भारत की अर्थव्यवस्था धीमी पड़ रही है और इसकी सबसे ज्यादा चोट मध्य वर्ग पर पड़ रही है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को इसकी परवाह क्यों नहीं है और वह उन्हें तवज्जो क्यों नहीं दे रही है, इस पर बाद में आएंगे। उससे पहले ज्यादा बड़े संकट की बात कर लेते हैं। भारत की आर्थिक गति केवल एक तिमाही के खराब प्रदर्शन से सुस्त नहीं पड़ी है। केंद्र सरकार के सांख्यिकी संस्थान, भारतीय रिजर्व बैंक और तमाम वैश्विक संस्थानों ने चालू वित्त वर्ष के लिए देश की आर्थिक वृद्धि का अनुमान घटाकर 6.5 प्रतिशत के आसपास कर दिया है।
हालात बदलने की संभावनाएं भी नजर नहीं आ रही हैं। अर्थशास्त्र मेरे लिए पेचीदा रहा है, इसलिए मैं उसी की बात करूंगा, जो मेरे लिए सहज है यानी राजनीति और जनता का मत। अब उम्मीदें धुंधली पड़ रही हैं और ‘सबको मात देने वाले भारत का वक्त आ गया है’ वाला जज्बा भी गायब हो रहा है। यूं कहें कि देश की हवा बदल गई है। देसी करोड़पति विदेश में जायदाद और मकान खरीद रहे हैं और उनके साथ आने वाले लंबी अवधि के वीजा भी ले रहे हैं। करोड़पतियों के भारत छोड़कर जाने के आंकड़े सबके सामने हैं। हेनली प्राइवेट वेल्थ माइग्रेशन रिपोर्ट के अनुसार पिछले दो साल में औसतन 5,000 करोड़पति हर साल भारत छोड़ रहे हैं। मगर आप इन करोड़पतियों को कभी कोई शिकायत करते नहीं सुनेंगे क्योंकि वे कोई पंगा नहीं लेना चाहते।
असलियत यह है कि उनके पास अथाह धन है और भारत में निवेश करने के बजाय वे उसे विदेश लेकर जा रहे हैं। यह कानून के दायरे में है और इतनी बड़ी संख्या में लोग बाहर जाएं तो उनकी जानकारी गोपनीय तथा सुरक्षित रखी जाती है। मगर जो इनसे भी बड़े धन कुबेर हैं वे कहां जा रहे हैं?
देश छोड़ कर जाने वाले करोड़पतियों को छोड़कर अरबपतियों या अरबों डॉलर वाले धन कुबेरों पर आते हैं। इनमें ज्यादातर उद्यमी ही होंगे और इन लोगों की संख्या बहुत अधिक नहीं है। फोर्ब्स के हालिया आंकड़े बताते हैं कि भारत में ऐसे केवल 200 व्यक्ति या परिवार हैं। करोड़पति चुपके से देश छोड़ रहे हैं मगर अरबपतियों का रुख ठीक उलटा है। वे अपनी बात जोर-शोर से रख रहे हैं और सरकार की तारीफों के पुल बांध रहे हैं। भारत ‘पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और जल्द ही तीसरी सबसे बड़ी बन जाएगा’ या वह दुनिया में ‘सबसे तेज बढ़ रही अर्थव्यवस्था है’ के जुमले रटते हुए वे भारत में ही जमे हुए हैं।
बात यह है कि ये अरबपति निवेश नहीं कर रहे हैं। इसकी वजह यह नहीं है कि उन्हें भारत से प्रेम नहीं है। वित्त मंत्री की तमाम नसीहतों और शिकायतों के बाद भी अगर वे निवेश नहीं कर रहे तो इसकी वजह मांग की कमी है। जब उन्हें मांग ही नहीं दिख रही तो वे क्या निवेश करें और क्यों करें? कोई जबरदस्ती तो नहीं है कि वे अपने शेयरधारकों का धन झोंककर ऐसी संपत्तियां तैयार करें, जिन्हें कोई खरीदने या इस्तेमाल करने वाला ही नहीं है। समस्या की जड़ यहीं नजर आती है। आखिर मांग थम क्यों गई है?
देश में ज्यादातर मांग आबादी के सबसे बड़े तबके यानी मध्य वर्ग से ही आती है। मध्य वर्ग की भाषा पेचीदा जरूर है मगर हम मोटे तौर पर मान लेते हैं कि जिस वर्ग के पास अपनी बुनियादी जरूरतें (भोजन, बच्चों की शिक्षा, आवास, स्वास्थ्य और आवागमन के साधन) पूरी करने के बाद खर्च करने के लिए कुछ रकम बच जाती है वह मध्य वर्ग कहलाता है।
यह बहुत बड़ा वर्ग है, जिसमें 12 लाख रुपये से 5 करोड़ सालाना तक कमाने वाले लोग हैं, जो चुपचाप बैठे परेशान हो रहे हैं। वे इतने अमीर नहीं हैं कि अपनी जायदाद के साथ कानूनी तौर पर विदेश चले जाएं, उनसे बहुत कर वसूला जाता है और जिनके निवेश की कीमत पिछले एक साल में बहुत घट गई है। हास्यास्पद बात यह है कि उनमें जो ज्यादा अमीर हैं यानी 2 करोड़ रुपये सालाना या उससे ज्यादा कमाते हैं, उनकी कमाई का जितना हिस्सा कर में चला जाता है, शीर्ष कंपनियों या अरबपतियों की कमाई का उससे बमुश्किल आधा हिस्सा ही कर में जाता है।
इन लोगों ने मेहनत से अपना मुकाम हासिल किया है और ये पहली पीढ़ी के ऊंचे अरमानों वाले नए धनी हैं, जिनकी बदौलत भारत आगे बढ़ रहा था। मगर अब उन पर तगड़ी चोट पड़ रही है। ईंधन के दाम आसमान पर हैं, आयकर उन्हें निचोड़ रहा है और अक्सर उन्हें यह कहते हुए सुना जाता है कि सरकार उनसे जितना कर ले रही है बदले में उससे बहुत कम सुविधाएं दे रही है। म्युचुअल फंड, शेयर, जायदाद पर हुए पूंजीगत लाभ और बॉन्ड पर करों में रियायत खत्म हो रही है। वे जहां रहते हैं, वहां बढ़ते खर्च से परेशान हैं, बेशक उसका जिक्र महंगाई के आंकड़ों में न होता हो। निजी स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने पर आने वाला खर्च इसका एक बड़ा उदाहरण है।
मध्य वर्ग खर्चों से इतना परेशान है कि खरादीरी ही नहीं कर रहा या उसे टाल रहा है। मांग गायब होने की पहली वजह यही है। प्रधानमंत्री ने एक दिन कहा कि भारत के लोग एक साल में 2.5 करोड़ कारें खरीदते हैं, जो कई देशों की आबादी से भी अधिक है। यह बात बिल्कुल सच है। मगर जब आप असलियत खंगालते हैं तो तब पता चलता है कि असल में ये कारें कौन खरीद रहे हैं – सस्ती कारें बिक ही नहीं रही हैं और महंगी कारों के इंतजार में कतार लगी है। इससे पता चलता है कि मध्य वर्ग किस कदर ऊब चुका है। नई किस्म की राजनीति देखकर उनके अंदर गुस्सा भरा हुआ है।
मध्य वर्ग इस बात से जल भुन रहा है कि राजनीतिक दल उन पर भारी भरकम कर लगाकर रकम वसूल रहे हैं और उसे वोट खरीदने के लिए गरीब वर्ग पर लुटा रहे हैं। इन दलों में भाजपा सबसे आगे है। पिछले 11 साल में भाजपा सरकारों ने मुफ्त खाद्यान्न समेत तमाम योजनाओं के नाम पर करीब 20 लाख करोड़ रुपये सीधे गरीबों में बांट दिए हैं। अब तो केंद्र और राज्य दोनों जगह खुले हाथों से रेवड़ी बांटी जा रही हैं। इसकी वजह यह है कि राज्यों में चुनावी राजनीति पूरी तरह सौदेबाजी हो गई है। जनता को बताया जा रहा है कि वोट के बदले उन्हें क्या-क्या मिलेगा। यह रॉबिन हुड जैसा मामला है मगर थोड़ा फर्क है। रॉबिन हुड अमीरों से धन छीनकर गरीबों में बांटता था मगर मोदी सरकार तो कर के नाम पर मध्य वर्ग को चूसकर गरीबों को तोहफे दे रही है। दूसरी तरफ धन कुबेर इस समय अपनी आय के लिहाज से सबसे कम कर चुका रहे हैं।
मध्य वर्ग मोदी-भाजपा राजनीति का सबसे बड़ा, वफादार और बेबाक समर्थक है। वर्ष 2014 के चुनाव से लगातार दिख रहा है कि भाजपा देश में बड़े और मझोले शहरों में सीटें साफ कर दे रही है। दक्षिण भारत को छोड़ दें क्योंकि वहां भाजपा बुनियादी रूप से कमजोर है। हरियाणा जैसे राज्य में भाजपा फर्श से अर्श पर पहुंच चुकी है, जिसकी बड़ी वजह तेज शहरीकरण है। भाजपा ने इसके बदले जनता को क्या दिया है? पार्टी ने प्रति व्यक्ति आय के लिहाज से देश के तीसरे सबसे धनी बड़े राज्य की 75 प्रतिशत आबादी को गरीबी रेखा से नीचे धकेल दिया है। दिलचस्प है कि केंद्र और भाजपा लगातार दावा कर रहे हैं कि भारत में गरीबी की दर 5 प्रतिशत से नीचे आ गई है। दोनों बातें एक साथ कैसे हो सकती हैं?
इस सवाल का जवाब आज की राजनीति में छिपा है। अगर आप गरीबों को तोहफे बांटकर चुनाव जीतते हैं तो गरीब बढ़ना आपके लिए फायदेमंद है। लेकिन केवल 7.5 प्रतिशत लोगों पर कर का धन लुटाकर कोई कैसे जीत सकता है? इसलिए राज्य गरीबों की भी दो श्रेणियां बना रहे हैं: आय के हिसाब से असली गरीब और चुनावी गरीब यानी चुनावी लाभ के लिए इस्तेमाल होने वाले गरीब। राज्य दर राज्य अब यही हो रहा है। चुनावी गरीबों की संख्या असली गरीबों से 10 गुनी हो गई है। सियासत के इस बाजार में राजनीतिक वर्ग मध्य वर्ग से वसूले कर का इस्तेमाल वोट खरीदने के लिए करता है।
मैंने ऊपर जिक्र किया ही है कि भाजपा मध्य वर्ग को तवज्जो नहीं देने का खतरा उठा सकती है। बिल्कुल वैसे ही उठा सकती है, जैसे कांग्रेस और दूसरे ‘धर्मनिरपेक्ष दल’ मुस्लिम वोटों को अपने घर की जागीर मानकर मुसलमानों के साथ करते हैं। शायद उन दलों की वजह से ही भाजपा को अपने रवैये में बदलाव की जरूरत भी महसूस नहीं होती।
मध्य वर्ग शिकायतें करता रहेगा मगर भाजपा के लिए वफादार भी बना रहेगा। इसकी वजह मोदी के प्रति उसकी आसक्ति है, जिसके कारण वह मोदी और उनके हिंदू राष्ट्रवाद का मुरीद है। मध्य वर्ग इसी बात से खुश है कि मुसलमानों को एकदम हाशिये पर धकेला जा रहा है और उनके सामने बड़ा सवाल यह भी है कि मोदी नहीं तो कौन? इस तरह का एकतरफा और जुनूनी प्यार कोई नई बात नहीं है। मेरे साथी और राजनीतिक संपादक डीके सिंह इस विचित्र प्रेम के लिए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अपने दिनों से एक अनूठा शब्द भी ले आए हैं – फोसला यानी फ्रस्ट्रेटेड वन-साइडेड लवर्स एसोसिएशन। मोदी के प्रति मध्य वर्ग की इस आसक्ति को, इस भक्ति को और कैसे समझाएंगे? शायद हम कहेंगे, दिल है कि मानता नहीं।