैल के 4.49 फीसदी से कम होकर 12 मई को 4.32 फीसदी हो गई, और तब से कई अमेरिकी सरकारी बॉन्ड की नीलामी सुचारू रूप से पूरी हुई है। अमेरिकी शेयर बाजार में भी अच्छा सुधार देखा गया है।
ट्रंप की आर्थिक नीतियों की ‘दि इकॉनमिस्ट’ कड़ी आलोचना करता है लेकिन इसने भी स्वीकार किया है कि अमेरिकी शेयरों की कीमत मंदी की आशंका के हिसाब से नहीं तय हो रही तो व्यापारिक आपदा की तो बात तो छोड़ ही दीजिए। (30 अप्रैल, 2025)। इसका मानना है कि बाजार में अदूरदर्शिता है, हालांकि जब अप्रैल की शुरुआत में अमेरिकी सरकारी बॉन्ड की यील्ड में तेजी आई थी तो इसने निश्चित रूप से इस अदूरदर्शिता की बात नहीं की। विश्लेषकों का मानना है कि अमेरिकी शेयरों का मूल्य अब भी ज्यादा है।
विदेशी निवेशकों के लिए अमेरिकी शेयरों की बिकवाली कर बाहर निकलना समझ में आता है और यह डॉलर सूचकांक में गिरावट के कई कारणों में से एक हो सकता है। लेकिन डॉलर सूचकांक में गिरावट को अमेरिकी अर्थव्यवस्था में विश्वास की कमी के रूप में समझना दूर की कौड़ी लगता है।
ट्रंप ने बार-बार कहा है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था में नए सिरे से बदलाव करने की उनकी कोशिशों की एक कीमत चुकानी होगी। उन्होंने इसे कुछ यूं समझाने की कोशिश की कि अमेरिकी बच्चों के पास ‘30 गुड़ियों के बजाय दो गुड़िया होंगी’ और इन दो गुड़ियों की कीमत ‘कुछ डॉलर अधिक’ होगी। उनकी इन टिप्पणियों ने आलोचकों को बहुत नाराज कर दिया। ट्रंप स्वीकार करते हैं कि इसमें अल्पकालिक तौर पर मुश्किलें दिख सकती हैं लेकिन उन्हें नहीं लगता कि उनकी नीतियों की वजह से आर्थिक तबाही की स्थिति बनेगी। ऐसा लगता है कि फिलहाल आईएमएफ और वित्तीय बाजारों को लगता है कि वह सही हैं।