बीते दो सालों में भारत का (नॉमिनल) निवेश सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का करीब 33 फीसदी था और 2024-25 में भी वह लगभग उसी स्तर पर रह सकता है। वित्त वर्ष 25 की पहली छमाही में यह 33.8 फीसदी था जो वित्त वर्ष 24 की पहली छमाही के अनुरूप ही था। यह स्तर महामारी के पहले के साल के 31 फीसदी के स्तर से बेहतर था।
इससे भी महत्त्वपूर्ण बात, देश का चालू खाता घाटा वित्त वर्ष 24 में जीडीपी का 0.7 फीसदी था और वित्त वर्ष 25 की पहली छमाही में यह जीडीपी के 1.6 फीसदी के बराबर रहने की उम्मीद है जबकि वित्त वर्ष 24 की पहली छमाही में यह करीब 1.2 फीसदी था। वित्त वर्ष 25 में चालू खाते का घाटा जीडीपी के एक फीसदी के बराबर था। वर्ष के दौरान भारत की बचत जीडीपी के 32 फीसदी के बराबर रहेगी जो महामारी के पहले के औसत के अनुरूप होगा।
वित्त वर्ष 24 में देश की वास्तविक जीडीपी वृद्धि 8.2 फीसदी थी और विगत तीन वर्षों में इसका औसत 8.3 फीसदी रहा। ऐसे में मुझे बचत और निवेश की चिंता क्यों करनी चाहिए? चूंकि चालू खाते का घाटा निवेश और सकल घरेलू बचत (जीडीएस) के बीच का अंतर होता है इसलिए देश के बाहरी घाटे या चालू खाते के घाटे में घरेलू भागीदारों की हिस्सेदारी का विश्लेषण करना दिलचस्प है।
किसी भी अर्थव्यवस्था में तीन भागीदार होते हैं- कॉर्पोरेट सेक्टर (निजी और सरकारी वित्तीय और गैर वित्तीय कंपनियों समेत), सरकार (केंद्र और राज्य सरकारें) और घरेलू क्षेत्र। चालू खाते के घाटे का आकलन इन तीनों घरेलू प्रतिभागियों की बचत और निवेश के बीच के अंतर के रूप में किया जा सकता है।
देश का कारोबारी क्षेत्र एक बड़े विशुद्ध उधारी वाले क्षेत्र से एक ऐसे क्षेत्र में बदल गया हैजो मामूली घाटे वाला है। इसका अर्थ यह है कि पिछले कई सालों यानी 2017 से 2024 के बीच से कारोबारी निवेश क्षेत्र की बचत के या तो बराबर रहा है या उससे मामूली अधिक ही रहा है। इससे पहले वित्त वर्ष 2006 से 2011 के बीच विशुद्ध उधारी की दर जीडीपी के 6-8 फीसदी तक रही है।
ऐसा इसलिए कि कारोबारी बचत विगत एक दशक में जीडीपी के 13-14 फीसदी के साथ अपने उच्चतम स्तर पर रही। इस दौरान कारोबारी निवेश जीडीपी के 14 फीसदी के आसपास बना रहा। जबकि वित्त वर्ष 16 तक वह करीब 17 फीसदी था। इसी अवधि में विशुद्ध उधारी भी महामारी के पहले के वर्षों की तुलना में अधिक रही। हालांकि 2021 के बाद से इसमें काफी कमी आई है। ऐसे में परिवारों का शुद्ध अधिशेष हाल के वर्षों में नाटकीय रूप से कम हुआ है। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार 2023 में आम परिवारों की वित्तीय बचत जीडीपी के 5.3 फीसदी के साथ कई दशकों के निचले स्तर पर आ गई। हमारा अनुमान है कि 2024 में इसमें कुछ सुधार होगा। कुल मिलाकर इससे संकेत निकलता है कि देश का चालू खाते का घाटा इसलिए नियंत्रित है क्योंकि कारोबारी क्षेत्र सतर्क है।
भविष्य में इसमें बदलाव आ सकता है। अगर कारोबारी निवेश में सुधार होता है तो कारोबारी विशुद्ध उधारी या घाटा बढ़ेगा। अगर मान लिया जाए कि इससे अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ेगा तो कारोबारी घाटे में ऐसा इजाफा या तो चालू खाते के घाटे में इजाफा करेगा या फिर उच्च घरेलू बचत से उसकी भरपाई होगी। यही पहेली है। सरकारी क्षेत्र वित्त वर्ष 26 तक राजस्व घाटे को जीडीपी के 4.5 फीसदी के स्तर तक लाने को लेकर एकदम स्पष्ट रहा है। अब वह तय नहीं कर पा रहा है कि राजकोषीय समेकन जारी रहेगा और अगर हां तो किस गति से? सरकार ने संकेत दिया है कि वह अपना ध्यान ऋण-जीडीपी अनुपात पर केंद्रित करेगी। यह अच्छा विचार हो सकता है। हालांकि उसने यह संकेत भी दिया है कि राजकोषीय समेकन भविष्य में अधिक चरणबद्ध ढंग से हो सकता है।
इसी दौरान बीते दशक में व्यक्तिगत व्यय योग्य आय में धीमी वृद्धि को देखते हुए घरेलू शुद्ध वित्तीय बचत में इजाफे का अर्थ होगा परिवारों द्वारा किए जाने वाले व्यय में कमी। इसका असर जीडीपी वृद्धि पर भी पड़ेगा। इसे कमजोर मांग का एक दुष्चक्र शुरू हो सकता है जो कारोबारी निवेश को गति पकड़ने से रोक सकता है।
चाहे जो भी हो इस बात की संभावना बहुत अधिक है कि अगर निवेश जीडीपी अनुपात बढ़ता है तो इसकी भरपाई घरेलू बचत में कुछ हद तक सुधार से होगी और चालू खाते के घाटे में इजाफा होगा। ऐतिहासिक आंकड़े भी ऐसे ही प्रमाण देते हैं। अतीत में जब भी हमारी निवेश दर में वृद्धि हुई है उस समय हमारे चालू खाते का घाटा भी बढ़ा है। 1980 के दशक के मध्य, 2000 के दशक के मध्य और 2010 के दशक के आरंभिक सालों में हम ऐसा देख चुके हैं।
यह मानते हुए कि 8 फीसदी की वास्तविक वृद्धि दर हासिल करने के लिए निवेश अनुपात को 3-4 फीसदी बढ़ाकर जीडीपी के 36-37 फीसदी तक पहुंचाना होगा। परंतु हमारे पास बाहरी उधारी की मदद से उच्च निवेश की फंडिंग की अधिक गुंजाइश नहीं है। ज्यादा से ज्यादा हम चालू खाते के घाटे में एक से 1.2 फीसदी का इजाफा होने दे सकते हैं। यानी निवेश में दो तिहाई इजाफा सकल घरेलू बचत में इजाफे के जरिये करना होगा।
फिलहाल यह बड़ा काम लग रहा है क्योंकि वित्त वर्ष 26 के बाद राजकोषीय समेकन को लेकर स्पष्टता नहीं है। परंतु क्या हमें वास्तविक निवेश पर नजर नहीं डालनी चाहिए? जब हम इन्क्रीमेंटल कैपिटल-आउटपुट रेशियो का विश्लेषण करते हैं तो बेहतर यही है कि हम वास्तविक शुद्ध जमा निवेश अनुपात पर नजर डालें बजाय कि नॉमिनल सकल निवेश के। वित्त वर्ष 22 से 24 के बीच 33 फीसदी के नॉमिनल सकल निवेश-जमा अनुपात की तुलना में देश का वास्तविक शुद्ध जमा निवेश अनुपात जीडीपी के 23.5 फीसदी रहा।
ऐसे में देश की निवेश दर में तीन-चार फीसदी का इजाफा करने की जरूरत है ताकि 8 फीसदी की वास्तविक जीडीपी हासिल करने की दिशा में बढ़ा जा सके। इसकी पूर्ति उच्च सकल घरेलू बचत से होनी चाहिए और मेरी समझ से यही उच्च वृद्धि के समक्ष सबसे बड़ी पहेली है।
(लेखक मोतीलाल ओसवाल फाइनैंशियल सर्विसेज में मुख्यअर्थशास्त्री हैं)