पिछले कुछ समय से ‘एनरॉन एग’ सोशल मीडिया पर काफी चर्चा में रहा है। मेज पर रखने लायक इस सफेद अंडे जैसे उपकरण को माइक्रो न्यूक्लियर रिएक्टर बताया जा रहा है। दावा किया जा रहा है कि यह 10 साल तक आपके घर को बिजली दे सकता है। कहने की जरूरत नहीं कि यह पूरी तरह झूठ है। अमेरिका की ऊर्जा कंपनी एनरॉन के दिवालिया होने के बाद इसका नाम और प्रतीक चिह्न (लोगो) कंटेंट तैयार करने वाली किसी कंपनी ने खरीद लिया। यह कंपनी व्यंग्य, कटाक्ष भरी सामग्री तैयार करने के लिए जानी जाती है और खुद यह स्वीकार भी करती है। यह उपकरण नई एनरॉन के मुख्य कार्याधिकारी कॉनर गेडोस ने पेश किया था। गेडोस ने किसी के साथ मिलकर ‘बर्ड्स आर नॉट रियल’ किताब भी लिखी है। यह किताब ऑनलाइन चल रहे साजिश के सिद्धांतों का भंडाफोड़ करती है।
सबसे पहले तो इस उपकरण का नाम ही शक पैदा करता है क्योंकि एनरॉन की दिवालिया होने की प्रक्रिया बहुत चर्चा में रही थी। परमाणु ऊर्जा की थोड़ी बहुत जानकारी रखने वाला व्यक्ति भी समझ सकता है कि ‘एनरॉन एग’ विशुद्ध रूप से विज्ञान कल्पना है और कुछ नहीं। तथ्यों की सत्यता जांचने वालों और ऐसी संस्थाओं (फैक्ट चेकर) ने भी यही बताया है तथा कई सोशल मीडिया यूजर इस पर चुटकुले और मीम भी बना चुके हैं। मगर हजारों लोग ऐसे भी थे, जिन्हें लगा कि यह बात बिल्कुल सच है। हो सकता है कि नई एनरॉन इसका फायदा उठाकर कमाई भी करने लगे।
‘फर्जी खबरों’ को फैलाने और बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने का सोशल मीडिया का यह अपना अंदाज है। इसमें हास्य-विनोद झलकता है और किसी को नुकसान भी नहीं होता। किसी ने महज भ्रम फैलाने के उद्देश्य से एक शिगूफा चला दिया, जिसकी खूब चर्चा हुई तो उसे इसका फायदा भी मिलना चाहिए। मगर छह महीने
पहले हमने सोशल मीडिया पर फर्जी खबरें फैलने का नुकसानदेह पहलू भी देखा। 29 जुलाई को एक किशोर इंगलैंड के छोटे से शहर साउथपोर्ट में एक डांस क्लास के भीतर घुस गया और कई बच्चों को चाकू घोंप दिया। उनमें से तीन बच्चों की मौत भी हो गई। हमला करने वाला यह किशोर एक्सेल रुडाकुबाना था। वह 17 साल का था, ब्रिटेन का नागरिक था और कार्डिफ में पैदा हुआ था। एक्सेल रवांडा मूल का था और ईसाई मत को मानता था। उस पर हत्या, हत्या के प्रयास और आतंकवाद से जुड़े अपराधों के लिए मुकदमा चलाया जा रहा है।
अमूमन नाबालिग अपराधियों के नाम और उनसे जुड़ी दूसरी जानकारी सार्वजनिक नहीं की जाती है। मगर इस घटना के बाद जो हिंसा हुई, उसे देखकर ब्रिटेन की सरकार को पूरी जानकारी सार्वजनिक करनी पड़ी। चरम दक्षिणपंथी धड़े से जुड़े लोगों ने दावा करना शुरू कर दिया कि हमलावर मुस्लिम था और ब्रिटेन में शरण लेने आया था। सोशल मीडिया पर इन लोगों के भड़काऊ पोस्ट आने के बाद अगस्त में ब्रिटेन और उत्तरी आयरलैंड में जातीय दंगे भड़क उठे। एशियाई मुस्लिम समुदाय और उसके पूजा स्थलों को दंगाइयों ने निशाना बनाया।
कुछ दंगाई और दंगे भड़काने वाले लोग गिरफ्तार किए जा चुके हैं और सजा भी काट रहे हैं। सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक पोस्ट लिखने के लिए कुछ लोगों के खिलाफ आपराधिक मामले भी दर्ज किए गए हैं। कुछ लोग साफ बचकर निकल भी गए।
इस पूरे मामले में हिंसा भड़काने वाले कुछ चरमपंथी लोगों को आर्थिक फायदा जरूर हुआ होगा। दंगे भड़कने के बाद पत्रकारों ने देखा कि सोशल मीडिया पर पोस्ट करने वाले चरम दक्षिणपंथी, नव-नाजी ब्रिटिश धड़े के कई लोगों को किस तरह कमाई होती है। इनमें कई लोगों की सोशल मीडिया एक्स के राजस्व साझेदारी मॉडल से कमाई होती है। एक्स ‘पोस्ट लिखने वाले कुछ प्रमुख लोगों’ को विज्ञापने से होने वाली कमाई का कुछ हिस्सा देती है।
मामला सीधा और साफ है। किसी पोस्ट पर लोगों की जितनी ज्यादा प्रतिक्रिया आएंगी, जितने ज्यादा लोग उसे देखेंगे, उसे विज्ञापन से उतनी ही ज्यादा कमाई होने की संभावना बनेगी। ट्वीट जितना ज्यादा विवादित होगा उस पर प्रतिक्रिया या टीका-टिप्पणी आने की संभावनाएं भी उतनी ही ज्यादा होंगी।
टॉमी रॉबिन्सन के नाम से पोस्ट लिखने वाले स्टीफन याज्ली-लेनन चरम दक्षिणपंथी ‘इंगलिश डिफेंस लीग’ चलाते हैं। उनकी संपत्ति 10 लाख स्टर्लिंग से अधिक है। रॉबिन्सन इस समय जेल में हैं और 18 महीने की सजा काट रहे हैं क्योंकि उन्होंने सीरिया से आए 15 साल के एक शरणार्थी के बारे में भ्रामक पोस्ट नहीं डालने के आदेश का उल्लंघन किया था।
एक्स उनके पर 10 लाख से अधिक फॉलोअर हैं और फेसबुक पर भी उनके मुरीदों की संख्या कम नहीं है। उन्हें 2018 में ट्विटर पर प्रतिबंधित कर दिया गया था मगर ईलॉन मस्क ने उनका खाता दोबारा चालू करा दिया। मस्क ने रॉबिन्सन को जेल से रिहा कराने के लिए अभियान भी चलाया था। रॉबिन्सन न केवल भ्रम और झूठ फैलाने वाली विचारधारा का प्रसार कर रहे हैं बल्कि उन्होंने सोशल मीडिया पर नफरत फैलाने वाले पोस्ट से अच्छी-खासी कमाई भी की है।
अब इन दोनों उदाहरणों की आपस में तुलना सोशल मीडिया की खूबियों का व्यक्तिगत लाभ के लिए इस्तेमाल के लिहाज से की जाए। आपको आभास होगा कि अभिव्यक्ति की आजादी बनाम तथ्यों की जांच से जुड़ी मौजूदा बहस वास्तविक जीवन में क्या परिणाम ला सकती है।
भ्रामक खबरें फैलाने वाले फैक्ट चेकिंग की सुविधा बंद करने की मांग अक्सर इस दलील के साथ करते हैं कि इससे उनकी बोलने की आजादी में रुकावट पड़ती है। मगर फैक्ट चेक करने यानी तथ्यों की जांच करने से बोलने की आजादी में खलल कहां पड़ता है। असल में एनरॉन खुद ही फैक्ट चेकिंग में आगे रहती थी और धरती को चपटी बताने वाले जो चाहें लिख सकते हैं।
लेकिन जहां आग न लगी हो वहां आग-आग चिल्लाने से भगदड़ मच सकती है। किसी हत्यारे की पृष्ठभूमि के बारे में भ्रामक जानकारी डालने से दंगे भड़क सकते हैं। यह बिल्कुल वैसा ही है, जैसे घोड़ों के पेट के कीड़े मारने वाली दवा को कोविड-19 की दवा बताते रहना। इससे तो महामारी और भी फैलती जाएगी।
केवल भ्रामक जानकारी देने या नफरत फैलाने वाले विचार रखने पर अभिव्यक्ति की आजादी खत्म नहीं की जाना चाहिए। इस पर तभी अंकुश लगाया जाना चाहिए जब इससे हानि पहुंचने की आशंका हो। दुर्भाग्य है कि फैक्ट चेकिंग की सुविधा भ्रामक जानकारी को सोशल मीडिया पर जाने से रोक नहीं सकती। मगर यह छन्नी का काम जरूर करती है, जिससे नुकसान कम करने में मदद मिलती है। अब फैक्ट चेकिंग सुविधा हटाई जा रही है तो इसलिए साउथपोर्ट जैसे कई और दंगे भड़क सकते हैं।