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छिपे हुए कानून का बंद हो चलन

कारोबार सुगमता और कानूनों की लोकतांत्रिक वैधता सुनिश्चित करने के लिए सर्कुलर की सख्ती खत्म होनी चाहिए। बता रहे हैं एम एस साहू और सुमित अग्रवाल

Last Updated- May 29, 2024 | 9:55 PM IST
Governance by disguised legislation छिपे हुए कानून का बंद हो चलन

बंबई उच्च न्यायालय ने इस साल 4 अप्रैल को अपने एक फैसले में भारतीय दिवाला एवं शोध अक्षमता बोर्ड (आईबीबीआई) द्वारा जारी एक परिपत्र (सर्कुलर) की कुछ धाराओं को खत्म कर दिया। अदालत का कहना था कि कानूनी नियम वाली ये धाराएं, भुगतान प्रक्रिया नियमन से परे हैं। हालांकि इसमें कहा गया कि आईबीबीआई के लिए यह भी व्यावहारिक होगा कि यह विधायी प्रक्रिया का पालन करते हुए इन्हीं धाराओं की सामग्री में संशोधन का प्रस्ताव कर सकता है लेकिन इसके लिए नियमन बनाने की पूरी प्रक्रिया पर अमल करना होगा।

दूसरा मामला, कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा 10 अप्रैल, 2024 के आदेश में केंद्र सरकार द्वारा जारी एक परिपत्र पर रोक लगाने से जुड़ा है जिसके तहत कुत्तों की ‘आक्रामक नस्ल’ पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया गया था। अदालत ने कहा कि यह परिपत्र नियमों से अधिक सख्त था।

हालांकि, अदालत ने यह भी कहा कि केंद्र सरकार कानून की उचित प्रक्रिया का पालन करते हुए नियमों में संशोधन कर सकती है। हाल के दो अदालती फैसलों से यह बात स्पष्ट हुई है कि कोई परिपत्र किसी नियम/नियमन की जगह नहीं ले सकता है जो ऐसे उपकरण हैं जिनके माध्यम से अधिकारी कानूनी नियमों के बारे में बता सकते हैं यानी सरकारी विभाग या कंपनी के बोर्ड सिर्फ दिशानिर्देश जारी कर कानूनी नियम नहीं बना सकते।

करीब एक साल पहले प्रतिभूति अपील न्यायाधिकरण ने भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) के एक आदेश को खारिज कर दिया। न्यायाधिकरण ने कहा कि प्रतिभूति को जमानत पर रखे जाने से जुड़े परिपत्र पर यह आदेश पर आधारित था जो उस मामले पर लागू नहीं होता था।

न्यायाधिकरण ने यह भी स्पष्ट किया कि परिपत्र सिर्फ उन्हीं लोगों के लिए होता है जिनके लिए वह जारी किया जाता है। बाकी पर इस परिपत्र पर अमल करने का कोई दायित्व नहीं होता है, भले ही वह उसी परिपत्र से जुड़े लोगों के साथ और उनके लिए ही क्यों न काम कर रहे हों। अगर उस परिपत्र के प्रावधानों को नियमन के रूप में पेश किया जाता तब शायद यह आदेश सही ठहरता। शीर्ष अदालत पहले से भी इस बात को कहती रही है कि कानूनी नियम तय करने के लिए सिर्फ परिपत्र काफी नहीं होते।

परिपत्र सिर्फ यह बताता है कि कानून बनाने वाले संस्थान किसी खास कानून को कैसे समझते हैं। अगर यह गलत या मौजूदा कानून के विरुद्ध है तो उस परिपत्र को कोई कानूनी मान्यता नहीं मिलती है। हालांकि, अगर कोई गलत परिपत्र लोगों के फायदे के लिए बनाया गया है तो वह सिर्फ उसी संस्थान पर लागू होगा जिसने वह परिपत्र जारी किया है। इसलिए, ज्यादातर कानून ये नहीं मानते कि कानूनी नियम सिर्फ परिपत्र जारी करके बनाए जा सकते हैं।

कानूनी नियम तय करने के लिए दो तरह के कानून बनाने की प्रक्रिया है। प्राथमिक कानून और द्वितीयक/अधीनस्थ कानून। प्राथमिक कानून विधायिका द्वारा बनाया जाता है जबकि द्वितीयक कानून प्राथमिक कानून के अधीन होते हैं और इन्हें कार्यपालिका (सरकार नियम बनाती है और नियामक संस्थाएं नियमन करती हैं) विधायिका के प्रतिनिधि के तौर पर बनाती है। हालांकि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई छिपे हुए कानून (जो कानून के रूप में औपचारिक रूप से पारित नहीं किए जाते हैं, लेकिन फिर भी कानूनी रूप से बाध्यकारी होते हैं) उभरे हैं जिसे अफसरशाही व्यवस्था (आमतौर पर वरिष्ठ अधिकारी द्वारा) द्वारा बनाया जाता है ताकि कानूनी नियमों में सेंध लगाई जा सके। ये कई तरह के स्वरूप में नजर आते हैं जैसे कि निर्धारण, दिशा, निर्देश, आदेश, व्यवस्था, योजना, रणनीति, दिशानिर्देश, संहिता, मानक, प्रोटोकॉल, अधिसूचना, नोटिस घोषणा, अग्रिम नियम, स्पष्टीकरण, प्रेस विज्ञप्ति, आदि।

वहीं भारतीय संदर्भ में अधीनस्थ कानून को कई प्रक्रियात्मक और सारभूत सुरक्षा उपायों से गुजरना पड़ता ताकि अनिर्वाचित लोगों द्वारा बनाए गए कानून की लोकतांत्रिक वैधता सुनिश्चित की जा सके। मिसाल के तौर पर नियमन को ही लें।

(क) प्राथमिक कानून यह तय करता है कि नियम किस विषय और उद्देश्य के लिए बनाए जा सकते हैं, (ख) यह बताता है कि सिर्फ नियामक संस्था का प्रशासित बोर्ड ही नियम बना सकता है और यह कभी-कभी केंद्र सरकार की पूर्व स्वीकृति के साथ ऐसा किया जा सकता है। (ग) प्रस्तावित नियमों पर सार्वजनिक परामर्श की आवश्यकता होती है और साथ ही प्रस्ताव के संभावित असर का आकलन पहले ही करना जरूरी होता है (घ) इसके लिए राजपत्रित अधिसूचना जारी करने की जरूरत होती है ताकि सभी को नियमों की जानकारी हो (ड.) इस कानून के तहत बनने वाले नियमों की संसद में जांच की जा सकती है, ये सभी चीजें छिपे हुए कानून पर लागू नहीं होते हैं। ऐसे में एक सर्कुलर जारी कर यह नियम बनाया जा सकता है जिसमें यह कहा जाएगा कि बाजार में जाने वाले लोगों को मंगलवार को लाल टोपी नहीं पहननी चाहिए!

प्राथमिक कानून सिर्फ नियमन के जरिये ही कानून बनाने की परिकल्पना करता है। यह नियामक को नियम बनाने का अधिकार किसी और को देने से रोकता है। हालांकि, छिपे हुए कानून का इस्तेमाल करने पर कोई स्पष्ट रोक नहीं है, भले ही कानून इसे मान्यता नहीं देता है। कानून बनाने की प्रक्रिया की सख्ती का संबंध उस कानून की लोकतांत्रिक वैधता से सीधे तौर पर जुड़ा है।

प्राथमिक कानून बनाने की प्रक्रिया सबसे सख्त होती है, इसलिए इसे सबसे अधिक वैध माना जाता है। अधीनस्थ कानून की वैधता उससे थोड़ी कम होती है। छिपे हुए कानूनों की वैधता सबसे कम होती है क्योंकि ये सख्त जांच-पड़ताल की प्रक्रिया से नहीं गुजरते हैं। शायद इसीलिए प्रशासन कानूनी नियम बनाने के लिए अधीनस्थ कानून के बजाय छिपे हुए कानून का सहारा लेता है, भले ही उनकी कानूनी वैधता संदिग्ध हो।

बाजारों से जुड़े अधीनस्थ कानूनों का दायरा प्राथमिक कानून से कहीं ज्यादा व्यापक है। छिपे हुए कानूनों की तादाद, प्राथमिक और अधीनस्थ कानून दोनों को मिलाकर देखने के मुकाबले भी ज्यादा है। यह विधायिका से कार्यपालिका और कार्यपालिका से नौकरशाही तक सत्ता के संतुलन में बदलाव को दर्शाता है।

इसी वजह से दुनिया भर में इस बात की मांग हो रही है कि सत्ता का संतुलन फिर से विधायिका में समाहित किया जाए और अधीनस्थ कानूनों पर निर्भरता कम की जाए। इसके अलावा यह भी मांग की जा रही है कि छिपे हुए कानूनों पर पूरी तरह से रोक लगाई जाए, सिवाय कोविड-19 जैसी आपात स्थितियों को छोड़कर।

ब्रिटेन के हाउस ऑफ लॉर्ड्स की दो प्रवर समितियों ने नवंबर 2021 में दो रिपोर्टों में इस बारे में चिंता जताई थी कि कैसे अधीनस्थ और छिपे हुए कानून प्रभावी तरीके से विधायिका को दरकिनार कर रहे हैं। संसद को वापस सारी शक्तियां देने की बात करने के साथ ही दे देनी चाहिए। उन्होंने यह भी चिंता जताई कि अगर किसी प्रतिनिधिमंडल-कार्यपालिका समूह को कानून बनाने का अधिकार दिया जाता है तो यह जनता के प्रति जवाबदेही के सिद्धांत को और भी ज्यादा कमजोर कर देगा। सीधे तौर पर सरकार को कुछ छोटे कानून बनाने का अधिकार देना, उस समूह को ज्यादा ताकत देने से बेहतर है।

परिपत्र का समर्थन अक्सर इस वजह से दिया जाता है कि किसी आपात स्थिति से निपटने के लिए कार्यपालिका को तुरंत हस्तक्षेप करने की जरूरत पड़ सकती है। कार्यपालिका को सीमित समय के लिए आपातकालीन अधीनस्थ कानून जारी करने का अधिकार दिया जा सकता है, जिन्हें नियम बनाने की सामान्य प्रक्रिया का पालन किए बिना भी लागू किया जा सकता है। हालांकि, इसका मतलब ये नहीं है कि सर्कुलर जैसे दिशानिर्देश की कोई जरूरत नहीं है। कानूनी नियम बनाने के बजाय, इनका इस्तेमाल नियमों को लागू करने और उनका पालन करने में आसानी लाने के लिए किया जा सकता है।

यह सही वक्त है जब संसद किसी भी तरह के छिपे हुए कानून पर पूरी तरह से रोक लगा दे। कार्यपालिका और नियामक संस्थाओं को भी निर्देश दिए जाने चाहिए कि अब से सिर्फ अधीनस्थ कानून के जरिये ही कानूनी नियम तय किए जाएं। अगर कोई मौजूदा छिपा हुआ कानून प्रासंगिक है तब उसे उचित प्रक्रिया का पालन करते हुए नियमों में बदला जाना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता है तब एक निश्चित समय सीमा के अंदर उन्हें वापस ले लेना चाहिए। परिपत्र राज को अवश्य खत्म किया जाना चाहिए जो कानूनों की लोकतांत्रिक वैधता और कारोबार सुगमता के हित में है।

(लेखक लीगल प्रै​क्टिशनर हैं)

First Published - May 29, 2024 | 9:55 PM IST

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