बर्लिन की दीवार गिरने के कुछ वर्ष पहले मेरी मित्रता पूर्वी जर्मनी के एक इंजीनियर के साथ हो गई थी। वह बहुत अच्छी अंग्रेजी बोलने वाला एक सुशिक्षित व्यक्ति था। मैं उस वक्त एरिक मारिया रेमार्क के उपन्यासों में से एक द ब्लैक ओबेलिस्क पढ़ रहा था। मेरे मित्र ने कहा कि उसने इस लेखक के बारे में कभी नहीं सुना। यह वैसा ही था जैसे कि आईआईटी से स्नातक की पढ़ाई किए हुए किसी व्यक्ति ने कभी शरत चंद्र के बारे में न सुना हो। रेमार्क की प्रसिद्ध रचनाओं में ऑल क्वाइट ऑन द वेस्टर्न फ्रंट को अक्सर दुनिया के महानतम युद्ध विरोधी उपन्यासों में गिना जाता है।
सन 1920 के दशक पर केंद्रित इस उपन्यास की विभिन्न भाषाओं में करीब 10 करोड़ प्रतियां बिकीं और यह उपन्यास कई बड़ी और पुरस्कृत फिल्मों की प्रेरणा बना। यह जानने के बाद कि रेमार्क जर्मन थे, मेरे मित्र ने बहुत साहस के साथ अपने स्थानीय पुस्तकालय में उनके बारे में जानकारी जुटाने की कोशिश की।
उन्हें पता चला कि सन 1930 के दशक में नाजियों ने रेमार्क को ‘देशप्रेम न रखने वाला’ मानकर प्रतिबंधित कर दिया था। युद्ध के बाद के वामपंथी शासनों ने इस प्रतिबंध को जारी रखा क्योंकि वे रेमार्क को ‘प्रतिक्रियावादी’ मानते थे।
बहरहाल पुस्तकालयाध्यक्ष ने बताया कि रेमार्क की किताबों का अंग्रेजी तर्जुमा मौजूद है और मेरे मित्र ने ऑल क्वाइट ऑन द वेस्टर्न फ्रंट का अनुवाद पढ़ा। मेरे लिए यह इस बात में झांकने का एक अवसर था कि ढकी हुई लेकिन सक्षम शिक्षा व्यवस्था किस प्रकार काम करती है। पूर्वी जर्मनी में तथा उसके बड़े भाई की भूमिका में रहने वाले तत्कालीन सोवियत संघ में भी हर कोई स्कूल और कॉलेज जाता था।
वहां से अच्छे वैज्ञानिक और इंजीनियर भी निकले। इतना ही नहीं वहां अच्छे संगीतकार, नर्तक और फिल्मकार भी हुए। यानी ऐसा भी नहीं था कि जर्मनी की संस्कृति की अनदेखी की गई।
परंतु शिक्षा व्यवस्था ने देशप्रेम से विरक्त और प्रतिक्रियावादी माने जाने वाले तमाम लोगों के नामों का अस्तित्व ही मिटा दिया। उसने यह सुनिश्चित करने का काम किया कि केवल साहित्य, इतिहास, अर्थशास्त्र, दर्शन और राजनीति विज्ञान जैसे विषयों की स्वीकृत विषयवस्तु ही पढ़ाई जाए। सोवियत संघ में मजाक में कहा जाता था कि एक इतिहासकार का काम है यह सुनिश्चित करना कि अतीत विश्वसनीय लगे।
ऐतिहासिक घटनाएं अगर शासन के लिए मुफीद नहीं होती थीं तो उन्हें गायब कर दिया जाता था। इतना ही नहीं अगर सरकार जिन चीजों को विश्वसनीय मानती थी उनमें परिवर्तन आता था तो किताबों को भी नए सिरे से लिखना पड़ता था।
इस प्रकार की सेंसरशिप तथा पुनर्लेखन को भी आंशिक तौर पर पूर्वी जर्मनी के पश्चिमी जर्मनी से कई क्षेत्रों में पिछड़ जाने की वजह माना जा सकता है। रूस तथा सोवियत संघ से निकले अन्य राज्यों को लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनाने में जो मुश्किलें हुईं उनके पीछे भी यह वजह हो सकती है। शिक्षा व्यवस्था में चुनिंदा कमियों ने स्टेम शोध को भी प्रभावित किया।
सोवियत वैज्ञानिकों को दूसरे देशों के वैज्ञानिकों से आसानी से संवाद कायम करने की सुविधा नहीं थी। विद्वानों को भी पश्चिमी विश्वविद्यालयों के साथ किसी प्रकार के आदान-प्रदान कार्यक्रमों में हिस्सा लेने की मंजूरी नहीं थी। उन्हें इसके लिए उच्चस्तरीय स्वीकृति हासिल करनी पड़ती थी।
ट्रॉफिम लीसेंको तथा कुछ अन्य वैज्ञानिक भी थे ही जिनकी पहुंच पोलित ब्यूरो में ऊपर तक थी। लीसेंको एक कृषि वैज्ञानिक थे जो जीन तथा विरासत के बारे में अजीबोगरीब विचार रखते थे। परंतु स्टालिन उन्हें पसंद करते थे। अन्य सोवियत वैज्ञानिकों को पता था कि उनके विचार गलत हैं।
उन्होंने अपने प्रयोगों के माध्यम से इसे साबित भी किया लेकिन ऐसा करने के परिणाम बहुत बुरे थे। लीसेंको पर सवाल खड़ा करने के लिए वैज्ञानिकों को जेल तक जाना पड़ा। ऐसे में बेहतरीन वैज्ञानिकों ने बायोसाइंस से दूरी बना ली। सोवियत संघ इन विषयों में पश्चिम के देशों से दशकों पीछे छूट गया।
उसे अकाल और खाद्यान्न की भारी कमी का भी सामना करना पड़ा। ऐसा इसलिए हुआ कि लीसेंको की समझ के कारण ऐसी फसलों का विकास नहीं हो सका जो जलवायु की दिक्कतों से निपट सकती थीं। आज भी वैसे ही दृश्य देखने को मिल रहे हैं। यहां तक कि अमेरिका में भी जहां तथाकथित बाइबल बेल्ट वाले कई राज्यों में विकासवाद का सिद्धांत नहीं पढ़ाया जा रहा है क्योंकि वह धार्मिक बातों के साथ विरोधाभासी है। उन राज्यों से बहुत सीमित संख्या में बायोसाइंस शोधकर्ता निकलते हैं।
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सोवियत, बल्गारियन और रोमानियन आदि राज्यों में एक हद तक अंधविश्वास भी था। पुराने जार शासन में रासपुटिन थे जो हीमोफीलिया ठीक करने के लिए फेथ हीलिंग करते थे। उसके बाद सत्ता संभालने वाले कम्युनिस्टों ने हर प्रकार के ज्योतिषियों, माध्यमों और मनोविज्ञान में आस्था जतायी।
लीसेंको की विचित्रता से मेल खाते एक कदम में उन्होंने पारंपरिक रूप से लोगों को ठीक करने की वैकल्पिक व्यवस्था पर भी विचार किया और उसे वास्तविक औषधियों के समान माना। शायद यही वजह है कि सोवियत संघ में जीवन संभाव्यता अन्य अनुषंगी देशों से कम रही। यहां तक कि अत्यंत गरीब क्यूबा से भी कम।
एक अधिनायकवादी शासन के लिए विश्वसनीय नजर आने वाली किताबें लिखवाना और असहज करने वाले तथ्य हटाना बहुत आकर्षक लग सकता है। दुर्भाग्यवश इतिहास हमें बताता है कि लोगों को उनके जीवनकाल की गलतियों के लिए याद किया जाता है जबकि उनकी अच्छाइयां अक्सर उनके साथ ही दफन हो जाती हैं।