हमने अपने जीवन में यातायात जाम को सामान्य मान लिया है। हम खड़े रहते हैं, बैठते हैं, इंतजार करते हैं, गुस्सा होते हैं, कोसते हैं, झल्लाते हैं और निराश हो जाते हैं। जब तक हम अपनी मंजिल तक पहुंचते हैं वास्तव में इतना थक चुके होते हैं कि लगता है मानो दिन शुरू होने से पहले ही खत्म हो गया हो। हर दिन, हमारी यात्रा निराशा के साथ खत्म होती है। इस रोजमर्रा की भागदौड़ में, हम अक्सर अपनी जिंदगी के उन घंटों को गिनना भूल जाते हैं जिन्हें हम ऐसे ही गंवा देते हैं, जो समय परिवार, दोस्तों के साथ बिताया जा सकता था या उस वक्त में अपना मनोरंजन ही किया जा सकता था।
हम इस पर अंतहीन चर्चा करते हैं और ट्रैफिक जाम हमारी बातचीत का हिस्सा बन गया है। फिर भी हैरानी की बात यह है कि हम सच में यह नहीं समझते हैं कि ऐसा क्यों हो रहा है या इसे ठीक करने के लिए क्या करना चाहिए। हमारे दिमाग में केवल यही समाधान हैं कि सिग्नल-फ्री सड़कें हों, फ्लाईओवर बनाएं जाएं और सड़कों को चौड़ा किया जाए। लेकिन जाम जस का तस बना रहता है और इसकी स्थिति बदतर ही होती जाती है।
सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट और डाउन टु अर्थ में मेरे सहकर्मियों ने देश भर के 50 शहरों और कस्बों में इस जाम की समस्या को गहराई से समझने की कोशिश की। उन्होंने एक सामान्य सवाल पूछा, भारत में यातायात की रफ्तार कैसी चल रही है? आश्चर्यजनक रूप से जवाब यह मिला कि अक्सर यह चलता ही नहीं है। एक के बाद एक शहर में, लोगों ने हमें रोजमर्रा की यात्रा से जुड़ी परेशानियों के बारे में बताया। चाहे शहर छोटा हो या बड़ा, महानगर हो या पहाड़ी कस्बा, ज्यादातर शहरों में भीड़भाड़ वाले और सामान्य समय की यात्रा में दोगुना या उससे अधिक का अंतर है, दूसरे शब्दों में, भीड़ वाले वक्त के दौरान अपनी मंजिल तक पहुंचने में दोगुना समय लगता है। दिल्ली और बेंगलूरु जैसे कुछ शहरों में भीड़ वाले समय (पीक आवर) का दायरा बढ़ता जा रहा है।
अब यह इतना है कि दफ्तर वाले समय के बाद भी सड़कें जाम रहती हैं। हम यह भी जानते हैं कि जितना अधिक जाम होगा, उतना ही अधिक वायु प्रदूषण होगा क्योंकि सड़कों पर खड़े वाहन जहरीला धुआं छोड़ते हैं। यानी जाम सिर्फ हमारा समय ही नहीं ले रहा है बल्कि यह वायु प्रदूषण फैला कर हमारे तनाव का स्तर बढ़ाते हुए हमारी सेहत को भी नुकसान पहुंचा रहा है जिससे हमारी उम्र सीमा कम होती है। यह बात इतनी बुरी है कि इसे सामान्य नहीं माना जा सकता है।
जाम की इस परेशानी से निपटने के लिए, हमें इसके राजनीतिक आर्थिक पहलू को समझना होगा। लोग अपनी रोजमर्रा की यात्रा के लिए निजी वाहनों दोपहिया या कारों का विकल्प तेजी से चुन रहे हैं। इसका मतलब है कि भले ही शहरों में सड़कों और फ्लाईओवरों का निर्माण बढ़ रहा है लेकिन कारें, सड़क भर देती हैं। उदाहरण के तौर पर दिल्ली में हर दिन 500 से अधिक नई कारें पंजीकृत होती हैं।
यह सब इतना जाम होने के बावजूद है और हमने जिन शहरों में सर्वेक्षण किया उसमें यह तथ्य निकलकर सामने आया कि इन शहरों में कारों का हिस्सा रोजाना की यात्राओं का केवल 7-11 फीसदी है। बेंगलूरु शहर जाम के लिए कुख्यात है और वहां की व्यापक यातायात योजना के आंकड़ों के अनुसार, कुल यात्राओं का केवल 7 फीसदी हिस्सा कारों से तय किया जाता है। ऐसे में सवाल यह है कि बाकी 80-90 फीसदी यात्राओं के लिए हम कहां और कैसे जगह बनाएंगे, अगर ये कार के जरिये पूरी की जाती हैं?
शहरों में दोपहिया वाहनों का दबदबा है और रोजाना की यात्राओं का 30 से 40 फीसदी तक इसके माध्यम के जरिये पूरा किया जाता है। लेकिन चिंता की बात यह है कि छोटे शहरों में दोपहिया वाहन भी अब कारों से पिछड़ रहे हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि महानगरों में लोग जाम के कारण दोपहिया पसंद करते हैं (ताकि वे तेजी से कहीं पहुंच सकें), लेकिन 10 लाख से कम आबादी वाले शहरों में अधिक जगह होने के कारण कारें सड़कों को भर रही हैं। ऐसे में जाम एक बदसूरत शक्ल अख्तियार कर लेता है। छोटे शहरों में इतनी बड़ी तादाद में जाम बुरी खबर साबित हो रही है।
जाम की समस्या के बीच दरअसल सबसे बड़ी कमी शहरों में सार्वजनिक परिवहन के साधनों की है। सार्वजनिक बसें बहुत कम हैं और इस तंत्र को इसकी अविश्वसनीयता ही पंगु बना देती है। विडंबना यह है कि यह भी खुद जाम का ही नतीजा है। चूंकि बसें जाम में फंस जाती हैं और लोग अपने काम की जगह पर देर से पहुंचते हैं ऐसे में फिर लोग इससे दूर होने लगते हैं। अत्यधिक कुशल मेट्रो तंत्र वाले शहरों में, यात्रियों को जरूर कुछ राहत मिलती है।
लेकिन यहां सुविधा और सामर्थ्य का सवाल उठता है क्योंकि लोग सिर्फ मेट्रो टिकट की लागत नहीं गिनते बल्कि स्टेशन तक पहुंचने और अंतिम मंजिल तक पहुंचने के लिए रिक्शा, टैक्सी या अन्य साधनों के विकल्पों का किराया भी गिनते हैं। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि हमारी सड़कें पैदल चलने वालों के हिसाब से डिजाइन ही नहीं की गई हैं और ऐसे में मेट्रो स्टेशन तक पैदल चलना न तो सुरक्षित है और न ही संभव।
इन सबके बीच, जो चीज तेजी से बढ़ रही है और हमारी सड़कों पर अराजकता बढ़ा रही है, वह है आवागमन के अनौपचारिक साधन जिनमें पारंपरिक ऑटो-रिक्शा से लेकर बैटरी-रिक्शा और मिनी बसें तक शामिल हैं। ये साधन भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि ये लोगों को उनके गंतव्य तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाते हैं और शहरों में लाखों लोगों के लिए एक पसंदीदा और किफायती यात्रा विकल्प के रूप में काम करते हैं। हालांकि, यह बड़े पैमाने पर अनियंत्रित हैं ऐसे में ये जाम को और बढ़ाते हैं।
लेकिन सच्चाई यह है कि हम अपने शहरों में परिवहन को तब तक ठीक नहीं कर सकते जब तक हम इन अनौपचारिक प्रणालियों को स्वीकार नहीं करते और उन्हें अपनी योजना और नियामकीय ढांचे में शामिल नहीं करते हैं। आखिर इस जाम से निकलने का रास्ता क्या है? हम जानते हैं कि क्या करने की जरूरत हैं और इसमें बहुत दिमाग लगाने की जरूरत भी नहीं है। अधिक से अधिक सार्वजनिक परिवहन प्रणालियों पर काम हो जिनमें बसों से लेकर मेट्रो और ट्राम तक शामिल हैं जो लोगों को कुशलता से उनके गंतव्य तक पहुंचा सकें। चलने लायक ज्यादा फुटपाथ बनाए जाएं ताकि लोग किसी दूर जगह भी सुरक्षित तरीके से पहुंच सकें। इसके अलावा छोटी दूरी तय करने के लिए जो साधन हों उन्हें भी एकीकृत किया जाए ताकि इन वाहनों की आवाजाही पर नियमन हो सके।
यातायात नियमों के उल्लंघन के लिए सख्त दंडशुल्क लगाया जाना चाहिए खासतौर पर अवैध और अव्यवस्थित पार्किंग के लिए, जो कहीं भी कर दी जाती है। हम लोग यह सब पहले से ही जानते हैं। लेकिन हम अब भी इस पर काम नहीं कर रहे हैं। इसके बजाय, हम बस यह उम्मीद करते रहते हैं कि अगली बार सड़क का चौड़ीकरण इस परेशानी को खत्म कर देगा। इस वक्त हमारे लिए जागरूक होना और यातायात की समस्या पर गंभीर होना बेहद जरूरी है।
(लेखिका सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट से जुड़ी हैं)