अमेरिका के राष्ट्रपति Donald Trump ने इन दिनों वैश्विक वस्तुओं के व्यापार को जोखिम में डाल दिया है। इस वैश्विक व्यापार व्यवस्था में लाए जा रहे नए बदलावों के परिणाम के बारे में बताना असंभव है, जिसके अपने अंतर्संबंधों में ही बेहद जटिलता है। इसे किसी भी देश की आर्थिक वृद्धि और समृद्धि के एकमात्र रणनीतिक खेल के रूप में स्थापित किया गया है। लेकिन यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि यह क्यों हुआ, इससे हमारी दुनिया में क्या बदलाव आया है और आगे का रास्ता क्या हो सकता है?
सबसे पहले, अतीत पर नजर डालते हैं। यह विचार 1990 के दशक की शुरुआत में आकार लेने लगा, जब उस दुनिया (जिन जगहों पर बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण हो रहा था) ने जनरल एग्रीमेंट ऑन टैरिफ ऐंड ट्रेड (गैट) को एक औपचारिक वैश्विक संस्था, विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के रूप में बदलने का फैसला किया। विचार यह था कि इससे वैश्विक व्यापार को एक मुक्त क्षेत्र में लाया जा सकेगा और व्यापार नियमों का पालन करने की शर्तें सभी पर लागू होंगी। ऐसे में दुनिया एक हो जाएगी।
इसका एक और उद्देश्य था जिसने आज की औद्योगिक दुनिया को परेशान कर दिया है। इस बात को समझ लिया गया कि औद्योगीकरण को बढ़ावा देने वाले इन देशों में विनिर्माण की लागत अधिक थी। इसके अलावा, श्रम महंगा था और पर्यावरणीय नियमों की सख्ती की अलग लागत थी। यह वह समय था, जब पहले से ही औद्योगिक विकास करने वाले देशों को स्थानीय वायु प्रदूषण और जल प्रदूषण की समस्या से जूझना पड़ रहा था जिसमें बारिश का पानी अम्लीयता से भरपूर होने के साथ ही नदियों में विषाक्त पदार्थों की समस्या भी बढ़ रही थी। इन देशों को सार्वजनिक स्तर पर व्यापक आक्रोश का सामना करना पड़ा रहा था और ऐसे में उन्होंने वैश्विक व्यापार के नाम पर क्लासिक ‘नॉट इन माय बैकयार्ड’ (निंबी) सिद्धांत लागू किया जो अपने यहां नुकसान पहुंचाने वाले उद्योनगों का विरोध कर दूसरे जगह इसको बढ़ावा देने के सिद्धांत से जुड़ा है।
मशहूर अमेरिकी अर्थशास्त्री लैरी समर्स 1992 में विश्व बैंक में थे और वर्ष 2001 में हार्वर्ड विश्वविद्यालय के अध्यक्ष बने। उन्होंने उन दिनों एक आंतरिक टिप्पणी में लिखा, ‘सबसे कम मजदूरी वाले देश में जहरीले कचरे को डंप करना आर्थिक रूप से बेहद तर्कपूर्ण है।’ द इकॉनमिस्ट ने एक शानदार रिपोर्ट ने इसे स्पष्ट रूप रेखांकित करते हुए कहा कि समर्स ने कहा है, ‘प्रदूषण को उनकी खुराक बन जाने दो।’ उनका यह तर्क अनूठा था कि जिन देशों में कम मजदूरी है और जहां नियमन भी कम है उनके साथ व्यापार करना सस्ता पड़ेगा।
समर्स ने लिखा कि आप जितने अमीर होंगे, अपने पर्यावरण को उतना ही साफ रखना चाहेंगे और ऐसे में लागत अधिक बढ़ेगी। उन देशों में जहरीले तत्वों के बारे में अधिक सार्वजनिक चिंता जताई जाएगी जहां लोगों का जीवन काल लंबा है और लोगों को प्रोस्टेट कैंसर की संभावना उन देशों की तुलना में ज्यादा होगी जहां पांच साल से कम उम्र में मृत्यु दर प्रत्येक 1000 लोगों में से 200 है। समर्स ने काफी कटु शब्दों का इस्तेमाल किया लेकिन उन्होंने जो कहा वह आर्थिक और व्यापार वैश्वीकरण का प्रमुख कारक था।
डब्ल्यूटीओ 1995 में बना और 2001 में चीन इसमें शामिल हुआ। तब से पीछे मुड़कर नहीं देखा गया। असलियत यह है कि वैश्विक विनिर्माण पूरी तरह से औद्योगिक दुनिया के देशों से चीन जैसे देशों और फिर वियतनाम, बांग्लादेश और कंबोडिया में स्थानांतरित हो गया। दरअसल यह पूरी तरह से सबसे कम लागत खोजने की प्रक्रिया रही है यानी जैसे-जैसे नियमन और श्रम की लागत बढ़ती है वैसे ही उद्योग उन नई जगहों की तलाश में जुट जाता है जहां उसे लागत के लिहाज से फायदा हो और सख्त नियमन की दिक्कतें न आएं। हम इसे भारत में भी देखते हैं यानी जैसे ही प्रदूषण नियामक शिकंजा कसता है, उद्योग किसी अनधिकृत बस्ती वाले क्षेत्रों में कामकाज चलाने लगते हैं। इस मुक्त-बाजार वाली दुनिया में, बाजार में प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिए श्रम और पर्यावरण की लागत कम करके आंकना पड़ता है। ऐसे में श्रम अधिकारों (बाल श्रम अधिकारों सहित) या पर्यावरण की रक्षा की जरूरत जैसे किसी भी नैतिक बात को छोड़ दें। यह बिल्कुल सही नहीं है।
इस वैश्विक व्यापार व्यवस्था के लगभग 25 वर्षों में अब नए विजेता और पराजित देश हैं। 1990 के दशक की शुरुआत में जब डब्ल्यूटीओ के लिए आर्थर डंकल के मसौदा प्रस्ताव को आगे बढ़ाया जा रहा था तब विकासशील देश इसके विरोध में खड़े हो गए थे। उदाहरण के तौर पर भारत में निर्बाध वैश्विक व्यापार के विचार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हुए क्योंकि ऐसा महसूस किया गया था कि इससे सबसे गरीब लोगों, विशेष रूप से किसानों की आजीविका खत्म होगी और इन्हें पश्चिम के औद्योगीकृत बड़े खेतों से आने वाले खाने-पीने के सस्ते सामानों की डंपिंग का सामना करना पड़ेगा।
1999 में जब कई देशों के मंत्री इस नई वैश्विक अर्थव्यवस्था का जश्न मनाने के लिए सिएटल में जुटे तब इस अनियंत्रित वैश्वीकरण के खिलाफ व्यापक रोष देखा गया था। वहां अमीर देशों के प्रदर्शनकारी भी आए थे जो विनिर्माण के पलायन और बेरोजगारी की समस्या से जूझ रहे थे। इसके कारण जलवायु परिवर्तन दूसरी सबसे बड़ी समस्या बनी है। सच तो यह है कि पश्चिमी देशों में उत्सर्जन वास्तव में कभी कम नहीं हुआ बल्कि यह नए उत्पादन स्थलों पर स्थानांतरित हो गया।
लेकिन इससे फायदा पाने वालों ने यह सुनिश्चित किया कि इन सभी बातों को छिपा दिया जाए। पश्चिमी देशों की कंपनियां कम आय वाले देशों में जाने लगीं और इन्होंने खूब मुनाफा कमाया। इन देशों में उपभोक्ता (हम सभी) सस्ते सामानों के कारण खुश थे। इन सबके बीच सेवा और प्रौद्योगिकी क्षेत्र में काफी तेजी आई, बैंकों और वित्तीय बाजारों ने खूब पैसा कमाया लेकिन खराब आमदनी-वितरण की नीतियों के कारण लोगों के बीच असमानताएं ज्यादा बढ़ीं।
इसका बुलबुला तब फूटा जब ब्रेक्सिट प्रकरण हुआ क्योंकि यह मामला रोजगार से जुड़ा था और जैसा कि मैंने उस वक्त लिखा था यह अमीरों का बदला था। ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में भी आज जैसी ही संरक्षणवादी और टैरिफ की बातें की लेकिन कोविड की बाधाओं के बीच यह दब गया।
अब, जोरदार तरीके से फिर से इसकी वापसी हो गई है। बेशक, वैश्विक व्यापार प्रणाली ने हम सभी को फंसा रखा है। कम मजदूरी वाले देशों को वैश्विक व्यापार से आर्थिक लाभ हुआ है। व्यापार, सेवाओं और वित्त के कारण आपस में जुड़ी इस दुनिया में अलग होने की भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। लेकिन यह स्पष्ट है कि कुछ तो बदलना होगा। यह नई व्यापार प्रणाली जो भी स्वरूप लेती है उसके कारण हमारी दुनिया के अधिकांश हिस्सों में सकारात्मक बदलाव आएगा या उसमें गड़बड़ियां होंगी। आगे हम इसका विश्लेषण करते रहेंगे।
(लेखिका सेंटर फॉर साइंस ऐंड एन्वायरनमेंट से जुड़ी हैं)