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बैंकिंग साख: ऋणमाफी की सियासत से बिगड़ रही कर्जदारों की आदत

भारत में पहली ऋण माफी की घोषणा 1987 में चौधरी देवी लाल की अगुआई में हरियाणा की लोक दल सरकार ने 10,000 रुपये तक के कर्ज माफ कर की थी।

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तमाल बंद्योपाध्याय   
Last Updated- November 07, 2024 | 9:38 PM IST

कुछ महीने पहले आम चुनाव के दौरान एक बड़ा बैंक किसी राज्य में किसानों और सूक्ष्म, लघु और मध्यम औद्योगिक इकाइयों को दिया कर्ज पूरी तरह नहीं वसूल पाया। वजह एक राजनीतिक दल था, जिसके कार्यकर्ताओं ने बैंक के वसूली एजेंटों को उस इलाके में घुसने ही नहीं दिया।

मामला इतने पर ही खत्म नहीं हुआ। राजनीतिक दल ने एक चार्टर्ड अकाउंटेंट की मदद से ऋण माफी का फॉर्मूला भी तैयार कर लिया जिसे कर्जदारों के बीच बांटकर बताया गया कि किसे कितनी रकम लौटानी नहीं पड़ेगी।

बाद में राज्य स्तरीय बैंकर समिति (एसएलबीसी) की बैठक में एक वरिष्ठ मंत्री ने बैंकरों से कहा कि वे किसानों को क्रेडिट स्कोर जांचे बगैर ही कर्ज देने लगें। एसएलबीसी ऋणदाताओं की संस्था है। इसमें मौजूद ऋणदाता किसी राज्य में बैंकिंग के विकास और समाज कल्याण के कार्यक्रमों पर काम करते हैं, समन्वय करते हैं और एक-दूसरे से सलाह मशविरा भी करते हैं। यह भारतीय रिजर्व बैंक की प्रमुख बैंक योजना का हिस्सा है।

बैंकर वरिष्ठ मंत्री की बात पर राजी नहीं हुए। उन्होंने मंत्री से कहा कि अगर उन्हें किसानों का क्रेडिट स्कोर जाने बगैर ही कर्ज मंजूर करना और बांटना पड़ा तो वे तथाकथित सेवा क्षेत्र पद्धति अपनाएंगे। इसके तहत कर्ज चाहने वाले को स्थानीय बैंक शाखाओं से अनापत्ति प्रमाण पत्र लेना ही पड़ता है। यह योजना 1989 में उत्पादक ऋण बढ़ाने के लिए शुरू की गई थी। बैंक मंत्री की बात को रिजर्व बैंक के हस्तक्षेप के बाद नकार सके।

सार्वजनिक बैंकिंग के लोग भी निजी बातचीत में अक्सर ऋण की संस्कृति बिगड़ने की शिकायत करते हैं। इसमें असली खलनायक कृषि ऋण माफी है, जिसका वादा चुनावों से पहले तमाम राजनीतिक दल करते हैं। आईआईएफएल सिक्योरिटीज के एक अध्ययन का अनुमान है कि पिछले एक दशक में भारत के 18 राज्यों में करीब 3 लाख करोड़ रुपये के कर्ज माफ कर दिए गए। कहने की जरूरत नहीं है कि इसके कारण कृषि ऋण की गैर-निष्पादित परिसंपत्ति (फंसे ऋण) बहुत बढ़ गई हैं। ऋणमाफी का ऐलान होने पर वे लोग भी कर्ज नहीं चुकाते, जो वास्तव में चुकाने की क्षमता रखते हैं।

हाल में तेलंगाना सरकार ने 2 लाख रुपये तक के फसल ऋण माफ करने की घोषणा की, जिसके बाद पंजाब के किसानों ने भी ऋणमाफी की मांग शुरू कर दी। तेलंगाना की योजना से 40 लाख किसानों को फायदा होगा मगर 31,000 करोड़ रुपये का बोझ पड़ेगा। पिछले आम चुनावों से पहले भी एक राष्ट्रीय दल के घोषणापत्र में कृषि क्षेत्र की ऋणमाफी का जिक्र था। उसके नेता ने वादा किया था कि पंजाब और पूरे भारत के किसानों के कर्ज माफ कर दिए जाएंगे और एक बार नहीं बल्कि बार-बार किए जाएंगे।

आजादी के बाद से दो बार पूरे देश में कृषि ऋण माफी की घोषणा की गई है। केंद्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने 1990 में पहली ऋण माफी की थी। कृषि एवं ऋण राहत योजना नाम की इस योजना के तहत 3.2 करोड़ कर्जदारों का 10,000 रुपये तक का कर्ज माफ कर दिया गया था। इस पर करीब 7,825 करोड़ खर्च हुए थे। लगभग दो दशक बाद 2008 में मनमोहन सिंह सरकार ने 71,680 करोड़ रुपये की कृषि ऋण माफी और ऋण राहत योजना की घोषणा की।

भारत में पहली ऋण माफी की घोषणा 1990 की केंद्र सरकार की घोषणा से काफी पहले हुई थी, जब 1987 में चौधरी देवी लाल की अगुआई में हरियाणा की लोक दल सरकार ने 10,000 रुपये तक के कर्ज माफ कर दिए थे। राज्य सरकार पर इस योजना से करीब 227 करोड़ रुपये का बोझ पड़ा था।

पिछले एक दशक में भी कम से कम एक दर्जन राज्य सरकारों ने कृषि ऋण माफी की घोषणा की है, जिनकी रूपरेखा अलग-अलग रही है। एक राज्य ने केवल ब्याज माफ किया, कर्ज की मूल राशि नहीं। भारतीय स्टेट बैंक के 2023 के एक अध्ययन के अनुसार आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, पंजाब, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और तमिलनाडु ने 2014 और मार्च 2022 के बीच आठ साल में लगभग 2.52 लाख करोड़ रुपये के ऋण माफ किए, जिससे इन राज्यों के 3.68 करोड़ किसानों को लाभ हुआ।

कहा जाता है कि मुहम्मद बिन तुगलक (1325-51) ने किसानों का संकट दूर करने के लिए सबसे पहले कृषि ऋण शुरू किया था। उनके उत्तराधिकारी फिरोज शाह तुगलक ने अकाल और विद्रोह से जूझ रहे किसानों के कर्ज माफ कर दिए थे।

आजकल बैंकरों को भी मालूम है कि समय-समय पर ऋणमाफी की घोषणा से ऋण की संस्कृति खराब होती है। ऋणमाफी की घोषणा होते ही वे लोग भी कर्ज चुकाना बंद कर देते हैं, जिनके पास पैसे होते हैं। किसानों को बार-बार ऐसी घोषणा की उम्मीद होती है, इसलिए उन्हें समय पर कर्ज चुकाने की चिंता नहीं रहती। एक राज्य में ऐसी घोषणा हो तो पड़ोसी राज्य के किसान भी कर्जमाफी की उम्मीद में ऐसा ही करने लगते हैं।

किसान प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित हो सकते हैं लेकिन कर्जमाफी को चुनावी वादे में शामिल करने की बात बैंकर नहीं पचा सकते हैं। हालांकि इसमें भी एक पेच है। बैंक निजी बातचीत में बेशक नेताओं पर दोष मढ़ें मगर कुछ ऋणदाता खुद कर्ज की संस्कृति बिगाड़ रहे हैं। रिजर्व बैंक इस बात से वाकिफ है और इसने हाल में चार गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) के खिलाफ कदम उठाया है।

हाल में मुझे एक एमएफआई के प्रमुख द्वारा अन्य एमएफआई के नाम लिखा पत्र दिखा। पत्र में आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में विस्तार के इच्छुक एमएफआई से कहा गया कि एक ही इलाके में 30 से अधिक ऋण देने वाले बैंक, एनबीएफसी, सहकारी संस्थाएं, असंगठित खिलाड़ी और एमएफआई काम कर रहे हैं। हाल में आंध्र प्रदेश में बाढ़ की स्थिति बनने के बाद कुछ शाखाओं में 20 फीसदी तक कर्ज जोखिम में फंसने की बात पता चली है। फिर भी व्हाट्सऐप ग्रुप के जरिये इन्हीं क्षेत्रों में नई शाखाएं खोलने का विज्ञापन भी देखा जा रहा है।

इस खुले पत्र में आगे कहा गया कि आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में कर्ज देने वाले एक ही ग्राहक के लिए होड़ कर रहे हैं। ऐसा भी देखा गया, जब किसी जगह किस्त वसूलने एमएफआई के 30 कर्मचारी पहुंचे थे और सभी एमएफआई को एक ही व्यक्ति से किस्त वसूलनी थी।

कर्जदार इस मामले में दखल देने की दरख्वास्त लेकर स्थानीय विधायक के पास पहुंच रहे हैं, खुदकुशी की धमकी दे रहे हैं और एमएफआई को किसी इलाके में पास भी नहीं फटकने की धमकी मिली हैं। पूरे-पूरे गांव कसम खा चुके हैं कि कर्ज चुकाना ही नहीं है। कई गांवों में 10 एमएफआई से कर्ज लेने के बाद लोग फरार हो जा रहे हैं। यह सब आगे बढ़ने के एमएफआई के लालच की वजह से हो रहा है।

इस चिट्ठी को पढ़ने के बाद क्या कुछ और कहने की जरूरत रह जाती है?

(लेखक जन स्मॉल फाइनैंस बैंक में वरिष्ठ सलाहकार हैं)

First Published : November 7, 2024 | 9:29 PM IST